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शिवराज सरकार की साजिश - श्रम कानूनों का खात्मा,  कोरोना के बहाने मजदूर वर्ग पर हमला 

कोरोना वायरस जैसी महामारी से निपटने की सभी की जिम्मेदारी है, जिसे समूचे देश व प्रदेश की आमजनता भी बेहतर तरीके से पूरी कर रही है।

कोरोना वायरस जैसी महामारी से निपटने की सभी की जिम्मेदारी है, जिसे समूचे देश व प्रदेश की आमजनता भी बेहतर तरीके से पूरी कर रही है। इस महामारी से निपटने के लिये तीन फेज के क्रमश: घोषित लॉक डाऊन ने आम मेहनतकशों के जीवन में अकल्पनीय भूचाल ला दिया है। ऐसे में वे और उनके परिजन भुखमरी, असहायता, महामारी से संक्रमित हो जाने की मानसिक त्रासद स्थिति में पहुंच गये है। सैकडों, हजारों किलोमीटर की यात्रा हेतु लाखों लोगो का सडकों पर पैदल कूच, रास्ते में भूख, प्यास, दुर्घटनाओं में मौत यह दिखाती है कि उनके नियोजकों ने उनके प्रति न्यूनतम जिम्मेदारी भी पूरी नही की। ऐसे में सरकार को इन नियोजकों पर नैतिक सामाजिक व वैधानिक जिम्मेदारी पूरी करने के लिये दबाव बनाने के साथ कानूनी कसावट करने का काम भी करना चाहिये था। लेकिन इन नियोजकों को तो उपकृत, पुरुस्कृत कर छूट, राहत और सुविधायें दें, उनके मुनाफों की वृद्धि हेतु श्रम कानूनों को लगभग समाप्त करने की कार्यवाही की जा रही है। और दूसरी ओर मप्र में मेहनतकशों को और ज्यादा तबाह करने और पूंजी के नंगे नाच को संरक्षण देने के लिए बड़े गाजे बाजे के साथ मुख्यमंत्री ने श्रम कानूनों को ध्वस करने की घोषणा 7 मई को की। मजदूरों को गुलाम बनाने वाली इस कार्यवाही को निवेश बढ़ाने, विकास और रोजगार की वृद्धि के लिए एक जरूरी कदम के रुप में प्रचारित किया जा रहा है। यह जबर मारे और रोने भी न दे की कहावत को चरितार्थ करने का भोंड़ा प्रयास है। 

पहले से ही हालात खराब है
मध्य प्रदेश में कुल श्रम शक्ति का 96 से 98 प्रतिशत असंगठित श्रेणी के श्रमिकों का है जिन्हें किसी भी श्रम कानून का कोई संरक्षण या अधिकार प्राप्त नही है। शेष 2 से 3 प्रतिशत जिन श्रमिकों पर श्रम कानून प्रभावशील होने है उनकी स्थिति यह है कि केन्द्र सरकार ने 40 से कम नियोजित संख्या वाले माईक्रो उद्योगों को बुनियादी 14 श्रम कानूनों से बाहर रखा है। जूलाई 2015 में मध्य प्रदेश विधानसभा में आपके द्वारा पारित कराये गये कानून के जरिये अधिकांश श्रम कानूनों को लगभग निष्प्रभावी बना दिया गया और च्च् ईज आफ बिजिनेस डूईंग ज्ज् के नाम पर तो तमाम नियोजकों का एकतरफा स्वच्छंद राज कायम कर दिया गया। आज स्थिति यह है कि प्रदेश में 300 से कम नियोजन वाले संस्थानों में छंटनी तालाबंदी की कोई बंदिश नही है। प्रदेश में श्रम कानूनों के रहते श्रम कानूनों के न रहने जैसी स्थिति बना दी है, जिसमें जहां यूनियनों की ताकत है वहां ही थोडी बहुत राहत प्राप्त करने की स्थिति रहती है। अब किये गए संशोधनों से यह भी समाप्त हो जाएगा। इसलिए इसका विरोध जरूरी है। 

