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लोकजतन के मजबूत स्तंभ : प्रदीप का यूं चले जाना

अपनी पहचान को सुरक्षित रखने के खतरे पग पग पर होते हैं। प्रदीप ने इन्हीं खतरों को उठाया। 



25 दिसंबर की दोपहर मनहूसियत के साथ आई। सब पर व्यंग्य कसने, सबको अनोखे अंंदाज में  उनकी जिम्मेदारियों का अहसास कराने और हंसाने वाला प्रदीप सबको रुला कर चला गया। जो हुआ वो उसकी आदत का हिस्सा नहीं था।  जिम्मेदारी से मुंह चुराना उसे आता नहीं थी। बीटीआर भवन में जो भी लोकजतन के कम्प्युटर के पास से गुजरा हो, प्रदीप ने उसे छेड़ा न हो, उसे हंसाया न हो, तनाव में लटके चेहरे पर मुस्कान न लाई हो, ऐसा कभी हुआ नहीं था। मगर ... 25 दिसंबर की शाम रेडक्रास हास्पीटल के आईसीयू के बाहर खड़ा हर व्यक्ति मुंह लटकाये था। उसमें पत्रकार थे, सामजिक कार्यकर्ता थे, साहित्यकार थे, लोकजतन परिवार और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता थे, प्रदीप की पत्नि संध्या और बेटा तनुज थे। सबकी हंसी को प्रदीप अपने साथ समेट कर ले गया था। सब यादों में खोये थे। सबके संस्मरणें में, सबकी आंखों में प्रदीप थे। और प्रदीप?


55 साल के प्रदीप के साथ मेरा रिश्ता 35 साल से भी ज्यादा का रहा होगा। अब याद करता हूं, तो ग्वालियर में एमएलबी कालेज के बाहर गुरू की कैंटीन और बीस पैसे की आधा कट चाय। प्रदीप का पहली आवाज मैने वहीं सुनी थी। छात्रसंघ चुनाव हो रहे थे। एसएफआई प्रत्याशी के प्रचार के दौरान ही सब गुरू की कैंटीन पर आये। चाय के बाद फिर प्रचार। उसके सहपाठी ने कहा कि पीरियड है, उसे अटैंड कर लें। प्रदीप ने अपने अंदाज में कहा, पहले चुनाव, फिर पढ़ाई। एसएफआई के पढ़ो और लड़ो के नारे को पलटते हुए उसने व्यंग्य कसते हुए दोहराया, अभी पहले लड़ाई फिर पढ़ाई होगी। फिर लापरवाह लहजे में कहा नौकरी के लिए जे सी मिल तो है ही। 
वो पढ़ता रहा। मैने उसी दौरान पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने का निर्णय  किया और पढ़ाई के बाद प्रदीप गायब हो गया। कालेज की पढ़ाई पूरी की या बीच में छोड़ दी? नहीं मालूम। उससे अगली मुलाकात जे सी मिल गेट पर ही हुई। वह जे सी मिल का मजदूर हो चुका था। मेरी पढ़ाई तो पूरी हो गई थी, मगर मैं एसएफआई में ही सक्रिय था। जे सी मिल मतलब मैनेजमेंट, मैनेजमेंट मतलब बिड़ला। उस समय ग्वालियर के बारे में सब निर्णय बिड़ला मैनेजमेंट ही करता था। वामपंथी कार्यकर्ताओं को छोड़कर सभी पार्टियों के नेता जे सी मिल के अहसान तले दबे होते थे। सीटू को छोड़कर प्राय: सभी ट्रेड यूनियनों की भी यही स्थिति थी। यही हालत प्रशासन की थी और मीडिया? आजकल गोदी मीडिया की बहुत चर्चा है। मगर तब जे सी मिल प्रबंधन के खिलाफ समाचार छापने की हिम्मत किसी अखबार में नहीं होती थी। तब भय और घुटन के वातावरण में मजदूरों ने हड़ताल का आह्वान किया था। संघर्ष का उभार और सीटू का विस्तार- दोनों साथ साथ हो रहे थे। प्रदीप वहीं मिला। एमएलबी कालेज के गेट के बाद सीधा जे सी मिल गेट पर। इस बार ज्यादा तीखे तेवरों के साथ। बिड़ला का दमन तीखा था। मजदूरों का संघर्ष उससे भी ज्यादा तीखा था। प्रदीप तिवारी के तेवर भी तीखे थे। जे सी मिल संघर्ष में बार बार परीक्षा से गुजरना पड़ा। एक ओर परिवार और रोजगार दूसरी ओर जान भी जोखिम में। प्रदीप की परीक्षा और कठिन थी, क्योंकि उसके पिता जी इंटक में थे। उन्हीं के प्रयासों से उसका जाँब कार्ड बना था। प्रदीप जब सीटू के जुलूस में नारे लगाता, मैनेजमेंट के हमलों का सामना करता तो, बात  पिता तक पहुंच गई। प्रबंधन और इंटक दोनों ने ही प्रदीप के पिता से बेटे को रास्ते पर लाने के लिए कहा। यह बात अलग है कि उनके पिता ने ही बेटे को रोकने से इंकार कर दिया और वो प्रदीप था, पिता जी रोकते तो रुकता नहीं। जब पार्टी वहां विधानसभा का चुनाव लड़ी तो पिता जी ने घर में कांग्रेस का चुनाव कार्यालय खोल दिया, प्रदीप ने पड़ोस में पार्टी का चुनाव कार्यालय की व्यवस्था कर डाली। एमएलबी कालेज के गेट पर जिस जे सी मिल की नौकरी की वह गारंटी मान कर चल रहा था। जे सी मिल गेट पर आकर वह उसी नौकरी को दांव पर लगा रहा था। इन संघर्षों ने उसे पार्टी के बहुत नजदीक लाकर खड़ा कर दिया था। अब वो सिर्फ सीटू का सदस्य नहीं था। सीटू के नेताओं में उसकी गिनती होती थी। वह पार्टी का सदस्य बन गया था। 


