कोविड-19 महामारी ने, भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की भारी अपर्याप्तता और घनघोर अनदेखी को गहरेे रंग से रेखांकित कर सामने ला दिया है। लॉकडाउन के पचास दिन हो चुके हैं, फिर भी ऐसा लगता है कि मोदी सरकार ने इस घातक वाइरस का सामना करने के अनुभव से कोई सबक सीखा ही नहीं है। राज्य-दर-राज्य, सरकारी अस्पताल मरीजों की भारी संख्या और चिकित्सा सुविधाओं की भारी कमी के बोझ के तले बैठे जा रहे हैं। मुंबई जैसे हॉटस्पॉट में सरकारी अस्पतालों की हालत, डराने वाली तस्वीर पेश करती है।
मोदी सरकार वास्तविक हालात की ओर से आंखें मूंदकर, आत्मतुष्ट होकर बैठी हुई है। टैस्टिंग अब भी, जरूरत के मुकाबले बहुत कम है। अब भी टैस्टिंग का अनुपात, एक हजार लोगों पर 1.8 से ज्यादा नहीं है। बहुत सी जगहों पर संक्रमितों के संपर्क में आए लोगों की विस्तृत ट्रेसिंग तथा संक्रमण संदिग्धों को एकांतवास में रखे जाने की प्रक्रियाएं, व्यवस्थित तरीके से काम नहीं कर रही हैं। केरल ही इस मामले में उल्लेखनीय अपवाद है। लंबे लॉकडाउन के बावजूद, अब तक इसकी स्पष्टï तस्वीर सामने आ ही नहीं पायी है कि भौगोलिक नजरिए से हमारे देश में कहां यह बीमारी कितनी फैली है और कितनी तीव्रता से फैली है। जहां तक कोविड से हो रही मौतों का सवाल है, मौतों की जो संख्या सामने आ रही है, वास्तविकता को बहुत-बहुत घटाकर दिखाती है। इस समय यह अनुपात, एक लाख पर 0.3 है। मौतों का घटाकर दिखाया जाना, कोविड-19 से मौतों की रिपोर्टिंग की कमजोर तथा त्रुटिपूर्ण व्यवस्थाओं की वजह से ही नहीं है बल्कि पश्चिम बंगाल जैसे कुछ उदाहरणों में तो यह नीतिगत निर्णयों का भी नतीजा है।
कोविड संकट ने निजी स्वास्थ्य रक्षा क्षेत्र की घोर विफलता और उसमें सामाजिक जवाबदेही के अभाव को भी रेखांकित किया है। कुछेक अपवादों को छोडकऱ, आमतौर पर निजी अस्पतालों ने इस मौके की जरूरतों को नहीं समझा है और इस बीमारी से निपटने के लिए अपने संसाधनों को तैनात नहीं किया है। इसका, इस बीमारी से हमारे देश की लड़ाई पर सीधे-सीधे असर पड़ता है क्योंकि हमारे देश के अस्पतालों का 93 फीसद हिस्सा निजी क्षेत्र में है और देश में अस्पतालों के कुल जितने बैड हैं, उनमें से 64 फीसद इन निजी अस्पतालों में ही हैं।
ऐसे हालात के सामने, केंद्र सरकार से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने तथा उसका विस्तार करने के लिए, तत्काल उपचारात्मक कदम उठाएगी। इसके लिए इसकी जरूरत थी कि स्वास्थ्य के क्षेत्र पर सार्वजनिक व्यय में युद्घ स्तर पर, फौरन तथा उल्लेखनीय बढ़ोतरी की जाती। लेकिन, ऐसा तो कुछ भी हुआ ही नहीं है।
प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ रु0 के पैकेज का जो एलान किया है, वह तो आंखों में धूल झोंकने की ही कोशिश साबित हुआ है। सरकार का प्रस्तावित अतिरिक्त खर्च जीडीपी का 1 फीसद मात्र है, जबकि दावा 10 फीसद का किया गया है। इतना ही नहीं, इस पैकेज में स्वास्थ्य की मद में आवंटन सिर्फ 15,000 करोड़ रु0 का है, जो कि 1.7 लाख करोड़ रु0 के उस पैकेज में था, जिसका एलान अप्रैल में ही किया जा चुका था।
