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सोनभद्र में कोलम्बस

इतिहास की एक विद्रूपता यह है कि इसे हमेशा जीतने वाले लिखते और लिखवाते हैं।  नतीजा यह होता है कि बिना किसी वजह अपने ही देश में अकल्पनीय निर्ममता से मार डाले गए लाखों निरपराधों का जघन्य नरसंहार बर्बरों की विजय गाथा और शौर्य के रूप में दर्ज किया जाता है।

इतिहास की एक विद्रूपता यह है कि इसे हमेशा जीतने वाले लिखते और लिखवाते हैं।  नतीजा यह होता है कि बिना किसी वजह अपने ही देश में अकल्पनीय निर्ममता से मार डाले गए लाखों निरपराधों का जघन्य नरसंहार बर्बरों की विजय गाथा और शौर्य के रूप में दर्ज किया जाता है।  उनकी ठगी, धोखाधड़ी और धूर्तता को चतुराई और रणकौशल बताया जाता है। सदियों से सुकून से रह रही सुसंस्कृत और मिलनसार आबादी, देशों यहां तक कि महाद्वीपों की बसी बसाई संस्कृति को पूरी तरह मटियामेट करना सभ्यता का प्रसार बताया जाता है। इसे इतिहास की बात कहकर टाला नहीं जा सकता क्योंकि जो इस तरह का इतिहास लिखते लिखवाते हैं - वे उसी तरह का वर्तमान और भविष्य भी रचते और रचवाते हैं। 

इतिहास में दर्ज ऐसी कायराना "वीरताओं" में है कोलम्बस का अमरीका "खोजना" !!  गोया अमरीका न हुआ मेले में गिरी चवन्नी-अठन्नी या घास के ढेर में गुम हो गयी सुई हो गयी जिसे कोलम्बस ने बड़ी मुश्किल से खोज निकाला था। इस खोज-गाथा के खोजी नहीं बताते कि जिस अमरीका को खोजने की बात की जा रही है उस अमरीका में वहां के मूलनिवासी - नेटिव - पिछले 14 हजार साल से रह रहे थे। वे सुन्दर, स्वस्थ और बलिष्ठ व्यक्तित्व वाले इतने सहज, भोले और विनम्र इंसान थे कि कोलम्बस के पहुँचने के बाद अपने तोते, मीठे फल, सुन्दर वस्त्र सहित अपनी सारी अच्छी अच्छी चीजें लेकर उसका स्वागत करने पहुंच गये थे। इसके बदले में कोलम्बस ने उन्हें क्या दिया ?  उसने सबको गुलाम बनाकर सोने की खदानों में झोंक दिया।  तीन महीने में सोना लेकर आने की एक निश्चित मात्रा तय कर दी, जो उतना नहीं ला पाते थे उनके दोनों हाथ काट कर उनके गले में लटका दिए जाते थे और ऐसे बर्ताब के शिकार दो चार लोग नहीं होते थे।  छोटे छोटे बच्चों तक को खदानों में उतार दिया गया - असहनीय काम के बोझ से थककर कोई बच्चा या बच्ची भाग जाते थे  तो पकडे जाने के बाद उसके दोनों पाँव काट दिए जाते थे। स्त्रियां बलात्कार का शिकार बनाई गयीं - उनमे भी, जैसा कि खुद कोलम्बस ने अपने यात्रा वृतांत में लिखा है, उसके लोगों में आठ से दस वर्ष की बच्चियों की मांग सबसे ज्यादा थी।  लुटेरी हवस कितने पर भी शांत नहीं होती - उसकी भी नहीं हुयी।  यह सब करते हुए उसने बड़ी तादाद में इन नेटिव्स को जहाज़ों में भरकर गुलाम बनाकर मण्डी में भेजना शुरू कर दिया।  नतीजा यह निकला कि जिस पहले द्धीप बहामा पर कोलम्बस के पाँव पड़े थे अगले दो साल में ही उसका बंटाढार होगया, आधी आबादी की मौत हो गयी। सोने की खदानों के दूसरे द्धीप हिस्पेनिओला में 1492 में 30 लाख मूलनिवासी रहते थे जो मरते मरते अगली 20 साल में घटकर मात्र 60 हजार रह गए।  पचास साल पूरे होते होते एक भी नहीं बचा। 

