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विभाग बंटे, मंत्री बने - फिर भी क्षत्रप हैं तने तने

इन खेमों से कौन मंत्री होगा यह भी इन्ही क्षत्रपों ने ही तय किया। मसला यहीं तक नहीं रहा-अगला मोर्चा विभागों का बंटवारा था,

फोटो - गूगल

भोपाल। अंतत: मध्यप्रदेश मन्त्रिमण्डल बन ही गया, विभाग भी बंट गए। सवाल उस देरी का नहीं है जो इसमें हुयी, इससे भी अधिक समय उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री चुनने और मंत्री बनाने में लग चुका है-दिलचस्प वह मशक्कत है जो इसके लिए हुयी और वह फॉर्मूला भी जो मंत्रियों के चयन का आधार बना। घोषणा नए नामों की बाद में हुयी। किस खेमे को कितने मिले हैं इसकी पहले हुयी। दिग्विजय सिंह को सबसे ज्यादा मिले, फिर सिंधिया, उसके बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ और फिर अरुण यादव आदि इत्यादि।


इन खेमों से कौन मंत्री होगा यह भी इन्ही क्षत्रपों ने ही तय किया। मसला यहीं तक नहीं रहा-अगला मोर्चा विभागों का बंटवारा था, जिसे लेकर कयास, अफवाहें और अंदाजे खूब चले। बंटने के बाद भी क्षत्रपों के चेहरों पर चमक नहीं आयी, वे तने के तने ही रहे।


संसदीय प्रणाली में मंत्री चुनने का विशेषाधिकार प्रधानमन्त्री और मुख्यमंत्री का होता है। मगर कोई 41 साल से यह परम्परा सिर्फ कहने के लिए रह गयी है। संयुक्त मोर्चों की सरकारों में शामिल दलों को कोटे बंटना और उनसे सूची मांगना रिवाज बन गया है। मगर एक दल की सरकार में ऐसा खुलेआम कम ही होता है-जाहिर है कांग्रेस एक संयुक्त मोर्चा बनकर रह गयी है। यह कोई खराब बात भी नहीं है, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के कार्यकाल को छोड़ दिया जाये तो कांग्रेस एक संयुक्त मंच हमेशा रही है। सवाल यह है कि इस संयुक्त मोर्चे का साझा न्यूनतम कार्यक्रम क्या है?


कुछ प्रतीकात्मकतायें छपी हुयी दिखी हैं। मगर जरूरत ठोस और दर्शनीय कदमों की हैं। आने वाले दिन इस लिहाज से देखने लायक होने वाले हैं।

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