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मध्यप्रदेश : चुनाव के पहले अंतर्कलह और साजिशों के बीच झूलती राजनीति

15 साल में पहली बार भारतीय जनता पार्टी प्रदेश में ऐंटी इनकंबेंसी फैक्टर से जूझ रही है। एक सर्वे के अनुसार भले ही ज्यादा दिखाई न देता हो, मगर मध्यप्रदेश में राजस्थान से भी अधिक ऐंटी इनकंबेंसी काम कर रही है। इसे कम...

फोटो - साभार गूगल


15 साल में पहली बार भारतीय जनता पार्टी प्रदेश में ऐंटी इनकंबेंसी फैक्टर से जूझ रही है। एक सर्वे के अनुसार भले ही ज्यादा दिखाई न देता हो, मगर मध्यप्रदेश में राजस्थान से भी अधिक ऐंटी इनकंबेंसी काम कर रही है।


इसे कम करने के लिए कई तरह की कोशिशें की जा रही हैं। चुनावी आचार संहिता लागू होने से पहले शिवराज सिंह चौहान सरकार की ओर से सरकारी अमले को चुनावी दृष्टि से सेट करने के लिए तबादले हो रहे हैं। दूसरी ओर मुख्यमंत्री की ओर से घोषणायें भी की जा रही हैं।


 संघ की रिपोर्ट के अनुसार भी प्रदेश में शिवराज सरकार हार रही है। भाजपा में इस समय गुटबाजी भी मुखर हो रही है। भाजपा के नए प्रदेशाध्यक्ष की नियुक्ति के बाद यह चर्चा है कि अमित शाह पूरा चुनाव अभियान अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश में है। इसलिए यह बयान भी दिया गया कि भाजपा में संगठन चुनाव लड़ेगा, कोई चेहरा नहीं। दूसरी ओर शिवराज अपनी पुरानी टीम नरेन्द्र सिंह तोमर आदि के साथ चुनाव लडऩा चाहते हैं। नरेन्द्र सिंह तोमर चुनाव समिति के अध्यक्ष भी बनाये गए है। अमित शाह के बयान के बाद नरेन्द्र सिंह तोमर ने बयान दिया है कि चुनाव शिवराज सिंह को सामने रखकर लड़ा जायेगा।


विधान सभा चुनावों को लेकर भाजपा की ओर से करीब दर्जन भर कमेटियां गठित की गई हैं। भाजपा के दो पूर्व प्रदेशाध्यक्षों- नंदकुमार सिंह चौहान और सत्यनारायण जटिया को किसी भी कमेटी में नहीं लिया गया। पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर भी किसी कमेटी में शामिल नहीं हैं। मुख्यमंत्री के प्रति निरंतर नाराजगी व्यक्त करने वाली यशोधरा राजे और मुरैना के सांसद अनूप मिश्रा को भी किसी कमेटी में नहीं लिया गया है। अनूप मिश्रा कई बार सरकार के विरोध में सार्वजनिक बयान दे चुके हैं। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और शिवराज के विरोधी कैलाश विजयवर्गीय ने सार्वजनिक बयान देकर मिश्रा को किसी महत्वपूर्ण कमेटी में रखने की मांग की है।


यह भी अफवाह रही है कि नरोत्तम मिश्रा के चुनाव को शून्य करने के चुनाव आयोग के निर्णय के दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा पलट देने के बाद उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाने की कवायद दिल्ली मे शुरू हुई, जिसके विरोध में मुख्यमंत्री भी सक्रिय हुए। बाद में संघ के हस्तक्षेप से इसे रोका गया। मोदी के नजदीकी समझे जाने वाले  जयभान सिंह पवैया ने भी बरकतउल्ला विश्व विद्यालय में अपने विभाग के तबादलों को लेकर मुख्यमंत्री तक पर टिप्पणी की। मुख्यमंत्री कार्यालय के राज्य मंत्री लाल सिंह आर्य ने इसके जवाब में पवैया को जिम्मेदारी से बयान देने की नसीहत दी।


