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कांचा इलैया : एक तल्ख असहमत आवाज़

हमारे देश की सामाजिक-बनावट में जाति एक महत्वपूर्ण बुराई रही है। हज़ारों बरसों तक कथित ऊंचेपन की धौस पर चल-अचल संसाधनों पर बेजा कब्जा कर लिया गया। कथित नीचली जातियों का शोषण होता रहा।


मनोज कुलकर्णी@आहट
हमारे देश की सामाजिक-बनावट में जाति एक महत्वपूर्ण बुराई रही है। हज़ारों बरसों तक कथित ऊंचेपन की धौस पर चल-अचल संसाधनों पर बेजा कब्जा कर लिया गया। कथित नीचली जातियों का शोषण होता रहा। उनकी मेहनत का उन्हें वाजिब मेहनताना तक नहीं मिलता। कुछ खास जातियां उस कमाई को हड़प लेती रहीं। समृद्ध होती गयीं। आधुनिक शिक्षा और जीवन-मूल्यों के आने पर ऐसे उत्पीडऩ के विरुद्ध संघर्ष उठने लगे। दलितों-आदिवासियों में से अनेक विचारक और आंदोलनकारी सामने आएं। देश आज़ादी होने पर धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक संविधान अस्तित्व में आया। समता, स्वतंत्रता, बंधुता, न्याय और गरिमा के मूल्यों को मान्यता दी गई। सामाजिक पिरामिड में एकदम नीचे रही जातियां, स्वाभाविक ही जागरूक होने लगीं। अपने हकों के लिए आवाज़ उठाने लगीं।


ऐसी आवाजें, जाहिर हैं, सभी के कानों को अच्छी नहीं लग सकती। खासकर खुद को ऊंचा मानने वालो को। लोकतंत्र में असहमति का अपना महत्व है। किसी स्थापना या विचार से असहमत होने पर वाद-विवाद होना चाहिए। तथ्यों-तर्को पर। इधर के दिनों में किंतु केंद्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संकीर्ण-सांप्रदायिक विचारधारा सरकार में आई है, असहमत आवाज़ों को हिंसा से दबाने के वाकये बढ़ रहे हैं। संघ-गिरोह लामबंद है। उनकी शह पर गुंडों की फौज कुछ भी कर गुजरती हैं। पुलिस-प्रशासन भी इसमें अप्रत्यक्ष सहयोग करते हैं। गोरक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों को पीट-पीट कर मार डालने की कई घटनाएं हुई हैं। बुद्धिजीवियों, कलाकारों, साहित्यकारों के विरूद्ध न केवल गाली-गलौज आम है, उन पर शारीरिक हमले भी हुए हैं। कुछ प्रमुख तर्कवादियों और लेखकों की हत्या कर दी गयी हैं। ऐसा ही एक प्रकरण सामने आया है।


इस बार हमले का लक्ष्य कांचा इलैया बने हैं। एक राजनीतिक विचारक, लेखक और दलितों के पक्षधर आंदोलनकारी कांचा इलैया की वैचारिक स्थापनाओं में ऊंची जातियों के प्रति एक तल्ख स्वर हमेशा  रहा है। उनकी अनेक मान्यताओं से प्रगतिशील जमात भी सदैव सहमत नहीं रही है। मगर, असहमति का अर्थ किसी का गला घोंट देना नहीं होता। यह बात हांलाकि हिंदुत्ववादियों की समझ से परे है।


कांचा इलैया ने 2009 में अंग्रेजी में एक पुस्तक लिखी थी ‘पोस्ट-हिंदू इंडिया’। अकादमिक क्षेत्रों में वह किताब चाहे पढ़ी गयी हो, आम जीवन में उसकी बहुत चर्चा नहीं हुई। हाल ही में एक प्रकाशक ने उस किताब के अध्यायों के तेलुगु-अनुवादों को स्वतंत्र पुस्तिकाओं के तौर पर छापा है। जिसमें से एक पुस्तिका विवादों में आ गई है। जिसमें प्रोफेसर इलैया ने बनिया जाति को ‘सामाजिक तस्कर’ कहा है। इससे तेलंगाना के ‘आर्य वैश्य एसोसिएशन’ के लोग तैश में हैं। उन्होंने किताब को प्रतिबंधित करने की अर्जी सर्वोच्च न्यायालय में लगाई। समुदाय के प्रतिनिधि पी.जी. वेंकटेश ने 18 सितंबर को मांग कर डाली कि कांचा इलैया को सरे आम फांसी दे देनी चाहिए। वेंकटेश, तेलुगुदेशम दल के राजनेता हैं। बाद में हांलाकि वे इस बात से पीछे हट गये। लेकिन कांचा इलैया के मुखालिफ माहौल तो गर्मा ही दिया गया। सी.आई.डी. ने कांचा इलैया के विरूद्ध प्रकरण तक दर्ज कर लिया है। विभिन्न समुदायों के बीच धर्म, स्थान या अन्य तरीकों से दुश्मनी पैदा करने का आरोप लगा कर।


23 सितंबर को कांचा इलैया ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाई। जिसमें आर्य वैश्य समुदाय के लोगों द्वारा उन पर जानलेवा हमला किये जाने की शिकायत है। खुद को सुरक्षा दिये जाने की मांग भी उन्होंने की। खुराफाती तत्वों के हौसले इन दिनों जिस तरह बुलंद है, यह बात अनहोनी नहीं जान पड़़ती।


कांचा इलैया की छवि एक विवादास्पद दलित-चिंतक की रही है। उनकी लिखी बाते तुर्श होती  हैं। उनका रूख अक्सर अतिवादी रहा है। जिससे यह चिंता भी पैदा होती है कि जाति-व्यवस्था को नष्ट करने के लिए यदि वातावरण बनाया जाना है, तो क्या इस तरह बन सकेगा? बेशक कथित ऊंची जातियों का व्यवहार लंबे वक्त से इकतरफा और धौंसपट्टी वाला रहा है। मगर माहौल बदलने के लिए कहीं तो पहल करनी ही होगी।


कुछ बरस पहले कांचा इलैया ने वामपंथ के खत्म हो जाने की कामना भी की थी। हांलाकि अब, जब वे कट्टरपंथियों के हमले की जद में हैं, प्रगतिशील-जनवादी खेमों के मुखालिफ फिर तानाकशी कर रहे हैं। यह कि उनकी जाति के कारण कोई उनका समर्थन नहीं करता। प्रोफेसर इलैया चाहे तल्ख लहज़ा अपनाये रखें, प्रगतिशील-जनवादी संगठनों-समूहों ने उन पर हमले की कोशिशों की मज़म्मत ही की है। जो ज़रूरी भी है।

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