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चोर मचाये शोर, सिरमौर नचाये मोर 

"इस समारोह को ऐसे लोगों की भागीदारी के साथ किया जा रहा है जिन्हे हम ठीक नहीं मानते

फोटो - गूगल

जिन्होंने छपी छपाई किताबों की लुगदी बनवा दी, हजारों ऐतिहासिक किताबों और मूल पांडुलिपियों से भरी एक सदी पुरानी पुणे की भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट की  लाइब्रेरी फूंक दी, तमिल कथाकार पेरुमल मुरुगन को अपने लेखक की मौत की घोषणा करने के लिए विवश कर दिया, अनेक संग्रहणीय पुस्तकों के लेखक कलबुर्गी, पानसारे, दाभोलकर, गौरी लंकेश की हत्या तक कर दी ; वे इन दिनों एक अनछपी किताब को लेकर "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता" का झण्डा उठाये अपनी लेखकीय आजादी के छिन जाने का शोर मचाये हुए हैं। हद तो यह है कि प्रकाशक द्वारा उसे न छापे जाने का निर्णय लिए जाने के पीछे उन्हें फासिज्म तक नजर आने लगा है।  

शनिवार 22 अगस्त को  पहले ब्लूम्सबरी नामक लन्दन के प्रकाशन संस्थान ने घोषणा की कि वह दिल्ली दंगों से जुडी "दिल्ली रायट्स ; द अनटोल्ड स्टोरी" का प्रकाशन नहीं करेगा।  इस आशय की घोषणा इस किताब के प्रकाशन-पूर्व लांच के एक समारोह के आयोजन की खबर मिलने के बाद की गयी ।  ब्लूम्सबरी के आधिकारिक बयान में कहा गया कि "इस समारोह को ऐसे लोगों की भागीदारी के साथ किया जा रहा है जिन्हे हम ठीक नहीं मानते (एप्रूव नहीं करते) ..... इसलिए अब हम इस किताब का प्रकाशन नहीं करेंगे।" जिन "लोगों" की ओर इस बयान में संकेत किया गया है वे कोई और नहीं दिल्ली दंगों के मुख्य सूत्रधार भाजपा नेता कपिल मिश्रा हैं।  जिनके दंगा भड़काने, डायरेक्ट एक्शन का आव्हान करने और पुलिस को धमकाने के वीडियो दुनिया के सामने आ चुके हैं। इनके आने के बावजूद मोदी - अमितशाह की दिल्ली पुलिस बजाय उनके खिलाफ मुकदमा करने के दंगा पीड़ितों यहां तक कि उसमे मारे गए लोगों और उनके परिजनों सहित नागरिक आंदोलन से जुड़े नामी व्यक्तियों को अभियोगी बनाने में जुटी है।  यह किताब इसी झूठे और आपराधिक आख्यान को आगे बढ़ाती है।  वे इस लॉंच समारोह के मुख्य अतिथि थे ।  इस पूरी किताब में दंगों का विरोध करने वालों को "अर्बन नक्सल, लैफ्ट जेहादी, जिहादी, आई एस, शार्प शूटर्स" के संबोधनों से नवाजा गया है।  जामिया मिलिया के छात्र आंदोलन और सीएएए को लेकर शाहीन बाग़ से बाकी जगह तक चले शांतिपूर्ण नागरिक आंदोलनों को इस दंगे का जिम्मेदार साबित किया गया है।  इसके लिए जिस तरह के कल्पित झूठ गढ़े और प्रमाण की तरह लिखे गए हैं उनकी बानगी नंदिनी सुन्दर के खण्डन से देखी जा सकती है - जिनके मुंह से उस इंटरव्यू में वह कहा बताया गया जो उन्होंने कभी कहा नहीं, जो  इंटरव्यू उन्होंने कभी दिया ही नहीं।  इसमें अचरज की कोई बात नहीं है, आरएसएस इसी तरह काम करता है।  ब्लूम्सबरी ने पहली बार इसे देखा होगा - भारत देखता रहा है।   