ऊपर का झगड़ा निचले स्तर पर भी है। कई जगहों पर भाजपा की बैठकों में नेताओं के सामने झगड़े होने के समाचार मिल रहे हैं। ऐंटी इनकंबेंसी फेक्टर को कम करने के लिए भाजपा बड़े पैमाने पर वर्तमान विधायकों के टिकट काटना चाहती है। इसके बाद नीचे और अधिक असंतोष पनपेगा। जिसे वो संघ के नियंत्रण और हस्तक्षेप, सरकारी अमले के दुरुपयोग से कम करने की कोशिश करेगी। साम्प्रदायिक धु्रवीकरण करने के लिए भी कोई साजिश कर सकती है। वहीं कांग्रेस के नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति के बाद कांग्रेस थोड़ा सक्रिय है। विभिन्न समितियों के गठन में सारे गुटों को तरजीह देने की कोशिश हुई है। सिर्फ तालमेल समिति में सिंधिया समर्थक एक नेता को लिए जाने पर कुछ नाराजगी सामने आई है। दिग्विजय सिंह ने नर्मदा यात्रा के बाद तालमेल यात्रा शुरू की है। अभी तक कांग्रेस के सारे छत्रपों में एकता दिखाई देती है। यह भी चर्चा है कि कमलनाथ के कारपोरेट घरानों से रिश्तों के कारण कांग्रेस को चुनावी फंड जुटाने में भी कोई दिक्कत नहीं आयेगी।


छह जून को मंदसौर में राहुल गांधी की सभा में जुटी भीड़ से कांग्रेस में उत्साह है। कांग्रेस की ओर से बसपा और गौंडवाना पार्टी से तालमेल की भी चर्चा है। कमलनाथ के ताजा बयान के अनुसार कांग्रेस का गौंडवाना गणतंत्र पार्टी से गठबंधन हो गया है, जबकि बसपा के साथ चर्चा जारी है। कमलनाथ के अनुसार यह चर्चा दो तरह की है। एक कोशिश है कि सीटों का बटवारा हो। दूसरी सोच यह है कि समझदारी के आधार पर ऐसे उम्मीदवार खड़े किए जायें, जो भाजपा को नुकसान पहुंचाने वाले हों। यह भी संभव है कि बसपा के साथ साथ सपा के साथ भी कांग्रेस का गठबंधन हो जाये। सिर्फ गौंडवाना के बारे में कुछ कहना मुश्किल है। अनुभव यह है कि विधान सभा चुनावों के बाद गौंडवाना तीन हिस्सों में बंट जाती है, मगर विधान सभा चुनावों में एक होती है ताकि कांग्रेस को नुकसान हो। भाजपा ही जीजीपी का मुख्य वित्तीय स्रोत है। अभी दो माह पहले ही राज्य सरकार ने जीजीपी के दोनों गुटों के लिए कार्यालय आवंटित किए हैं। कांग्रेस छोडक़र गए नेताओं को फिर से कांग्रेस में लाने की कोशिश भी हो रही है। कुछ नेताओं को कांग्रेस में शामिल कर भी लिया गया है।


कुल मिलाकर कांग्रेस केवल भाजपा सरकार के खिलाफ जनता की नाराजगी और जोड़तोड़ के सहारे ही चुनाव जीतने की कोशिश कर रही है। भाजपा सरकार की नीतियों पर कोई ठोस विकल्प प्रस्तुत नहीं कर रही है। यहां तक कि इन चुनावों में भी वह नरम हिन्दुत्व का कार्ड खेल रही है और भाजपा तथा संघ परिवार की साम्प्रदायिकता का मुखरता से विरोध नहीं कर रही है। गुजरात के बाद कर्नाटक विधान सभा चुनाव और कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनने से कांग्रेस में उत्साह है।


दोनों दलों का उत्तरप्रदेश के साथ लगते क्षेत्रों में तो प्रभाव है ही,बसपा का आदिवासी क्षेत्रों को छोडक़र प्रदेश के बाकी हिस्सों में दलितों में प्रभाव है। आमतौर विधान सभा चुनाव के समय यह पार्टियां सक्रिय हो जाती हैं। मगर अभी तक वह सक्रियता उस पैमाने पर नहीं दिखी है, जिस पैमाने पर हुआ करती थी। इससे भी अंदाज लगाया जा सकता है कि इस बार इन दलों की दिलचस्पी कांग्रेस के साथ गठबंधन में ही अधिक है। बसपा प्रदेशाध्यक्ष ने इस बीच बयान दिया है कि बसपा अकेले चुनाव लड़ेगी, यह सौदेबाजी को थोड़ा कठिन करने के लिए भी हो सकता है। क्योंकि इस बयान में यह भी कहा गया है कि अंतिम निर्णय मायावाती ही लेगी।