इस बीच पार्टी का सातवां राज्य सम्मेलन ग्वालियर में ही जे सी मिल क्षेत्र में हुआ। जे सी मिल मजदूरों ने मजदूर वर्ग की पार्टी के सम्मेलन के आयोजन में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। उन तैयारियों में भी प्रदीप शामिल था। इसी सम्मेलन में कामरेड शैलेन्द्र शैली पार्टी के राज्य सचिव निर्वाचित हुए। उनके राज्य केन्द्र पर आने के बाद ही राज्य कार्यालय के लिए कार्यालय सचिव की तलाश शुरू हुई। प्रदीप तिवारी पर आकर तलाश पूरी हुई। उनसे भोपाल में जाने और राज्य कार्यालय संभालने के लिए कहा गया। वे राज्य कार्यालय पहुंच गए। एक मजदूर ने मजदूर वर्ग की पार्टी के राज्य कार्यालय का संचालन संभाला। टाईपिंग सीखी। साईक्लोस्टाइल करना सीखा। फिर कम्प्युटर आया तो कम्प्यूटर सीखा। नई तकनीक के साथ खुद को पारंगत किया। बाद में वे सीटू के राज्य कार्यालय सचिव भी रहे। कुछ परिस्थितिवश वे फिर ग्वालियर आ गए। उनके राज्य कार्यालय से आने के बाद राज्य केन्द्र को कई आघातों से गुजरना पड़ा। कामरेड शैली के दुखद निधन के बाद कामरेड धाकड़ का निधन हुआ। लोकजतन के लिए भी किसी साथी की आवश्यकता थी। प्रदीप से इस संबंध में पूछा गया। वे सहर्ष इसके लिए तैयार हो गए। 


कम्प्यूटर चलाना और अखबार निकालना दो अलग अलग काम हैं। प्रदीप को इसका अनुभव नहीं था। मगर उन्होंने इसे चुनौती के तौर पर माना। हम कैसे करें? हमें तो आता नहीं? यह हमारा काम तो नहीं है? यह तरह तरह के प्रश्र हैं, जो आजकल आमतौर सुनने पड़ते हैं। मगर प्रदीप ने न केवल अखबार लगाना सीखा, बल्कि हर अंक में नए नए प्रयोग किए। हर अंक में अलग तरह लगाने की कोशिश कर प्रदीप ने अखबार को बेहतर दर्शनीय और पठनीय बनाने का यत्न किया। 


यह काम आसान नहीं है। जब तक अखबार के साथ आपका भावात्मक लगाव न हो, अखबार का  वैचारिक महत्व आपकी चेतना का हिस्सा न बने, आप अखबार में बार बार प्रयोग करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। यह बात दोहरना जरूरी है कि छात्र को साल में एक बार परीक्षा में बैठना होता है। कम्युनिस्ट पार्टी में नेतृत्व को निर्वाचित होने के बाद तीन साल बाद परीक्षा से गुजरना होता है। मगर अखबार से जुड़े साथियों और संपादक के लिए हर अंक परीक्षा होती है। हर अंक में उसे पास होना होता है। 


कामरेड शैली के बाद लोकजतन का संपादक बनने के बाद अखबार को जारी रखना एक बड़ी चुनौती थी। वासुदेव शर्मा ने उस संकट के दौर में अखबार को उभारने के लिए बहुत उल्लेखनीय योगदान किया था। वासुदेव के छिंदवाड़ा चले जाने के बाद प्रदीप ने इस चुनौती को स्वीकारा। कुछ लोगों की नजरों में वह सिर्फ टाईपिस्ट था। मगर न जाने कितने संपादकीय लिखे तो मैने ही, मगर संपादकीय किस विषय पर लिखना चाहिए, यह राय प्रदीप ने ही दी। फ्रंट पेज की लीड न्यूज कौन सी होना चाहिए, कौन का विषय छूटता जा रहा है, उसे कवर किया जाना चाहिए, यह सारी सार्थक राय केवल प्रदीप ने ही दी। अंतिम समय में पेज सैटिंग करते हुए की जाने वाली एडिटिंग और समाचार के र्शीषक तय करने में प्रदीप का योगदान सबसे अधिक होता था। मतलब हर अंक के साथ परीक्षा से गुजरना उसे अच्छा लगता था। इस सबके बावजूद हम सबकी सामूहिक गलतियों के लिए भी आलोचना उसी की हुई।


