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आंशिक नहीं, संपूर्ण कर्जमुक्ति की जरूरत

देश का किसान आंदोलन संपूर्ण कर्जमुक्ति के लिए लड़ रहा है.

अखिल भारतीय किसान सभा और उसकी पहलकदमी पर 200 से अधिक किसान व आदिवासी संगठनों के साझा मंच अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति स्वामीनाथन आयोग के सी-2 फार्मूले के अनुसार लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य और संपूर्ण कर्जमुक्ति के सवाल पर जो देशव्यापी आंदोलन विकसित कर रही है, उसी का नतीजा है कि कृषि संकट और खेती-किसानी से जुड़े सवाल राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ रहे हैं। इन्हीं संघर्षों के दबाव में कांग्रेस को किसानों से कर्जमाफी का वादा करना पड़ा है। हाल में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा सरकारों के पतन के बाद बनी कांग्रेस सरकारों ने कर्जमाफी की घोषणा भी की है। लेकिन यह स्पष्ट होना चाहिए कि इस देश का किसान आंदोलन संपूर्ण कर्जमुक्ति के लिए लड़ रहा है और कांग्रेस सरकारों की घोषणा आंशिक कर्जमाफी तक ही सीमित है।


इस टिप्पणी को लिखते समय आत्महत्या के तीन दुखद मामले सामने आये हैं। इनमें दो मामले, एनडीटीवी के अनुसार मध्यप्रदेश के हैं. एक में, शाजापुर जिले के कालापीपल गांव में प्रेमनारायण रघुवंशी ने 20 दिसम्बर को जहर पीकर आत्महत्या कर ली। वह 10 एकड़ जमीन का मालिक था, लेकिन बैंकों का उस पर 5 लाख रुपयों का कर्ज चढ़ा हुआ था। पिछले साल सोयाबीन की फसल ज्यादा बारिश से, तो इस साल कम बारिश से गेहूं की फसल बर्बाद हो गई थी। दूसरे मामले में, खंडवा जिले के पंधाना विधानसभा क्षेत्र के अस्तरिया गांव में 45 वर्षीय एक आदिवासी किसान जुवानसिंह ने 22 दिसम्बर को फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। उसका शव सुबह करीब 7 बजे उसी के खेत में एक पेड़ से लटका मिला। उस पर बैंकों का 3 लाख रुपयों का ऋण था और नवगठित कांग्रेस सरकार की कर्जमाफी योजना के दायरे में वह नहीं आ रहा था, क्योंकि कट-ऑफ -डेट 31 मार्च, 2018 रखा गया है। उसने इस कर्ज का इसी वित्तीय वर्ष में नवीनीकरण करवाया था।  


तीसरा मामला आंध्रप्रदेश का है। बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, 6 एकड़ कृषि भूमि के मालिक 60 वर्षीय मल्लप्पा ने इसी अगस्त में कीटनाशक पीकर आत्महत्या कर ली। उस पर बैंकों का 1.12 लाख रूपये और निजी महाजनों का 1.73 लाख रुपयों का कर्ज चढ़ा हुआ था। खेती-किसानी के लिए उसने अपनी बेटी के जेवर भी गिरवी रख दिए थे. आंध्रप्रदेश सरकार की कर्जमाफी नीति के तहत उसके केवल 40 हजार रूपये ही माफ हुए थे और महाजनों व सूदखोरों की प्रताडऩा से वह परेशान था. टमाटर की खेती में उसे अकल्पनीय घाटा हुआ था। टमाटरों को मंडियों में पहुंचाने और बिचौलियों को कमीशन देने के बाद लागत पड़ी 8 रूपये प्रति किलो, लेकिन उसे मिले केवल 2.67 रूपये प्रति किलो ही। ऐसी हालत में किसानों के पास अपनी फसल को सड़कों पर फेंकने के सिवा और कोई चारा नहीं बचता। आत्महत्या करने से पहले उसने अपने कफन-दफन का इंतजाम भी खुद अपने हाथों से किया। अब उसके बेटे 5 लाख रुपयों के उस मुआवजे का इंतजार कर रहे हैं, जिसमें से 3 लाख रूपये केवल कर्ज चुकाने में निकल जाने वाले हैं। मुआवजे की घोषणा के बाद उसके घर में सूदखोरों की दस्तक और तेज हो गई है। इन तीनों मामलों से साफ हैं कि कर्ज के फंदे में फंसे किसानों द्वारा आत्महत्या की वारदातें देशव्यापी परिघटना है. हाल में घोषित मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सरकारों द्वारा कर्जमाफी के जो आदेश दिए गए हैं, वे स्वागतयोग्य तात्कालिक राहत तो हैं, लेकिन कृषि कर्ज की ऊपरी सतह को ही छूते हैं, क्योंकि उन्होंने केवल सहकारी और ग्रामीण बैंकों द्वारा प्रदत्त  अल्पकालिक ऋणों को ही माफ  करने की घोषणा की है।