पिछड़े वर्ग की कुशवाह जाति में इसका असर है। पहले यह जाति भाजपा समर्थक थी। भाजपा फिर इस जाति को अपनी ओर करने के प्रयास में है। समानता दल अपने साथ भी सहयोग करता है किंतु कांग्रेस के साथ भी समझदारी बना रहा है। एक मई को ग्वालियर में उसने रैली में ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्य अतिथि बनाया था। हालांकि कमलनाथ के पदभार ग्रहण करने के कारण वह शामिल नहीं हुए। मप्र में वैकल्पिक राजनीतिक मुहिम में समानता दल एक महत्वपूर्ण घटक है, वहीं मध्यप्रदेश में जनता दल शरद यादव के साथ है। इसलिए कांग्रेस के साथ गठबंधन करना उनकी कोशिश है। हालांकि कांग्रेस इन सबको एडजस्ट कर पायेगी या नहीं, यह भी एक प्रश्न है।


अपने गठन के समय से ही आम आदमी पार्टी का संयुक्त आंदोलनों के प्रति कोई रुझान नहीं रहा है। हालांकि पूर्व में इस पार्टी के प्रति युवकों या आमजन को जो आकर्षण था, वह अब नहीं रहा। कई जिला इकाईयों में गुटबाजी के कारण बहुत से लोग निष्क्रिय भी हो चुके हैं। हाल तक यह पार्टी अपनी दम पर सरकार बनाने का दावा करती रही है। अभी हाल ही में इसने एक तरफ अपने प्रत्याशियों की सूची जारी की है। वहीं सहित अन्य दलों से बात करने का प्रयास किया है।


सीपीएम ने पिछले अनेक वर्षों से गैर भाजपा गैर कांग्रेस दलों और सामाजिक संगठनों को एकजुट करने के जो प्रयास शुरू किए थे। वे बीच में थोड़े धीमे हुए हैं। उसकी दो वजह हैं, एक तो राजनीतिक दलों में कांग्रेस के साथ मिल कर विधान सभा में पहुंचने की होड़ है। दूसरा सामाजिक संगठन जो मुख्यत: विस्थापन विरोधी संगठन हैं। उनमें से कोई भी खुलकर नहीं आना चाहती। शायद वह कांग्रेस के साथ किसी स्तर पर कोई समझदारी बनाना चाहता है ताकि सरदार सरोवर बांध में कोई छोटी मोटी राहत मिल सके। अन्य संगठनों की सक्रियता अपने अपने क्षेत्रों तक ही सीमित है।


मतदाता सूचियों में गड़बड़

प्रदेश में मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने पर गड़बड़ पायी गई है। चुनाव आयोग ने माना है कि छह लाख मतदाताओं के नाम फर्जी थे, जो काट दिए गए हैं। कांग्रेस ने साठ लाख मतदाताओं फर्जी मतदाता होने का आरोप लगाया है। उल्लेखनीय है कि 2013 के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस और भाजपा के बीच वोटों का अंतर भी 60 लाख ही है। एनडीटीवी ने भी कुछ विधान सभा क्षेत्रों की सूची बताई है, जिसमें एक ही फोटो 23 विभिन्न नामों के मतदाताओं पर लगा हुआ है। यह गड़बडी़ बड़े पैमाने पर है। यदि तार्किक रूप से भी देखा जाये तो जनसंख्या वृद्धि दर 24 प्रतिशत है, इस लिहाज से मतदाताओं मे वृद्धि भी इसी के आसपास होना चाहिए, मगर मतदाताओं की संख्या में वृद्धि 40 प्रतिशत है।


जिस प्रकार मुंगावली और कोलारस में 12 हजार मतदाताओं के नाम चुनाव आयोग को मतदान के एक दिन पहले काटने पड़े थे, उससे साफ है कि भाजपा ने यह गड़बड़ी योजनाबद्ध तरीके से की है। हमें कम से कम अपनी सीटों पर इसकी जांच करना चाहिए।
इसका दूसरा पहलू यह है कि यदि फर्जी नाम जोड़े गए हैं तो बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यकों और दलितों के नाम काटे भी गए होंगे। इस संबंध में भी पता लगाने की कोशिश करना चाहिए।

फोटो - साभार गूगल

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