यह कहा जा रहा है कि प्रदेश के औद्योगिक विकास, रोजगार सृजन के लिये श्रम कानूनों का समापन करना जरूरी है। यह न सिर्फ जनता को भ्रमित करने वाला है बल्कि तथ्यात्मक रूप से भी असत्य है। इसको स्पष्ट करने के लिये म.प्र. संबंधी कुछ तथ्य ही पर्याप्त है। 
(1) आज प्रदेश में फैक्ट्रीज एक्ट के तहत कुल 6459 कारखाने पंजीबद्ध है जिनमें से 10 से 50 श्रमिकों वाले 5280, 51 से 250 श्रमिकों वाले 821 तथा 250 से अधिक संख्या वाले केवल 350 कारखाने है। स्पष्ट है कि कुल पंजीकृत कारखानों में 95 प्रतिशत कारखाने ऐसे है जो लगभग श्रम कानूनों केे बंदिशों दायरों व श्रम विभाग के निरीक्षण की परिधि से वैसे ही बाहर है या बाहर कर दिये गये है।
(2) शिवराज सिहं के ही पिछले कार्यकालों में बडे गाजे बाजे के साथ श्रम कानूनों के बदलाव तथा  च्च् ईज आफ     बिजिनेस डूईंग ज्ज् के नाम पर छूट का प्रचार कर 4 इन्वेस्टर्स मीट की गयी। 3 लाख 98 हजार 323 हेक्टेयर सरकारी जमीन उद्योगपतियों को आवंटित भी की गई और 8.5 लाख करोड के मैमोरेन्डम आफ अंडर स्टेन्डिंग किये। लेकिन 8.5 लाख करोड के जो मैमोरेन्डम आफ अंडर स्टेन्डिंग हुयी उनमें से केवल 53,076 करोड का ही निवेश हुआ जिसका भी 74 प्रतिशत हिस्सा सरकारी क्षेत्र का था। इसी के दौर में म.प्र.में 2017-18 में केवल 234 तथा 2018-2019 में केवल 268 उद्योग पंजीकृत हुये जिसमें क्रमश: 11,016 तथा 12,429 को रोजगार दिया गया। इनमें से कितने उद्योग आज भी चल रहे है यह जांच का विषय है। कुल मिलाकर परिणाम तो यही आया कि न बडी संख्या में नये उद्योग आये और न ही रोजगार पैदा हुआ। 
तो अब कौन सा चमत्कार होने वाला है

अब यह कहा जा रहा है कि कोरोना महामारी के चलते शायद निवेश का कोई  ''जैकपॉटÓÓ खुलने वाला है, इसलिये श्रम कानूनों से नियोक्ताओं को मुक्ति और सरकार की ओर से रियायतें, छूट और प्रोत्साहनों से यह ''जैकपॉट'' म.प्र. के लिये खुल जावेगा। यह जैकपॉट अमेरिका के दबाव में कथित रूप से चीन भागने वाले उद्योगों के भारत में आने की संभावना को माना जा रहा है। हालांकि अब तक की सूचनाओं से ऐसा कुछ होगा उसकी संभावनाए बेहद क्षीण है तो बिना किसी ठोस संभावनाओं के यह क्यों किया जा रहा है? दरअसल पूर्ववर्ती अनुभव बताते है कि कारपोरेट्स छूट, जमीन और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने के साथ श्रम की लूट के लिये लगाओ और भगाओ (हायर एन्ड फायर)की व्यवस्था चाहते है। श्रम सुधारों के नाम पर यह कार्यवाही कारपोरेट्स की इसी मंशा की पूर्ती के लिये की गयी मजदूर विरोधी कारगुजारी है, जिसका निवेश विकास और रोजगार सृजन से कोई संबंध नहीं है।