ऋण माफी की इन घोषणाओं में भी एकरूपता नहीं है। मध्यप्रदेश की सरकार ने जहां कट-ऑफ-डेट 31 मार्च घोषित की है, वहीं छत्तीसगढ़ और राजस्थान ने 30 नवम्बर, राजस्थान सरकार ने 2 एकड़ से कम कृषि भूमि वाले किसानों का सहकारी और ग्रामीण बैंकों से लिया गया पूरा कर्ज माफ किया है और व्यावसायिक बैंकों से लिए गए 2 लाख तक के कर्जे माफ करने की घोषणा की है, वहीँ छत्तीसगढ़ सरकार ने सहकारी और ग्रामीण बैंकों से ही लिए गए 2 लाख रुपयों तक के कर्जे माफ करने की घोषणा की है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के अनुसार देश के आधे किसान परिवार औसतन एक लाख रुपयों के कर्ज में डूबे हुए हैं। इस कर्ज का लगभग 55 प्रतिशत महाजनों, सूदखोरों या निजी व्यक्तियों से लिया गया कज़ऱ् है, जिस पर वे न्यूनतम 60 प्रतिशत से लेकर 240 प्रतिशत तक का ब्याज दे रहे हैं। बैंकिंग कर्ज तो इन किसानों पर चढ़े कज़ऱ् का एक छोटा-सा हिस्सा है। इसलिए कर्जमाफी के आदेश किसानों को पूरी तरह से कर्जमुक्त नहीं करते। महाजनी कर्ज से उनकी मुक्ति के लिए तो अलग तरह के उपाय करने होंगे। एक उपाय तो केरल की तरह का हो सकता है, जहां वाम मोर्चा सरकार ने ऋण मुक्ति आयोग बनाकर किसानों को कर्जमुक्त किया है।


कांग्रेस सरकारों के ये आदेश किसानों को बैंकिंग कर्ज से भी पूरी तरह मुक्त नहीं करते, जिसका वादा उसने चुनावों के दौरान किया है। हमारे देश के अधिकांश किसान अपनी फसल को सोसायटियों में समर्थन मूल्य पर बेचकर या बाजार में बिचौलियों को औने-पौने दामों में बेचकर बैंक का कर्ज चुका देते हैं, ताकि बैंकों के भारी-भरकम ब्याज की मार से बच सके. सोसायटियां उन्हें उनकी उपज के पूरे मूल्य नहीं देती। फसल के बदले जो चुकता किया जाता है, वह मय-ब्याज कर्ज काटकर चुकता किया जाता है। इस प्रकार अधिकांश किसानों का कजऱ् मार्च तक चुकता हो जाता है। बहुत-से किसान सूदखोरों से कर्ज लेकर बैंकों का कर्ज 31 मार्च तक चुका देते हैं और अप्रैल के माह में ही नया कर्ज लेकर सूदखोर का कर्ज मय-ब्याज वापस कर देते हैं। एक तरीके से यह कर्ज का नवीनीकरण ही होता है। नए वित्तीय वर्ष में कर्ज लेने का सिलसिला अगस्त तक चलता है, जिससे वह बरसात की फसल के लिए खाद-बीज-दवाई का इंतजाम करता है। कुछ इलाकों में अन्य फसलों के लिए अक्टूबर-दिसम्बर में भी कर्ज लिया जाता है। जो किसान मार्च-अप्रैल में कर्ज नहीं चुका पाते, उनको इस नए कर्र्ज में से पुराना कर्ज काटकर बकाया दिया जाता है। इस प्रकार यह वास्तव में नए कर्ज के नाम पर पुराने कर्र्ज का नवीनीकरण ही होता ही. जिन किसानों ने मध्यप्रदेश में इस तरह का ऋण लिया है, उन्हें कोई फायदा नहीं होना है और सरकारी कर्ज के जाल से वे मुक्त नहीं होने वाले हैं।


