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ध्यान भटकाने की कवायदें

किसी मुद्दे से ध्यान कैसे भटकाया जाता है? कोई बच्चा मिठाई की जि़द करे तो उसे खिलोना दे कर बहलाने-फुसलाने की कोशिश की जाती है।


मनोज कुलकर्णी@आहट


किसी मुद्दे से ध्यान कैसे भटकाया जाता है? कोई बच्चा मिठाई की जि़द करे तो उसे खिलोना दे कर बहलाने-फुसलाने की कोशिश की जाती है। वह मचलता ही रहे तो उसे किसी ऊंचे स्थान पर बिठा दीजिएं। वह मिठाई भूल कर नीचे उतार देने की गुहार करने लगेगा। इस पर कमरे की बत्ती गुल कर दें। तब डरा हुआ बच्चा रो-रोकर कमरे को रोशन कर देने की मिन्नतें करने लगेगा। इस तरह मिठाई की उसकी मूल मांग गुम हो जाएगी।


यह उदाहरण हमारे देश के फिलवक्त हालात में एकदम फिट बैठता है। वर्तमान केंद्र सरकार बड़े-बड़े वादों के साथ सत्ता में आई थी कि सरकार बनाने के सौ दिन भीतर ही विदेशी बैंकों में जमा काला घन निकलवा कर देश के बैंक-खातों में जमा करा दिया जायेगा। पंद्रह लाख रूपये प्रत्येक नागरिक को मिल सकेंगे। हर बरस दो करोड़ नौकरियां पैदा की जाएंगी। सीमा पर दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिये जाएंगे।

पाकिस्तानी आतंकवाद की हवा निकाल दी जाएगी। कश्मीर की समस्या तुरत-फुरत हल कर दी जाएगी। चीन को चिठठीयां नहीं भेजी जाएंगी। आंखे तरेर कर उससे बातें की जाएंगी। वह न माने तो हमारी सेना उसे उसकी औकात दिखा देगी। और भी ना जाने क्या-क्या वायदे किये गये थे।


अब इस सरकार की उम्र सौ तो क्या हज़ार दिनों से अधिक हो चुकी है। उसने किया क्या?  सिवाय लफ्फाज़ी के कुछ नहीं। उल्टे हालात और खराब ही किये। नौकरियां पैदा तो हुई नहीं बल्कि पिछले साल की नोटबंदी ने लाखों लोगों का रोजगार ही छीन लिया। विचारधारा और देश की सीमाओं के पार के अर्थशास्त्रियों ने नोटबंदी को आत्मघाती बताया था। मगर प्रधानमंत्री ने उनकी खिल्ली ही उड़ाई। दावा किया गया था कि इससे देश में छिपा हुआ काला-धन तो बाहर निकल ही आएगा, नकली-नोटों की समस्या भी छूमंतर हो जाएगी। काले-धन और नकली-नोटों पर टिके कश्मीर के आतंकवाद की कमर टूट जाएगी।


रातों-रात रद्दी कागज़ों में बदल चुके अपने हज़ार-पांच सौ के अपने नोटों को बदलवाने बैंकों के सामने लगी लंबी कतारों में इंतज़ार करते हुए आम-आदमी शायद सोचता रहा कि मर्ज़ ठीक करने के लिए कड़वी कुनैन ज़रूरी हागी! मगर यह कैसी दवा थी? मजऱ् और बढ़ गया! साल भर बाद पता चला कि चलन बाहर कर दी गयी मुद्रा में से 99 फीसद नोट तो बैंकों में लौट आये है ! न कश्मीर में होते हमले बंद हुए और ना ही नकद की बजाय ऑन-लाइन आदान-प्रदान की आदत बनी-बढ़ी। हां भूख के पैमाने पर अंतराष्ट्रीय तौर पर हमारा मुल्क और नींचे चला गया। संभावित विकास-दर घट गयी। खेती-किसानी और अधिक घाटे का सौदा हो गय। मगर प्याज़-टमाटर के भाव आसमान छूने लगे।

किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला बदस्तूर रहा। तिस पर ताबड़तोड़ लादी गई जीएसटी-व्यवस्था ने नोटबंदी से आहत छोटे और मझौले व्यापारियों को हताहत हो जाने की सीमा पर ला पटका। कुल जमा बात यह है कि ‘विकास’ के वायदे के साथ सत्ता में आई सरकार ने हालत और पस्त कर दी।
अब परेशान हाल जनता द्वारा सवाल पूंछने की बारी आई है।


गुजरात के चुनाव सामने हैं। जहां नारा उठा है कि ‘विकास पगला गया है’। प्रधानमंत्री ने ‘गुजरात-मॉडल’ का खूब ढिंढोरा पीटा है। अपने आप को ही ‘विकास’ बताया है। उनके अपने प्रदेश में ही उनके दल की दाल इस बार कुछ पतली दिखाई देती है। वहां कथित विकास की पोल-पट्टी आए दिन खुल रही है। चुनावी नतीजे क्या होंगे, यह तो समय बताएगा, मगर एक-एक दिन में चार-छ: सभाएं और रैलियां और मंच पर रोने-धोने की अदाएं, अपनी गरीबी की दुहाई और गुजराती होने के हवाले से की जा रही मिन्नते बता देती हैं कि हालत मजबूत तो नहीं ही है। 

 
जाहिर है ऐसे में मूल सवालों से ध्यान भटकाने की जुगत जमाई जा रही है। तंगहाली, भुखमरी, बेरोजगारी, चौपट होती खेती और ठप्प पड़ते काम-धंधों की बजाय ‘पद्मावति’ फिल्म पर हुल्लड़ प्रायोजित किये जा रहे हैं। ‘लव-जिहाद’ के नाम पर मुर्दे उखाडऩे की कवायदे की जा रही हैं। जनता को होशियार और खबरदार रहना चाहिए। अपनी बात पर टिके रहने और जवाब न मिलने तक सवाल करते रहने पर अड़े रहना चाहिए। किसी सिनेमा में दिखाए जाने वाले काल्पनिक पात्र के मान-सम्मान के व्यर्थ-विवाद की बजाय शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के वास्तविक मुद्दों पर डटे रहना चाहिए।

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