मप्र सरकार ने बिना संसद, विधानसभा चर्चा कि ए अपने कथित अधिकारों का दुरूपयोग कर औद्योगिक सम्बन्ध अधिनियम 1947, कारखाना अधिनियम 1948, संविदा श्रमिक (विनियमन तथा समाप्ती)अधिनियम 1970 जैसे केन्द्रीय कानूनोंं की श्रमिकों को संरक्षण देने की मूल भावनाओं प्रावधानों को निष्प्रभावी करने का संशोधन कर दिया। यह एक घातक प्रक्रिया है। इन संशोधनों का जो असर होने वाला है उसे समझने के लिए निम्न तत्थों पर गौर करना जरूरी है। 
(अ) कारखाना अधिनियम में किए संशोधन के बाद म.प्र. में इस अधिनियम के तहत पंजीकृत 99 प्रतिशत से ज्यादा कारखानों में श्रम विभाग के निरीक्षको का निरीक्षण समाप्त कर थर्ड पार्टी निरीक्षण को मान्य कर दिया है। यह स्पष्ट है कि ऐसी निरीक्षण की व्यवस्था का अर्थ है फैक्ट्री एक्ट के प्रावधानों का खुला उल्लंघन कर शत प्रतिशत बेहतरीन अमल का प्रमाणीकरण प्राप्त करने की व्यवस्था। यह एक ऐसी गम्भीर स्थिति निर्मित करेगा जिसमें कारखाने में श्रमिकों के लिये सुविधा, औद्योगिक सुरक्षा के प्रावधानों का खुला उल्लंघन तो होगा ही यह मजदूरों के लिये यातना गृह में भी तब्दील हो जावेंगे।  
(ब)औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के प्रावधानों(25 एन,ओ, पी,क्यू, आर को छोड कर)को निष्प्रभावी कर दिये जाने से कारखाने के अंदर श्रमिकों पर प्रबंधन की नंगी तानाशाही व दमन के हालात बनेंगे और श्रमिक अपने अधिकार सम्बन्धी विवाद के निराकरण हेतु किसी भी वैधानिक प्रक्रिया से वंचित कर दिये जावेंगे। इस संशोधन सम्बन्धी राजपत्र नोटिफिकेशन में कहा है कि ''ऐसे उद्योगों के कामगारों के विवादों के निराकरण की समुचित व्यवस्था की जावेगी।'' लेकिन प्रश्न यह है कि वर्तमान कानून में इस हेतु जो व्यवस्था है उससे तो इन्हें वंचित किया जा रहा है, और नई व्यवस्था बनी नहीं है। और यह भी क्या जो नयी व्यवस्था बनेगी वह औद्योगिक विवाद अधिनियम से ज्यादा प्रभावी व सक्षम  होगी?  हालांकि आप कह रहे है कि यह नये स्थापित उद्योगों पर प्रभावशील होगा। लेकिन   सच्चाई यह है कि अब इससे तो समूचे प्रदेश के श्रमिकों के लिये जंगल राज की कायमी का रास्ता साफ हो गया।
(स)ठेका मजदूर(उन्मूलन व नियमन)कानून के तहत अब 50 ठेका श्रमिकों तक के लिये ठेकेदार को कोई पंजीयन की जरूरत नही। स्पष्ट है कि जब आज 20 श्रमिकों से ज्यादा होने पर पंजीयन की व्यवस्था है तब तो खुले आम अवैध ठेकेदारी, ठेका श्रमिकों के अधिकारों पर दमन और उनके जीवन से खिलवाड होता है। अब नये संशोधन के बाद उनकी अवैघानिक कार्यवाहियों को विधिसम्मत करने का रास्ता खोल दिया गया है। इससे ठेका श्रमिकों का शोषण और तीखा होगा। 
(द)12 घंटे की पाली और 72 घंटे के ओव्हर टाईम की व्यवस्था मूलत: अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर आई.एल.ओ.     द्वारा मान्य 8 घंटे के कार्य दिवस की व्यवस्था का न सिर्फ खुला उल्लंघन है बल्कि श्रमिकों के मानवाधिकारों पर भी हमला है। आपके द्वारा किये गये संशोधन का सीघा अर्थ है कारखानों से एक पाली के श्रमिकों की छंटनी और शेष रह गये मजदूरों का अमानवीय शोषण। इससे कारखाना मालिकों के मुनाफा में वृद्धि तो होगी लेकिन श्रमिकों के शोषण के साथ इनके स्वास्थ्य, पारिवारिक, सामाजिक स्थिति पर भी विपरीत प्रभाव पडेगा तथा बेरोजगारी भी बढेगी। क्या मजदूरों की जिन्दगी की कीमत पर मुनाफों की अनुमति दी जाना चाहिये?
(इ) दुकान एवं स्थापना अधिनियम में संशोधन कर इन्हें प्रात: 6 बजे से रात 12 बजे तक खोलने की अनुमति दी गयी है। इसका सीधा अर्थ है कि बेहद कम वेतन पाने वाले कर्मियों से 18-18 घंटे काम की अनुमति देना जो आधुनिक प्रजातांत्रिक सामाजिक राजनैतिक परिदृश्य में अकल्पनीय स्थिति है। 