कांग्रेस को कर्जमाफी के वादे को जुमला बनाने से बचना होगा। कर्ज माफी का अर्थ है, कम-से-कम उस पर चढ़े सभी सरकारी कर्जों की माफ़ी, और इसमें राष्ट्रीयकृत, व्यावसायिक और निजी बैंकों, सहकारी सोसाइटियों, स्वयं सहायता समूहों के कर्जे शामिल हैं। ये कर्जे उन पर इसलिए चढ़े हैं कि केंद्र की विभिन्न सरकारों ने उन्हें लाभकारी समर्थन मूल्य से वंचित किया गया है। उस पर चढ़ा कर्जा केंद्र और भाजपा राज्य सरकारों की कृषि विरोधी नीतियों का नतीजा है। इसीलिए किसान सभा ने यह उचित ही मांग की है कि कर्जमाफी की कट-ऑफ़-डेट 17 दिसम्बर हो, जिस दिन तक इन प्रदेशों में जनविरोधी भाजपा सरकारें कायम थीं।


कर्जमाफी को जिन शर्तों के साथ गूंथा गया है, उसका कुल नतीजा यह है कि मध्यप्रदेश के 41 लाख किसानों पर 71 हजार करोड़ रुपयों का सरकारी कर्ज है, लेकिन केवल 30 लाख किसानों के सिर्फ 18 हजार करोड़ रूपये ही माफ किए गए हैं। इसी प्रकार, छत्तीसगढ़ के 16.65 लाख किसानों के सिर्फ 6100 करोड़ रुपयों को ही माफ  करने की घोषणा हुई है, जबकि यहां 30 लाख से ज्यादा किसान बैंकिंग कज़ऱ् में फंसे हुए हैं। राजस्थान सरकार ने भी कर्जमाफी के रूप में केवल 8000 करोड़ रुपयों की ही राहत दी है और 2 एकड़ की सीमा के कारण लाखों गरीब किसानों को कोई फायदा नहीं होने वाला है। उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, राजस्थान जैसे विभिन्न राज्यों में अभी तक हुई कर्जमाफी का अनुभव बताता है कि ये योजनाएं किसानों के लिए ''ऊंट के मुंह में जीराÓÓ समान क्षणिक राहत ही साबित हुई है और वे फिर कर्ज के फंदे में फंसने के लिए बाध्य हुए हैं। इन सरकारों द्वारा घोषित कर्जमाफी की योजना में उन खेतिहरों को तो गिना ही नहीं जाता, जिनके पास जमीन नहीं है और जो दूसरों की भूमि को किराये पर लेकर या बंटाईदार बनकर खेती करते हैं या वे आदिवासी, जो वन भूमि पर कब्जा करके खेती कर रहे हैं। ऐसे किसानों को कोई बैंकिंग सहायता नहीं मिलती और वे साहूकारी कर्ज में ही पूरी जिन्दगी फंसे रहते हैं।