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 22 अप्रैल को कोविड-19 के लिए आपात जरूरतों व स्वास्थ्य संबंधी तैयारियों के लिए 15,000 करोड़ रु0 के निवेश पैकेज का अनुमोदन किया था। इस राशि का तीन चरणों में उपयोग करने का निर्णय किया गया था। 7,774 करोड़ रु0 का तत्काल इस्तेमाल किया जाना था और शेष राशि का मध्य-अवधि सहायता के रूप में, एक से चार साल तक में उपयोग किया जाना था। इसमें से राज्य सरकारों को पहले चरण में कुल 3,000 रु0 का अतिरिक्त फंड मिलना था। इस राशि में से 28 राज्यों व केंद्र शासित क्षेत्रों के हिस्से में बहुत थोड़ी-थोड़ी रकम आएगी। स्वास्थ्य, राज्यों का विषय है और इस महामारी से निपटने पर खर्च का ज्यादातर बोझ राज्यों को ही उठाना पड़ रहा है। ऐसे हालात में इतनी मामूली रकम के आवंटन से, उनको शायद ही कोई मदद मिल सकती है।
वित्त मंत्री निर्मला सीमारमण ने, 20 लाख करोड़ रु0 के पैकेज की अपनी पांचवीं तथा अंतिम किस्त में और ज्यादा वादे तो जरूर किए, पर फंड देने का कोई ठोस वादा नहीं किया। उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च बढ़ाया जाएगा; शहरी व ग्रामीण इलाकों में जमीनी स्तर पर स्वास्थ्य तथा वैलनैस केंद्रों के लिए निवेश बढ़ाया जाएगा; सभी जिलों में अस्पतालों में संक्रामक रोग ब्लाक होंगे (कितने समय में यह तय नहीं है) और ब्लाक स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य लैबोरेटरियां खोली जाएंगी, आदि।
भाजपायी शासकों ने इस महामारी का यह असली सबक सीखा ही नहीं है कि एक विस्तृत तथा कुशल सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का होना, बहुत-बहुत जरूरी है। भाजपा सरकार तो अब भी स्वास्थ्य के क्षेत्र के निजीकरण की ही दिशा में बढ़ रही है। हम पहले ही देख चुके हैं कि मोदी के लिए, स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च में बढ़ोतरी का क्या अर्थ है? मोदी सरकार ने 2017 में जिस राष्टï्रीय स्वास्थ्य नीति का एलान किया था, उसमें स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च को, जीडीपी के 1.15 फीसद के अपने मौजूदा स्तर से, पूरे 2025 तक 2.5 फीसद के स्तर तक ले जाने का प्रस्ताव किया गया है! इस नीतिगत दस्तावेज में, जिला अस्पतालों के विस्तार में सार्वजनिक-निजी साझीदारी का प्रस्ताव किया गया है। इसलिए, जिला अस्पतालों में जिस संक्रामक रोग विभाग का वादा किया गया है, वह अगर खुलता भी है तो ऐन मुमकिन है कि निजीकृत स्वास्थ्य सुविधा के मॉडल पर ही खड़ा हो।
कोविड-19 के भारत के प्रत्युत्तर को गड्ड मड्ड करने और महामारीविदों तथा स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सलाह पर न चले जाने के लिए, मोदी सरकार ही जिम्मेदार है। वह लगातार यह झूठी धारणा फैलाने में ही लगी रही है कि महामारी तो नियंत्रण में है और दूसरे बहुत से देशों के मुकाबले में, इस बीमारी का मुकाबला करने में भारत का प्रदर्शन काफी अच्छा है। वह इस तथ्य को अनदेखा या कमतर ही करके देखती आयी है कि संक्रमण की दर बेहिसाब तेजी से बढ़ रही है और जब भी लॉकडाउन खत्म होगा, मरीजों की संख्या में तेजी से होने वाली बढ़ोतरी को संभालने के लिए हमारी तैयारी पूरी नहीं होगी। उसे तो सिर्फ इसकी चिंता है कि कैसे खुद को इस महाभारत का विजेता घोषित कर दे। वास्तव में मोदी ने तो 25 मार्च को ही एलान कर दिया था कि यह महाभारत, 21 दिन मेें जीत ली जाएगी! एक विस्तारित तथा नयी जान से भरी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के मुद्दे को, वैकल्पिक एजेंडा पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए। ऐसी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए संघर्ष एक राजनीतिक मुद्दा है, जिसका संबंध भारत की जनता की बुनियादी खुशहाली से है।
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