इस किताब की तीन "लेखिकाओं" में से दो वे प्रो सोनाली चितलकर और एडवोकेट मोनिका अरोरा है जिन्होंने जम्मू के कठुआ जिले में बलात्कार के बाद मार डाली गयी नाबालिग मासूम आसिफा के प्रकरण की भी इसी तरह की "जांच रिपोर्ट" जारी की थी और उसे हिन्दू धर्म, हिन्दू संगठनो और उस पुजारी को बदनाम करने की साजिश बताया था जिसे बाद में अदालत ने  बलात्कारी हत्यारा मानकर सजा सुनाई थी।  इन्ही "सुपारी राइटर्स" की कलम से निकली ऐसी ही कालिख यह अनछपी किताब है।  

किताब न छापने के ब्लूम्सबरी के फैसले को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से जुड़ा प्रश्न बताने वाले भूल जाते हैं कि प्रकाशकीय स्वतन्त्रता भी एक चीज होती है।  

प्रकाशक के बयान में यह बात रेखांकित की भी गयी है कि "अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करते हुए भी हम समाज के प्रति जिम्मेदारी की भी एक गहरी अनुभूति से रखते हैं और उसको भी ध्यान में रखना जरूरी मानते हैं।"  बहरहाल इसे छोड़ भी दें तो आकाश की तरफ मुंह करके लिखने की आजादी का मुख्य कोरस गान गाने और "भारत के लोग क्या पढ़ेंगे यह अन्तर्राष्ट्रीय जगत तय नहीं करेगा" का तर्क उठाने वाले ही थे जिन्होंने 2009 में शिकागो विश्वविद्यालय में धार्मिक इतिहास की प्रोफेसर वेन्डी डोनिगर की किताब "द हिन्दू" को बाजार से वापस लेकर उसकी लुगदी बनाने को पेंगुइन जैसे प्रकाशक को विवश कर दिया था।  इनके खेमे से अभिव्यक्ति और लेखकीय आजादी की दुहाई चोर मचाये शोर और शैतान के मुंह से आयतों की तरह सुनाई देती है।  दोहरे रुख और दोहरी जुबान  संघी खेमे की आजमाई हुयी कार्यशैली है।  इन दिनों अदालतों के मान-सम्मान में इनकी अगाध आस्था इसी का एक और आयाम है।  

एक और समूह भी है जिसे छापने न छापने के इस द्वन्द में "फ्रीडम ऑफ़ स्पीच" पर ख़तरा दिखा है।  ये भले लोग हैं - इतने भले कि पसलियों में घुस जाने की चाकू की गुजारिश को गुजारिश ही समझते हैं।  ये बाकी  जो भी जानते हैं वह जानते है मगर यह पक्की बात है कि आरएसएस को नहीं जानते।  क्या संघी गिरोह के पास भारत में इस कुत्सित किताब को छपवाने के लिए प्रकाशक नहीं थे ? थे, खुद उनके उनके प्रकाशन संस्थान हैं जो हर महीने हर भाषा में इसी तरह का जहरीला कूड़ा लाखों की तादाद में छापे जा रहे हैं। फिर उन्होंने सात समंदर पार का प्रकाशक क्यों चुना ?  ब्लूम्सबरी से छपवाकर वे अपने झूठ के साथ प्रकाशक की साख का ठप्पा लगवाना चाहते थे ताकि उसके बाद बिना यह बताये कि लिखने वालों की जन्मकुंडली क्या है, जोर जोर से प्रचार कर सकें कि अब तो इंग्लैण्ड से छपी किताब में भी आ गया है कि दिल्ली दंगों की असलियत क्या थी।  

