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कांग्रेस के चबूतरे पर भाजपा का गोबर

राजकाज की दिशा के बदलने की एक अनिवार्य शर्त होती है; पिछले सत्ता प्रतिष्ठान के औजारों और प्रतीकों का बदला जाना - जो जुल्म और लूट में पिछली सरकार का जरिया रही थी उस नौकरशाही में उल्लेखनीय और दिखने लायक परिवर्तन करना।

सरकारों के बदलाव के साथ नीतियों और राजकाज की दिशा के बदलाव की उम्मीद करना एक स्वाभाविक बात होती है। पूंजीवादी लोकतंत्र में भी नवनिर्वाचित हुकूमतों से इतनी अपेक्षा तो न्यूनतम होती ही है। राजकाज की दिशा के बदलने की एक अनिवार्य शर्त होती है; पिछले सत्ता प्रतिष्ठान के औजारों और प्रतीकों का बदला जाना - जो जुल्म और लूट में पिछली सरकार का जरिया रही थी उस नौकरशाही में उल्लेखनीय और दिखने लायक परिवर्तन करना। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों प्रदेशों की नयी सरकार का गुजरा महीना ऐसा कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं करता।  इसके उलट, पुरानी नौकरशाही की निरंतरता की, यहां तक कि उसे उपकृत करने की मिसालें पेश करता है।

छत्तीसगढ़ की सरकार ने कल्लूरी नाम के बदनाम पुलिसिये को दण्डित करने की बजाय उसे एक बड़ी और स्वतंत्र जिम्मेदारी सौंप दी है। यही अधिकारी है जिसकी छत्रछाया में आदिवासियों की हत्याओं, आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कारों और वकीलों - पत्रकारों की हत्याओं सहित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को झूठे मुकदमों में फंसाने की अनगिनत जघन्य वारदातें अंजाम दीं गई। इसने पूरे मीडिया के सामने, पूरी बेशर्मी से बर्बरता को जायज ठहराया। क्रूरता का महिमामण्डन किया। बात यहीं तक नहीं रही। उसकी इस रेप फ्रेंडली ट्रिगर हैप्पीनेस को संघ-भाजपा ने अपना आइकॉन बनाकर विश्वविद्यालयों में उसके प्रवचन तक रखवाये। पूरे देश में इसकी इतनी थू-थू हुई कि रमन सिंह सरकार तक को उसे हटाना पड़ा। बस्तर और छत्तीसगढ़ में भाजपा को हराने के पीछे की भावनाओ का जो पुलिस ज़ुल्म और उसका ब्रांड कल्लूरी एक कारण रहा, उसकी प्रतिष्ठा की बहाली करके कांग्रेस सरकार क्या सन्देश देना चाहती है ?
मध्यप्रदेश में हुई नियुक्तियां और पदस्थापनायें भी इसी तरह की हैं। शिवराज में बाकी जो हुआ सो हुआ, खुल्लमखुल्ला भ्रष्टाचार के  विश्व-कीर्तिमान धड़ाधड़ बने। हजारों करोड़ रुपयों के भ्रष्टाचार हुए। धर्म-शिक्षा-स्वास्थ्य-निर्माण-विस्थापन-पुनर्वास-साइकिल-एम्बुलेंस-प्रसूति-शमशान-पोषणाहार-कब्रिस्तान-संस्कृति-जनसम्पर्क के विज्ञापन कोई भी नाम लीजिये,  ऐसा कोई काम नहीं हुआ जिनमे बेईमानी और भ्रष्टाचार नहीं हुआ। यह सामान्य सा नागरिक भी जानता है कि कोई भी भ्रष्टाचार बिना पालतू और शरीके जुर्म अफसरशाही के नहीं हो सकता। कितने ऐसे अफसरों के खिलाफ कार्यवाही आरम्भ हुयी है? वह जन आयोग कहाँ है जिसे भ्रष्टाचार की जांचों के लिए गठित किये जाने का वादा कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र - वचन पत्र-में किया गया था?  कहीं नहीं। अब तो प्रेस कांफ्रे स में भी इस बारे में पूछे जाने वाले सवालों पर मुख्यमंत्री चुप लगा जाते हैं।
अलबत्ता इसका ठीक उलट जरूर हुआ है।

वह मुख्यसचिव जिन्होंने ई टेंडर की जांच नहीं होने दी, अपनी विदाई पार्टी में नए मुख्यमंत्री को अब तक का सबसे 'विजनरी' मुख्यमंत्री बताते है और रिटायरमेंट के अगले ही दिन राज्य निर्वाचन आयुक्त बना दिए जाते है । एक दिन पहले घोटालों की जांचों में घिरे एक अधिकारी की जाँचे  'बन्द' करने का फैसला होता है और अगले दिन नए मुख्यसचिव के रूप में उसकी नियुक्ति कर दी जाती है। कल तक जो शिवराज की नाक के बाल थे वे अब नए मुख्यमंत्री के करीबी बने पाये जाते हैं। यह सिर्फ ऊपर की परत हैं, संभागों-जिलों और विभागों में भी सब कुछ यथावत है।

यह दलील बेतुकी है कि शीर्ष नौकरशाही में विकल्प सीमित होते हैं। अव्वल तो पूरी की पूरी नौकरशाही ही भ्रष्ट और नाकारा है यह कहना ठीक नहीं होगा - अभी भी कुछ बल्कि कुछ ज्यादा ही कुछ बचे हुए हैं जो जितना पढ़कर आये हैं उतना उसी तरह अमल में लाना चाहते हैं। बशर्ते उन्हें करने दिया जाए, उन्हें प्रोत्साहित किया जाये, उनके सामने ढंग के उदाहरण प्रस्तुत किये जायें।  इसके लिए एक राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए होती है। 

नयी सरकारों को जनादेश को पढऩा और समझना चाहिए।  यह गाँठ बाँध लेना चाहिए कि जिनकी अपराधों में लिप्तता जाहिर उजागर है उनकी जगह लालबत्ती की सुरक्षित कार और बंगला नहीं, निलम्बन, कड़ाई से जांच और फिर पुलिस थाने और जेल है। छत्तीसगढ़ के जागरूक सामाजिक कार्यकर्ता रतन गोंडाने ने इसे ठीक ही  'कांग्रेस के चबूतरे पर भाजपा का गोबर' करार दिया है; इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि बजाय साफ करने के वह इसे माथे के चन्दन के रूप में धारण करने पर आमादा है। 

मप्र और छग की सरकारों के संज्ञेय अपकर्मों के खातों की रोकड़ में सिर्फ आर्थिक घपले और बेइमानियां भर दर्ज नहीं हैं। शिक्षा-साहित्य और संस्कृति की जड़ों में भी इन्होंने कम मठ्ठा नहीं डाला है। यह दौर विश्वविद्यालयों में संकीर्ण सोच के कुंद बुद्धियों, साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थानों में कुपढ़ शठों की जबरिया भरमार का दौर रहा है और यह सिर्फ माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता वि.वि. तक सीमित मसला नहीं है। नवनिर्वाचित सरकारों का काम इस गोबर को साफ़ करने का भी है। संविधान की शपथ लेकर आने वालों के जिम्मे सिर्फ मंत्रिपद नहीं आता धर्मनिरपेक्षता की हिफाजत और लोकतंत्र का विस्तार भी आता है।

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