एकजुट विरोध-संघर्ष तीखा होगा
इस बड़े हमले की सुगबुगाहट का पता 2 मई को तब चला जब श्रम विभाग की समीक्षा के समय कारपोरेट्स की मांग के आधार पर 'अनावश्यक श्रम कानूनों' के परिसमापन हेतु कार्ययोजना बनाने का निर्देश श्रम विभाग को दिया। कितना फुर्तीला है हमारा यह प्रशासनिक तंत्र कि उसने दो दिन में ही सारी तैयारी कर 5 मई को मप्र के राजपत्र में श्रम कानूनों के संबंध में संशोधन प्रकाशित कर दिए और 7 मई को मुख्यमंत्री ने इनकी घोषणा भी कर दी। यह फुर्ती लाखों लाख उन मजदूरों की तकलीफों को दूर करने के लिए नहीं दिखती जो अपने घर जाने के लिए सड़कों पर अकल्पनीय कठिनाइयां उठा रहे है और अपनी जान भी गंवा रहे है। यही है पूंजीवादी तंत्र का असली चेहरा। 
इस प्रक्रिया के शुरू होते ही 3 मई को सीटू ने मुख्यमंत्री को प्रतिवाद पत्र लिखकर ऐसे संशोधन न करने का आग्रह करते हुए मांग की कि इस संबंध में सभी श्रमिक संगठनों के साथ उन्हें बैठक करनी चाहिए। कारपोरेट्स से मिलने के लिए जिन मुख्यमंत्री को एक दिन में तीन बार समय मिल जाता है उन मुख्यमंत्री के पास श्रमिक संगठनों से चर्चा के लिए समय नहीं है। और जैसे ही 7 मई को मुख्यमंत्री की इस संबंध में घोषणा आई वैसे ही सीटू ने 8 मई को सभी केन्द्रीय श्रमिक संगठनों के साथ बैंक, बीमा, बीएसएनएल और केन्द्रीय कर्मचारियों के महासंघों को एकजुट कर 11 मई को विरोध दिवस मनाने का आह्वान कर दिया। इस दिन व्यापक कार्यवाहियां हुई।  

 इस विरोध दिवस के जरिए मांग की गई कि रोजगार वृद्धि, विकास के सपने दिखा कर कोरोना संकट की आड में कोरपोरेट्स की मांग पर उनके मुनाफ ों की वृद्धि के लिये किये गये उपरोक्त सभी श्रमिक विरोधी संशोधन तुरन्त प्रभाव से वापस लिये जावे, श्रमिकों के अधिकारों को संरक्षित कर औद्योगिक विकास व रोजगार वृद्धि के प्रश्न पर तुरन्त एक त्रिपक्षीय बैठक बुलायी जावे जिसमें सभी केन्द्रीय श्रमिक संगठन के प्रतिनिधियों को शामिल किया जावे। ऐसी त्रिपक्षीय बैठक की अनुशंसाओं को ही इस विषय पर लिये जाने वाले किसी भी निर्णय का आधार बनाया जावे। कोरोना वायरस से मुकाबले हेतु घोषित लॉक डाऊन के समय श्रमायुक्त म.प्र.द्वारा जारी परिपत्र को  सख्ती से लागू करते हुये लॉक डाऊन की समूची अवधि का पूरा वेतन व अन्य देयों का भुगतान सुनिश्चित किया जावे। श्रमायुक्त म.प्र.द्वारा 6 मई 2020 को जारी उस परिपत्र जिसमें प्रबंधन के बुलाने पर यदि श्रमिक काम पर नही आयेंगे तो काम नही वेतन नही सिद्धांत के आधार पर वेतन काटने का अधिकार दिया है उसे निरस्त करें। ट्रांसपोर्ट, हम्माल, तुलावटी, निर्माण सहित अन्य असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के खातों में कम से कम 4 माह का (अप्रैल, मई, जून, जुलाई,अगस्त)का 7500 रुपया प्रति माह की दर से सरकार की ओर से भुगतान करने, कोरोना वायरस से मुकाबले में अहम भूमिका निभाने वाली आशा, सहयोगी को अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की तरह प्रति माह 10 हजार रुपये दिये जावें। आशा, सहयोगी, आंगनवाडी कर्मियों को पी.पी.ई. किट तथा अन्य सुरक्षा सामग्री उपलब्ध कराने तथा कोरोना ड्यूटी के दौरान किसी भी कारण मृत्यु पर 50 लाख रुपए का बीमा तथा उनके समूचे परिवार के इलाज की व्यवस्था की मांग प्रमुख रुप से उठाई गई। 
 
 


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प्रमोद प्रधान

लेखक- मध्यप्रदेश सीटू के महासचिव व राष्ट्रीय सचिव है।

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