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नोटबंदी: 4.5 लाख करोड़ रुपये के राष्ट्रीय नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार है?

टी एम थामस आइजैक   पिछले साल 8 नवंबर के प्रधानमंत्री के संबोधन पर, जिसमें मध्य रात्रि से 1,000 रु0 और 500 रु0 के नोटों का चलन बंद कर देने का एलान किया गया था, मेरी पहली प्रतिक्रिया थी-''यह...

टी एम थामस आइजैक
 
पिछले साल 8 नवंबर के प्रधानमंत्री के संबोधन पर, जिसमें मध्य रात्रि से 1,000 रु0 और 500 रु0 के नोटों का चलन बंद कर देने का एलान किया गया था, मेरी पहली प्रतिक्रिया थी-''यह पागलपन है।
बहुत से लोगों ने फोन कर के मझसे कहा था कि इस कदम की ऐसी निंदा करने से पहले मुझे सुबह तक इंतजार करना चाहिए था। अगली सुबह केरल विधानसभा के पटल पर एक विस्तृत बयान रखा गया, जिसका मुख्य जोर यही था कि नोटबंदी से काला धन खत्म होने वाला नहीं है। इसी लक्ष्य को तब भी हासिल किया जा सकता था जब पुराने नोटों को दो-तीन महीने चलने दिया जाता और नागरिकों को पुराने नोट बदलवाने के लिए पर्याप्त समय दिया जाता। आखिरी बात यह कि अचानक की गयी नोटबंदी अर्थव्यवस्था को तथा खासतौर पर असंगठित क्षेत्र को तहस-नहस करने जा रही थी, जिससे हाल के दौर की घटी हुई संवृद्घि की समस्या और उग्र हो जाने वाली थी। इनमें से हरेक दलील को, जो अब विधानसभा के रिकार्ड का हिस्सा है, पिछले एक साल के अनुभव ने सही साबित किया है।
 
नोटबंदी, एक पागलपने का विचार क्यों थी? मुद्रा, किसी भी अर्थव्यवस्था की धमनियों में बहते खून की तरह होती है। अगर किसी का खून खराब हो रहा हो, तो साफ कराने के लिए खून का डायलेसिस कराते हैं या पूरा खून ही शरीर से निकाल लेते हैं, कि मरीज मर ही जाए। नरेंद्र मोदी के अगड़म-बगड़म अर्थशास्त्र ने अर्थव्यवस्था से 86 फीसद मुद्रा निकाल ली, जिसकी भरपाई करने में करीब एक साल का समय लगा है। काले धन पर इस ''सर्जिकल स्ट्राइक" की चिकित्सकीय सटीकता का यही सच है! दो-तीन महीने तक बैंकों के आगे लंबी-लंबी कतारें लगी रहीं, एटीएम खाली पड़े रहे और देश के नागरिकों को कष्टï, पीडा और करीब 140 मौतों को झेलना पड़ा।
 
अर्थशास्त्र का कोई भी छात्र यह बता देगा कि किसी अर्थव्यवस्था में उत्पादन का स्तर, सकल मांग की स्थिति पर निर्भर करता है। नोटबंदी के चलते मांग बैठ गयी, जिसकी असंगठित क्षेत्र पर भारी मार पड़ी। इसके नतीजे, खुद सरकार द्वारा पेश किए जाने वाले वृद्घि दर के आंकड़ों के रूप में सभी के सामने हैं। चौथी तिमाही की वृद्घि दर, 2015-16 के 8.7 फीसद के  स्तर से गिरकर, 2016-17 में 5.6 फीसद रह गयी और सालाना वृद्घि दर 7.9 फीसद से घटकर 6.6 फीसद रह गयी। इसके साथ, रिजर्व बैंक द्वारा की गयी इस आगही को और जोड़ लें कि अगर, ''सरकारी उपभोग में 7वें केंद्रीय वेतन आयोग तथा रक्षा सेवाओं के लिए वन रैंक वन पैंशन का परिपालन शामिल रहीं रहा होता, तो वास्तविक जीडीपी 2 फीसद अंक नीचे होता और 2016-17 की वृद्घि सिर्फ 4.6 फीसद रह गयी होती। सकल घरेलू उत्पाद में 3.3 फीसद अंक की कमी का मतलब होता है, 4.5 लाख करोड़ रु0 से ज्यादा के उत्पादन की हानि। इस राष्टï्रीय नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार है? 
 