कोलम्बस ने अमरीका खोजा नहीं था - एक भरीपूरी संस्कृति और सभ्यता वाले मूलनिवासियों के अमरीका को रौंदा था। कोलम्बस मरा नहीं है।  तब वह स्पेन के राजा-रानी और धन्नासेठों से पैसा लेकर उनकी दौलत बढ़ाने की यात्रा पर था - आज उसके दाता और नियोक्ता बदल गए हैं यात्रा नहीं बदली।   17 जुलाई को वह उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में था। 

कहते हैं कि कोलम्बस इंडिया की तलाश में निकला था और अमरीका पहुँच गया था और वहां के बाशिंदों को अपना शिकार बनाने के पहले उन्हें इंडियन नाम दे दिया था।  अब कोलम्बस ने असली इंडिया ढूंढ लिया है।  पीढ़ियों से अपनी जमीन पर खेती कर रहे गोंड आदिवासियों को गोलियों से भूनता। मोदी और योगी के संरक्षण में खनिजों और प्राकृतिक सम्पदा से भरी बेशकीमती जमीन कब्जाता, आदिवासी स्त्री-पुरुषों की मृत देह को अपनी विजय पताका बनाता।  छत्तीसगढ़ से झारखंड और ओड़िसा से मध्यप्रदेश होते हुए वह यहां के मूल निवासियों का कोलम्बसी-विकास कर रहा है। नयी सभ्यता ला रहा है। उसकी निगाह में सिर्फ भूमि और खनिज, नदियाँ और प्राकृतिक सम्पदा से पटे पहाड़ भर नहीं है - सारे इंडियंस हैं।  इधर गोली चलती है उधर क़ानून बनता है जो मेहनतकश भारतीयों को भुखमरी के न्यूनतम वेतन पर आठ घंटे की बजाय 14-14 घंटे तक काम कराने की बेड़ियों में जकड़ कर उन्हें गुलामो की मण्डी में खड़ा कर देता है। उनसे दवा और अस्पताल छीनकर गोरखपुर और मुजफ्फरपुर बनाता है।  उन्हें रेड इंडियंस की मौत मरने के लिए छोड़ देता है।  उनकी फसल की कीमत मिट्टी के मोल पर पहुंचा कर खेती और किसानी चौपट कर सस्ती मजदूरी के लिए तैयार गुलामों की भीड़ बढ़ा देता है।  भविष्य में भी कोई प्रतिरोध न पनपे - आक्रोश और बेचैनी आंदोलन और संघर्ष में न बदले इसके भी पुख्ता इंतजाम करता है।  उन्हें सोचने समझने, जानने बूझने की क्षमता से भी वंचित कर देना चाहता है।  भाषा और  तालीम , किताब और ग्रन्थ, बुध्दि और विवेक छीन लेने के सारे इंतजाम करता है।  स्कूलों को अस्तबल और विश्वविद्यालयों को मकतल में बदल देने की कोई कोर कसर नहीं छोड़ता।  

सवा पांच सौ साल पहले वाला कोलम्बस अपनी उस इंडिया खोज -  रौंद यात्रा पर तीन जहाज़ों ; सान्ता मारिया,  नीना और पिंटा पर सवार होकर निकला था।  उसका आधुनिक अवतार आईएमएफ, विश्व बैंक और डब्लूटीओ के तीन विनाश पोतों पर सवार होकर विश्व विजय और इंडिया फतह करने के लिए निकला है। उस वक़्त उसके झंडे पर स्पेन के राजा और रानी के नामों के आद्याक्षर एफ और वाय लिखे थे इस बार उनकी जगह अलग अलग देशों की शैतानी कट्टरता ने ले ली है। भारत में उसके ध्वज पर मनुष्यता और हिन्दू दोनों का नकार करने वाला हिन्दुत्व और स्टीयरिंग व्हील पर अम्बानी और अडानी जैसे एक सैकड़ा अति-धनाढ्य हैं । सोनभद्र इस कोलम्बस की यात्रा का एक छोटा पड़ाव है - उसकी मंजिल जो भी सकारात्मक है, मानवीय है उसका विनाश करते हुए, निर्मम लूट पर टिकी क्रूर पूंजी की अट्टालिकायें खड़ी करना है। 