अखबार के लिए मेहनत करना अलग बात होती है और खुद के जीवन को खतरे में डालना अलग बात। आज भी याद है मुझे, जब एक बार प्रदीप की कमर में बेहद दर्द था। उपचार के बाद डाक्टरों ने उन्हें आराम की सलाह दी थी। तब हमने चार सौ रुपए में एक कंपोजीटर को चार घंटे के लिए अखबार लगाने के लिए बुलाया। वह अखबार लगा भी गया। मगर सुबह दस बजे प्रदीप लंगड़ाते हुए आये, कम्प्यूटर खोल कर देखा, अखबार देखकर बोले कि वो तो कबाड़ा कर गया है। उसके बाद हर घंटे में पेनकिलर खा कर लगातार आठ घंटे तक प्रदीप ने अखबार लगाया। यह जनून और जोखिम उसी में हो सकता है, जो अखबार के राजनीतिक, सांगठनिक और राजनीतिक महत्व को समझता हो। 


अखबार की जिम्मेदारी को इस तरह के बार बार जोखिम उठाने के बाद भी प्रदीप ने पार्टी पर बोझ बनने की कोशिश नहीं की। परिवार की बढ़ती जिम्मेदारियों को निबाहने के लिए प्रदीप पहले देशबंधु, फिर राज एक्सप्रेस और अब ईएमएस न्यूज सर्विस में काम कर रहे थे। ईएमएस में वह आर्थिक समाचार तैयार करते थे। आर्थिक मामलों पर लेख लिखते थे। सोशल मीडिया पर भी उनकी टिपणियां राजनीतिक होती थी। मेनस्ट्रीम मीडिया में आने के बाद प्रदीप ने पार्टी की विचारधारा का प्रसार करने की ही कोशिश की। वहां बने राजनीतिक और प्रशासनिक संपर्को का इस्तेमाल अपने निजी स्वार्थों के लिए नहीं किया। ईमानदारी सिर्फ उनके लेखों और बातों में ही नहीं झलकती थी, बल्कि उसके आचरण का हिस्सा थी। राजधानी में सत्ता के घुमावदार गलियारों में खो जाना आसान होता है और अपनी पहचान को सुरक्षित रखने के खतरे पग पग पर होते हैं। प्रदीप ने इन्हीं खतरों को उठाया। 
प्रदीप सामाजिक रूढिय़ों के खिलाफ भी लड़ते थे। वह अपने देहदान करने का फार्म भी ले आये थे। वह जमा इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि बेटे की उमर अभी 18 साल नहीं हुई थी। प्रयासों के बाद भी देहदान की उनकी अंतिम इच्छा पूरी नहीं हो पायी। 


प्रदीप के इस रास्ते पर परिवार का सहयोग उल्लेखनीय है। अभावों के बावजूद संध्या ने शायद ही कभी कोई शिकायत की। बेटी त्रेशा तो एसएफआई की नेता रही हैं। बेटे ने 85 प्रतिशत अंक लाकर नया रिकार्ड कायम किया है। वे आज सब दुखी हैं। पार्टी और लोकजतन दुख की घड़ी में उनके साथ है। 


मगर यह सब कहने का अर्थ यह नहीं कि मुझे प्रदीप से कोई गिला नहीं। अपने कर्तव्यों और विचारों की खातिर जान जोखिम में डालना अलग बात है, और लापरवाही दूसरी बात। उन्हें एक दिन पहले से ही दर्द हो रहा था। वे असहज थे। मगर सब ठीक हो जाने के लापरवाही का परिणाम सामने है। डाक्टरों के अनुसार वे 24 घंटे लेट आये है, जबकि हार्ट अटैक में मिनटों का भी महत्व होता है। अगर उन्होंने लापरवाही न की होती तो आज संध्या, त्रेशा और तनुज के चेहरे पर चिंता की लकीरें न होती, आपके साथी, सहयोग और मित्र दुख और पीड़ा से न गुजर रहे होते। 


इन गिले शिकवों के बाद भी, तुम्हारे संकल्पों और सपनों को साकार करने के लिए लड़ेगें कामरेड। लोकजतन की ललकार दहाड़ में बदलेगी। छोड़कर चले जाने के बाद भी हमारे संकल्पों और संघर्षों में तुम जिंदा रहोगे कामरेड। 
 


About Author

जसविंदर सिंह

राज्य सचिव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) मध्यप्रदेश

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