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शरम करो और माफी मांगो मनु 

हत्या करने वाले के ‘सपने में भगवान आने और उसे राक्षसों का सर्वनाश करने का आदेश देने’ की ‘स्वीकारोक्ति’ ये भगवान 33 करोड़ में से ये कौन से वाले है? संहार किये जाने वाले राक्षस कौन हैं? खबर यहां से शुरू होती है और ठेठ हम सबके घर के भीतर पहुंचती है।

25 सितम्बर की सुबह शिवपुरी में दो मासूम बच्चों की ह्त्या जितनी विचलित और स्तब्ध करने वाली थी उससे कहीं ज्यादा भयावह थी वह खबर जिसे ज्यादातर समाचार पत्रों ने लिया ही नहीं, जिस एक अखबार ने लिया उसने भी खबर के बीच एक उल्लेख भर बनाकर रख दिया गया था। आखिर आमतौर से अखबार और मीडिया भी वर्चस्व कायम करने का एक माध्यम है। इसलिए खबर लिखने बताने के पीछे भी एक एजेंडा होता है और इन दिनों तो खबर होती ही नहीं है सिर्फ एजेंडा भर ही होता है। 

‘खुले में शौच’ की लीड बकवास और गुमराह करने वाली थी। शिवपुरी के बच्चों के हत्यारे स्वच्छता दूत नहीं थे और जैसा कि बाद में वहां पहुँची टीम (देखें खबर; असली हालात तो और भी भयावह हैं ) ने पाया कि बच्चे तो सिर्फ असमर्थ शिकार भर थे, दबंगों का असली मकसद ‘धाक जमाना था’ और धाक जमाने के लिए स्त्रियों और  दलितों से अधिक आसान जरिया और कोई नहीं होता।  लेकिन सच्ची खबर इतनी भर भी नहीं है। असली खबर बोल्ड अक्षरों की दो पंक्तियों के नीचे दबी तीसरी पंक्ति में है। जिसे अलग से रेखांकित लोकजतन ने किया है। जो है; हत्या करने वाले के ‘सपने में भगवान आने और उसे राक्षसों का सर्वनाश करने का आदेश देने’ की ‘स्वीकारोक्ति’
ये भगवान 33 करोड़ में से ये कौन से वाले है? संहार किये जाने वाले राक्षस कौन हैं? खबर यहां से शुरू होती है और ठेठ हम सबके घर के भीतर पहुंचती है। इन ‘भगवान’ का नाम है मनु और इनका काम है मनुष्य का पूरी तरह अमानुषीकरण करना! इस सूत्र मे निहित राक्षस सिर्फ दलित भर नहीं, जाति श्रेणीक्रम की कथित ऊंचाईयोकी श्रृंखला है। एक कुत्सित  बोध है जो किसी सर्वनाशी मानसिक रोग से कम नहीं है। एक ऐसा ‘बोध’ जिसमें अपने से ऊपर कही जाने वाली हर जाति के वर्चस्वकारी रवैये और बर्ताब के प्रति जायज और सही आक्रोश है किन्तु इसी के साथ अपने से  नीची मानी जाने वाली हर जाति समुदाय राक्षस है और इसलिए उसका पददलन और उत्पीडऩ यहाँ तक कि हत्या भी (जिसे वध कहा जाता है) एक धर्मसम्मत शास्त्रोक्त कृत्य है। इनमें भी स्त्रियाँ - छोटी, बड़ी, युवा, बालिका, बुजुर्ग सभी - इधर भी निशाने पर हैं, उधर भी। वे शूद्रातिशूद्र हैं। 

जिस मनु ने इस देश की मेधा, शोध, खोज, निर्माण और सृजन के कोई 1500 साल बर्बाद कर दिए, इस देश से उसकी मनुष्यता और संवेदनशीलता छीन ली; कायदे  से उसे अब तक कालातीत हो जाना चाहिए था, एक बुरे सपने की तरह भुला दिया जाना चाहिए था। वह मनु अब तक न सिर्फ ‘‘अलाइव व किकिंग’’ है बल्कि हिंदुत्व का बाना ओढक़र आखेट पर निकला है। मनुस्मृति को वास्तविक संविधान मानने वालो के सत्ता में पहुँच जाने के बाद से बिना डर भय के उसकी नरमेध यात्रा जारी है। 