इस तरह के झूठ और इनसे भी घातक अर्धसत्य गढ़ने की इनकी लम्बी परम्परा है।  दिल्ली की भंगी बस्ती की आरएसएस शाखा में महात्मा गांधी के जाने का बखान करके प्रामाणिकता हासिल करने वाला इनका अर्धसत्य-प्रलाप यह कभी नहीं बताता कि वहां गांधी क्या बोले थे और वहां से लौटकर उन्होंने क्या कहा था।  नेहरू इस तिकड़म को समझते थे।  गांधी की ह्त्या के ठीक महीने भर पहले 29 दिसंबर 1947 रीवा में आरएसएस के एक समारोह में गए डॉ राधाकृष्णन को लगभग फटकारते हुए लिखी अपनी चिट्ठी में उन्होंने कहा था कि ""मुझे यह पढ़कर दुःख हुआ कि आपने आरएसएस की हौंसला अफजाई की है।  यह संगठन मौजदा भारत में सबसे खतरनाक संगठन है। "

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी का अनुभव तो ताजा ताजा है।  कईयों के मना करने के बावजूद  वे संघ को ज्ञान देने की गलतफहमी पालकर गए थे मगर संघी मीडिया और आईटी सैल ने आरएसएस की  सभा में दिया गया उनका भाषण गायब करके उनके फोटो में  कलाकारी कर उन्हें भी ध्वज प्रणामी बता दिया गया।  ठीक इसी तरह की तिकड़म ब्लूम्सबरी के साथ इस किताब को नत्थी करके की जा रही थी।  

अमरीकी इतिहासकार फेडरिको फिंचेस्टीन ने अपनी किताब "ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ फासिस्ट लाइज" में लिखा है कि "फासिज्म का मुख्य लक्ष्य है (समाज और व्यक्ति में) तार्किकता को पीछे धकेल कर पूर्वाग्रहों की ओर लौटाना। " भाजपा और संघ के सारे अभियान इसी मुख्य लक्ष्य को हासिल करने के लिए होते हैं।  क्या कपिल मिश्रा की वीडियो क्लिप्स को बोलने की आजादी की ढाल थमाई जा सकती है ? नहीं। बोलने की आजादी मारने की छूट नहीं सभ्य समाज को जीवित बनाये रखने की धुरी पर टिकी होती है।  

एक तरफ जब इस बीच कोरोना संक्रमितों के मामले में भारत के करोड़पति और मौतों के मामले में लखपति होने के मुहाने तक पहुँच जाने की चिंताजनक सूचनाएं आयी हैं।  देश बेरोजगारी और उद्योगबंदियों के विस्फोटों से गूँज  रहा है ,सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्तियों को निबटाने का भूचाल सा आया हुआ है।  मंदी की सुनामी दरवाजे तक आ गयी है,  जीडीपी की सारी निशानियां लुप्त दिखाई दे रही हैं ; प्रधानमंत्री के एक ही फोटोशूट में 6 कपडे बदलकर मोर को दाना चुगाते हुए फोटो और वीडियो वायरल हुये हैं।  यही है वह न्यू इंडिया जिसका नीरो अपनी दावत का उजाला बढ़ाने के लिए 14 - 15 करोड़ भारतीयों का रोजगार छीन उनके जीवन के आसरे को जलाते हुए बांसुरी ही नहीं बजायेगा, मोरों भी दाना चुगायेगा। पता नहीं उन्हें पता है कि नहीं कि आत्ममुग्ध मोर जब नाच रहा होता है तो असल में वह खुद का नंगापन ही उघाड़ रहा होता है।  

दरबारी पूंजीवाद के दरबारियों और उनके धनाश्रित ढिंढोरचियों की "अहो रूपम अहो ध्वनि" के सप्तम सुर की गूँज के बीच साहस की, किन्तु बहुत जरूरी, बात होती है यह कहना कि "राजा तो नंगा है। " 

खैरियत की बात है कि इस देश के मेहनतकशों में साहस और हौंसला दोनों ही अपार हैं।  आने वाले दिन दंगे को दंगा और नंगे को नंगा कहने की आजादी को बचाने और और ऐसा कहते हुए देश भर में जगार मचाने की कोशिशों के दिन होंगे।  अभिव्यक्ति की असली आजादी सडकों पर है, खेतों में खलिहानो में, उद्योगों और खदानों में होगी - असहमति में   मुट्ठी उठाये। 


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Badal Saroj

लेखक लोकजतन के संपादक एवं अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं.

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