सवा पांच सौ साल पहले अमरीका के मूल निवासियों के बारे में लिखी अपनी पहली टिप्पणी में कोलम्बस ने लिखा था कि '' ये अति विनम्र हैं।  किसी बात के लिए ना नहीं कहते।  जो भी मांगो वह देने के लिए तुरंत तैयार हो जाते हैं।  हथियारों के बारे में तो जानते तक नहीं है ...... इन्हे काबू में करने के लिए सिर्फ 50 लोग काफी हैं। " उसके वृतांत सिर्फ लुटेरों के काम के नहीं हैं, वे इस तरह के हमलावरों के शिकार लोगों-समुदायों-देशों के लिये सबक भी हैं। बहामा के रेड इंडियन और हिस्पेनिओला के अरावाक मूल निवासियों की तरह लुप्त और गुलाम होने से बचना है तो ना कहना सीखना होगा।  शोषकों की साजिशों के प्रति विनम्रभाव छोड़ना होगा, कुछ भी मांगने पर सब कुछ दे देने की आदत त्यागनी होंगी और सबसे बढ़कर  संगठित होने और विरोध करके इन विनाश पोतों की बढ़त रोकने उन्हें डुबोने सहित  प्रतिरोध और मुकाबले के हथियारों,के बारे में जानना होगा, उन्हें मांजना और संवारना होगा।  कोलम्बस को सोनभद्र से लेकर सारे हिन्दुस्तान से खदेड़ बाहर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है और संगठित होकर इससे जूझने और हराने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। 

ऐसा ही अमल में आ रहा होता है तब जब त्रिपुरा से सीपीएम की सांसद झरना दास वैद्य अपराधी राजनीति के सबसे बड़े सौदागर अमित शाह की आँखों में आँखे डालकर "ना" बोलते हुए उसे फटकार रही होती हैं।  22 जुलाई को दसियों हजार आदिवासी देश भर में जुझारू जलूस प्रदर्शनों से अपने अधिकारों की हिफाजत और सोनभद्र के संहार के खिलाफ आवाज उठा रहे होते  हैं।  लाखों किसान 3 अगस्त को देश भर के सारे  जिला मुख्यालयों पर प्रदर्शन करके नीतियां बदलने की हुंकार लगा रहे होते हैं। अध्यापक-प्रोफेसर्स और छात्र इकट्ठा होकर प्रस्तावित शिक्षा नीति के विरुध्द लामबंद हो रहे होते हैं।  बीएसएनएल से लेकर एनटीपीसी , कोयले से लेकर आंगनबाड़ी तक मेहनतकशों के हुजूम सडकों पर उतर रहे होते हैं। बच्चों की मौतों और महिला अत्याचारों के खिलाफ महिलायें सडकों पर हाथ उठाये निकल रही होती हैं और मुरैना से लेकर कोरबा तक खुद को और बेहतर तरीके से संगठित करने की कोशिशों को संवार रही होती हैं।  सरकारी मिलीभगत से हो रहे नफरती अपराधों के खिलाफ मुम्बई में अवाम के अनेक संगठनों के साथ साथ कला और विचार के क्षेत्र की बड़ी शख्सियतें जोर से "ना" बोल रही होती हैं। राजस्थान के किसान आंदोलन के अग्रणी तीन दिन तक देश और दुनिया, संगठन और आंदोलन के बारे में जान और पढ़ रहे होते हैं।  इस तरह वे मुट्ठी भर भीड़-हत्यारों और उन्मादियों की दम पर बाकी सबको खामोश कर देने के कोलम्बसी मंसूबों को चुनौती दे रहे होते हैं ; अपने खोजे जाने से इंकार कर रहे होते हैं।   


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Badal Saroj

लेखक लोकजतन के संपादक एवं अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं.

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