जब तक समाज मे, सोच में, विचार में, आचार में, व्यवहार में, घर मे परिवार में और खुद के भीतर भी छुपे इस दुष्ट मनु की शिनाख्त नही करेंगे। पक्का मानिए बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं हैं कोई  भी और किसी का भी परिवार। रौशनी (12 वर्ष) अविनाश (10 वर्ष) के लिए आँसू जाया करने से कहीं ज्यादा जरूरी है अपनी रौशनी और अपने अविनाश को भेडिय़ा या उसका शिकार या दोनों, बनने से बचाने के हरसंभव प्रयत्न करना। 
अपने शासकवर्गी वर्ग-हित सचेत सार और रूप के बावजूद भारत का संविधान काफी हद तक इस मनुवादी सोच विचार से मुक्ति के प्रबंध करता है। अंधविश्वास और जाति, धर्म, स्त्री-पुरुष के नाम पर होने वाली गैरबराबरी और ज्यादती के रास्ते बंद करता है। मगर एक तो सिर्फ लिखने भर से कुछ होता जाता नहीं है, दूसरे जिनके हाथों मे इस संविधान को लागू करवाने का जिम्मा था /है उनका इस कुरीति और आपराधिक सोच को दूर करने की धारणा से कोई रिश्ता नाता नहीं है। नतीजा सामने हैं । 

बुरे को बुरा कहने और साबित करने भर से भी बुराई खत्म नहीं हो जाती। उसे धिक्कारने, अतीत मे उसके किए पर पश्चाताप और उसका शिकार बनी पीढिय़ों की पीड़ाओं का प्रायश्चित करने की भी आवश्यकता होती है। दुनिया के अनेक देश, समुदाय, धर्म और पंथ अपने अपने काले अतीत का पुनरावलोकन करते रहते हैं। जन दवाब बढऩे, समय समय पर उन गुनाहों के लिए पश्चाताप भी करते हैं, प्रायश्चित भी करते हैं। कैथॉलिक चर्च या पोप के अब माफी मांगने से अब गैलीलियो का कुछ बनने बिगडऩे का नहीं है किन्तु गुजरी पीढिय़ों के जुर्म और गलती का अहसास मौजूदा और आगामी पीढिय़ों के सलीके और सलूक को निखारता है, ढालता है । इसके लगातार बाद उसे सामाजिक सीख और शिक्षा के माध्यम से जनमानस की चेतना मे बैठाया जाना होता है। जर्मनी ने कुछ हद तक यह किया। हिटलर और उसके नाजीवाद को अपना कलंक माना, पढ़ाया और उस पर गर्व करना लज्जा की बात बताया। इस देश में यह दोनों ही काम नहीं हुये। किसी एतिहासिक कालखण्ड में हुई जघन्यता को जघन्यता माना ही नहीं गया। उल्टे अतीत के गौरव की बहाली के नाम पर उनको अपनी शान और संरक्षणीय धरोहर करार दिया गया। नतीजा सामने हैं। इसे अब भी नहीं थामा या उलटा गया तो यह कभी धर्म तो कभी संप्रदाय, कभी जाति तो कभी भाषा के बहाने सभ्यता और समाज, गाँव के गाँव यहाँ तक कि घर की चौखट के भीतर के परिवारजनों को भी स्त्री-पुरुष के नाम पर खंडित विखंडित कर देगा। 

इसमे जाति श्रेणी क्रम और पितृसत्ताकता सबसे अधिक सांघातिक और जानलेवा है। इसकी दुष्ट चेतना से उबरने की शुरुआत मनु के कहे से हुये कुकर्मों की सार्वजनिक माफी मांगने से होगी। एक पूरी सभ्यता को सर झुकाकर भरी आंखों के साथकहना होगा कि गलत हुआ, बहुत गलत हुआ। बस अब इसकी निरंतरता या पुनरावृत्ति नहीं होना चाहिए/नहीं होने देंगे। उसके बाद ही शुरू होगा अगला चरण; मौजूदा और आगामी पीढिय़ों को उन अमानवीयताओं से वाकिफ कराने का जो इस सबके चलते हुई। रौशनी से सॉरी बोलकर ही भारत की सभ्यता और समाज की रौशनी बचाई जा सकती है, अविनाश से क्षमा मांग कर ही मनुष्यता को विनाश से बचाया जा सकता है। 

वरना ह्यूस्टन से शाहजहांपुर तक घण्टा तो बज ही रहा है, पढ़ लीजिये इसी शंखध्वनि में अपना भी गरूड़ पुराण!! वह गरूड़ पुराण जो मृत्यु के पश्चात पर्याप्त दक्षिणा लेने के बाद पंडितजी पढ़ते हैं, मौत की पुष्टि करने के लिए। 

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