वर्ष 2016-17 की नाबार्ड की रिपोर्ट यह बताती है कि देश के किसानों पर 12.60 लाख करोड़ रुपयों का सरकारी कर्ज चढ़ा हुआ है। इन किसान परिवारों की औसत सालाना आय 1,07,172 रूपये ही है और इस आय का केवल 35 प्रतिशत हिस्सा (37,510 रूपये) ही उन्हें खेती से मिलते हैं. अपनी आजीविका के लिए उन्हें दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ती है। अनिश्चितता से भरी किसानी और मजदूरी से पूरे वर्ष में बचत होती है केवल 4552 रूपये ही और इस बचत से 25 सालों में भी कर्ज चुकता नहीं हो पायेगा। इसलिए यह कर्ज पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। कर्ज वसूलने के लिए बैंकर्स औए सूदखोरों द्वारा केवल उसकी जमीन की ही कुर्की नहीं की जाती, उसे इतना जलील भी किया जाता है कि आत्महत्या के सिवा और कोई दूसरा रास्ता उसके पास नहीं बचता। पूरे देश में पिछले 15 सालों में साढ़े तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है। छत्तीसगढ़ में भी इसी अवधि में 25000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है और यहां आत्महत्या की दर प्रति लाख किसान परिवारों में 40-50 प्रति वर्ष है। तो यह है किसानों की हालत!


कृषि संकट के इस दौर में इस आंशिक कर्जमाफी का स्वागत तो किया ही जाना चाहिए। हमें यह अच्छी तरह याद रखना चाहिए कि यह कर्ज माफी किसानों को भीख में नहीं मिल रही है, बल्कि मोदी सरकार की किसानविरोधी नीतियों के खिलाफ अनवरत ढंग से चलाये गए संघर्षों का ही यह नतीजा है। इसलिए यह राहत अधिकतम गरीब और मध्यमवर्गीय किसानों तक पहुंचे, इसके सचेत प्रयास करने होंगे। लेकिन यह किसानों को संकट से मुक्त नहीं कर सकती। इसके लिए किसान समुदाय की संपूर्ण कर्जमुक्ति के लिए नव-उदारवादी नीतियों के खिलाफ संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा और साथ ही किसानों के लिए लाभकारी समर्थन मूल्य सुनिश्चित करना होगा। किसान सभा चाहती है कि किसान समुदाय की मांगों-मुद्दों-समस्याओं पर बात करने के लिए संसद का 21 दिवसीय विशेष अधिवेशन बुलाया जाए और संसद में कानून बनाकर उन्हें बैंकिंग और साहूकारी कर्जे से मुक्त करने का कानून बनाया जाए। किसान सभा चाहती है कि संसद में कानून बनाकर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाए और उनकी फसल खरीदने के लिए आने वाली हर सरकार को कानूनन बाध्य किया जाए। किसान सभा चाहती है कि आदिवासियों और दलितों के हितों के लिए जो संवैधानिक प्रावधान हैं, उसे पूरी तरह क्रियान्वित किया जाए।


ठीक इन्हीं चिंताओं के साथ आगामी 8-9 जनवरी को 'देशव्यापी ग्रामीण हड़ताल का आह्वान किया गया है. इस दिन हमारे देश के संगठित और असंगठित क्षेत्र के 20 करोड़ मजदूर भी मोदी सरकार की मजदूर विरोधी नीतियों के खिलाफ हड़ताल पर जा रहे हैं। नया साल मजदूर-किसान एकजुटता का प्रतीक बनने जा रहा है, जो भाजपा की सांप्रदायिक-फासीवादी नीतियों को शिकस्त देने में निर्णायक भूमिका निभाएगा। 
 


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संजय पराते

" लेखक - सीपीआई (एम) छत्तीसगढ़ के राज्य सचिव व  छत्तीसगढ़ किसान सभा के प्रदेश अध्यक्ष है "

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