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लोकजतन सम्मान 2019 : उम्मीद की लौ

जिस भी अखबार में काम किया वहां उदरपूर्ति के लिये मालिकों द्वारा तय सम्पादकीय नीति पर चले, लेकिन एक व्यक्ति के तौर पर कभी भी उन्हें अपने मूल्यों से समझौता करते नहीं देखा।

सिर्फ पत्रकार के नाते डॉ. रामविद्रोही का मूल्यांकन करना उनके साथ पूरा इंसाफ नहीं होगा। पत्रकार बनने से पहले वे एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। जिस समाजवादी आंदोलन से वे जुड़े रहे थे, उन मूल्यों के प्रति वे अब तक प्रतिबद्ध हैं। जिस भी अखबार में काम किया वहां उदरपूर्ति के लिये मालिकों द्वारा तय सम्पादकीय नीति पर चले, लेकिन एक व्यक्ति के तौर पर कभी भी उन्हें अपने मूल्यों से समझौता करते नहीं देखा। अवसरवादिता को सदैव परे ही रखा। राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर भी और पत्रकार के तौर पर भी। एक हिन्दू महासभाई के तौर पर राजनीति का ‘‘क-ख-ग’’ पढऩे वाले विद्रोही बाद में डॉक्टर लोहिया के विचारों से ऐसे प्रभावित हुए कि भगवा राजनीति को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।

पैंतीस साल से उन्हें सफहे स्यात करते देख रहा हूं। उस वक्त जब लोग फाउंटेन पेन को पूरी तरह विदा कर चुके थे, विद्रोहीजी फाउंटेन पेन का ही इस्तेमाल करते थे। इसे नफासत पसंदगी कह सकते हैं। 1991 में मुझे सागर से ग्वालियर बुला लिया गया। न सिर्फ बुलाया गया बल्कि मुझे प्रबंधन से हटाकर सम्पादकीय में कार्य करने के निर्देश दिए गए। मैं संजय मजूमदार के साथ विद्रोहीजी को असिस्ट करने लगा। एक तरीके से यह मेरी शुरूआत थी और खुशी की बात यह है कि यह रामविद्रोही के सानिध्य और देख-रेख में हुई। यह टेलीप्रिंटर का दौर था जो देर रात ‘‘शुभ रात्रि’’ कहने से पहले लगातार खबरें उगलता रहता था। देश-दुनिया की खबरों का अम्बार टेबल पर ‘‘रोल’’ हुआ मौजूद रहता। इसी रोल में ही से अगली सुबह के लिए खबरों का चयन किया जाता था। यह काम सम्पादक के नाते विद्रोहीजी करते। बहुत महत्वपूर्ण खबरें खासकर लीड और सेकेण्ड लीड को खुद ही सम्पादित करते थे।

कई बार एसा होता था कि मुझसे किसी खबर का मुनासिब शीर्षक नहीं बन पाता था तो हारकर मैं विद्रोहीजी से कहता कि ‘‘अब आप ही इसकी हैडिंग बना दें’’ और सम्पादकजी झट से उसकी हैडिंग बना देते। यह सालों के अनुभव से निकली ‘‘खबर’’ की समझ की मिसाल थी। एक बार ऐसा हुआ कि अंदर के पेज के लिए उन्होंने मुझसे खबर सिलेक्ट करने को कहा। मैंने की भी, लेकिन जब छांटी गई खबरों को अंतिम निर्णय के लिए विद्रोहीजी के सामने रखा तो उन्होंने जो कहा वो अब तक याद है। ‘‘हम विदेशी संस्करण नहीं निकाल रहे हैं’’ दरअसल मेरे द्वारा छांटी गई खबरों में बहुत सारी विदेशी खबरें थीं जो एक आंचलिक अखबार के लिए तो कतई मुनासिब नहीं थीं। इस एक घटना ने खबरों के चयन को लेकर मेरी अपनी समझ को पूरी तरह रिफाइंड कर दिया।

मीडिया 247 वर्क है। साल में सिर्फ पांच दिन ऐसे आते थे जब अखबार के दफ्तर में अवकाश रहता है। दिल्ली में तो यह मात्र दो दिन  है। होली और दीपावली। ग्वालियर में 26 जनवरी, 15 अगस्त और दशहरा भी अवकाश का दिन है। जिस्म और दिमाग को आराम देने के लिए ‘‘आचरण’’ के सम्पादकीय स्टॉफ ने आपसी सहमति से अपने-अपने अवकाश के दिन चुन लिए। विद्रोहीजी का साप्ताहिक अवकाश का दिन वही था जो सारे देश के शासकीय कर्मचारियों का होता है यानि इतवार। अब इतवार को मैं और संजय मजूमदार मिलकर स्वतंत्र रूप से पहले पेज की जिम्मेदारी उठाने लगे। विद्रोहीजी को काम करते देखकर और उनके साथ काम करके जो सीखा, जो आत्मविश्वास आया उससे ही यह संभव हुआ। यहां तक कि दो बेहद महत्वपूर्ण मौकों पर विद्रोहीजी अवकाश पर थे और हम पहला पेज देख रहे थे। दिग्विजय सिंह का मुख्यमंत्री चुना जाना और मप्र को बांटकर छत्तीसगढ़ का निर्माण।

आंचलिकता डॉक्टर विद्रोहीजी की पत्रकारिता एवं लेखन का मुख्य सरोकार रहा है। वो ग्वालियर-चंबल अंचल के इतिहास से बहुत अच्छी तरह वाकिफ हैं और इस पर उनकी पुस्तक भी प्रकाशित है। आज सेल फोन पत्रकारिता के युग में अधिकांश युवा पत्रकार इस मामले में तकरीबन रीते हैं। ग्वालियर के अंचल के राजनीतिक इतिहास की उनकी जानकारी अद्भुत है और समय-समय पर अपने चुटीले अंदाज में वो इसे प्रस्तुत करते रहे हैं। एक व्यंग्यकार उनके अंदर हैं जिसे उन्होंने पूरी तरह नुमाया नहीं किया। पता नहीं यह इरादतन हुआ या वक्त ने इजाजत नहीं दी, लेकिन अगर यह बाहर आ जाता तो सोने में सुहागा होता। विद्रोहीजी जिस पीढ़ी के पत्रकार रहे हैं, वैसे पत्रकार अब नजर नहीं आते हैं। खासकर हिन्दी अखबारों में कार्यरत पत्रकारों की हालत बहुत ही चिंताजनक है। रामविद्रोहीजी जैसे पत्रकार नखलिस्तान हैं, वे इस घोर अंधकार में वो, वो दीपक हैं जिसकी लौ उम्मीद जगाती है।

दीपू नसीर - (लेखक-ग्वालियर के वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता है।)

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