काले धन का क्या हुआ? मुझे एक किस्सा याद आ रहा है। किसी तालाब में मछलियां थीं और एक मगरमच्छ भी था। वे एक-दूसरे के पक्के दुश्मन थे। इसलिए, जब तालाब के मालिक ने कहा कि मगरमच्छ को पकडऩे के लिए पूरे तालाब को ही सुखा देते हैं, मछलियां उसके समर्थन में पानी से बाहर निकल आयीं। नतीजा यह हुआ कि मछलियां तो सारी मर गयीं जबकि मगरमच्छ बच निकला क्योंकि वह पानी में भी रह सकता था और जमीन के ऊपर भी। सचाई यह है कि भारत में सिर्फ 6 फीसद काला धन ही नोटों की गड्डिïयों के रूप में रखा जाता है। बाकी सारा काला धन या तो सोने के रूप में रखा जाता है, या फिर भूमि व अन्य परिसंपतियों में लगा दिया जाता है या फिर वैध कारोबार में ही लगा रहता है। काला धन कोई अचल राशि नहीं है बल्कि एक प्रक्रिया है जिसके जरिए लगातार बेहिसाबी दौलत पैदा की जा रही होती है। लेकिन, अगड़म-बगड़म अर्थशास्त्रियों का मानना था कि काले धन के मालिक अमीरों की अपना पैसा बैंकों में जमा कराने की हिम्मत ही नहीं पड़ेगी। यह मानकर चला जा रहा था 3-4 लाख करोड़ रु0 की राशि बैंकों में नहीं लौटेगी और इसके चलते भारतीय रिजर्व बैंक की देनदारी इतने ही रु0 से घट जाएगी। इसके चलते रिजर्व बैंक की और केंद्र सरकार की बिना कुछ किए-धरे ही बहुत भारी कमाई हो जाएगी। मैंने खुद केंद्र सरकार के शीर्ष स्तर से यह बात सुनी थी। लेकिन, एक साल बाद क्या नतीजा सामने आया है? तमाम नोटबंदीशुदा नोटों का 98.96 फीसद पहले ही लौट आया है और रिजर्व बैंक अभी गिनती ही कर रहा है।
 
बहरहाल, मोदी अर्थशास्त्र में विश्वास करने वालों ने अब भी उम्मीद नहीं छोड़ी है। उनका कहना है कि काले धन की असली खोज-बीन तो अब शुरू होगी। बैंक जमाओं की व्यवस्थित छानबीन में काला धन पकड़ा जाएगा तथा उसके खिलाड़ी अपनी सजा पाएंगे। इस ऐतिहासिक प्रयास के लिए मैं देश के पांच-छ: हजार आयकर अफसरों के लिए सौभाग्य की कामना करता हूं। लेकिन, मेरा एक सरल सा सवाल है, वही सवाल जो मैंने उस विनाशकारी रात को पूछा था। क्या यह प्रक्रिया नोटबंदी के बिना संभव नहीं थी? इसलिए, भारतीय आर्थिक इतिहास की सबसे बड़ी मूर्खता की सालगिरह के मौके पर, केंद्रीय वित्त मंत्री यह दलील दे रहे हैं कि हालांकि नोटबंदी से फौरन कुछ तकलीफ हुई है, यह दीर्घावधि में बहुत ही फायदेमंद साबित होने जा रही है। अब जाली नोटों के दोबारा प्रकट होने के लिए तो हमें किसी लंबी अवधि तक इंतजार नहीं करना पड़ा है। आयकर दाताओं की संख्या में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई हो सकती है। लेकिन, अतीत में ऐसी बढ़ोतरी और भी बड़े पैमाने पर और नोटबंदी के बिना ही हुई है। दीर्घावधि में सब कुछ जहां का तहां हो जाने वाला है।
 
एक जीवंत भारत का सपना पूरा करने का एक ही रास्ता है, वह रास्ता जिस पर हम केरल में चलते आए हैं--आर्थिक संवृद्घि  तथा बेहतर जीवन पद्घति पर, सामाजिक निवेश। आम आदमी को यातनाएं देने तथा डराने-धमकाने की ऐसी लापरवाह हरकतों से, यह सपना पूरा नहीं हो सकता है। हां! इस सब से कुछ नव-राष्टï्रवादियों के फूले हुए अहंकार को जरूर भरा जा सकता है।
 
(लेखक, सीपीआई एम) की केंद्रीय समिति के सदस्य और केरल के वित्तमंत्री हैं।)

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