भांग कुंए में घुली है और हम मटके फोड़ रहे हैं। मासूम बच्चियों के साथ हाल ही में प्रदेश में घटी दिल दहला देने वाली घटनाओं के खिलाफ हम अपराधियों को कड़ी सजा दिलाने की बात कर रहे हैं। शोर मचाने में वे भी शामिल हैं, जिन पर सुरक्षा की जिम्मेदारी है। इंदौर से लेकर मंदसौर की घटना तक, हर घटना के बाद मुख्यमंत्री ने एक ही रट लगाई है कि अपराधी को फांसी की सजा होनी चाहिए।
पहला प्रश्र तो यह उठता है कि यदि विधायिका ही फैसला सुनाएगी तो फिर न्यायपािलका क्या करेगी? जब विधायिका फैसला सुनाती है तो यह न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप है। न्यायपालिका निर्णय देती है। निर्णय तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर दिया जाता है। तथ्य और साक्ष्य जुटाना न्यायपालिका का नहीं प्रशासन और सरकार की जिम्मेदारी है। जब सरकार के मुखिया फांसी की सजा की मांग करते हैं और साक्ष्यों के अभाव में न्यायपालिका यह निर्णय नहीं कर पाती है तो जनता की नजरों में न्यायपालिका दोषी हो जाती है। साक्ष्य प्रस्तुत करने में अक्षम सरकार अपने अपराध पर पर्दा डाल देती है। जबकि सरकार की जिम्मेदारी न्यायपालिका से कहीं अधिक होती है।
इसलिए दिल हाल की घटनाओं से नहीं दहलता, बल्कि मासूम बच्चियों के साथ यौन हिंसा और यौन उत्पीडऩ के आंकडों से दहलता हैंं, जो हाल ही में सामने आए हैं। यह आंकड़े सरकारों की संवेदहीनता को दर्शाते हैं। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार मध्यप्रदेश में मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं में पिछले 16 साल में 532 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। और यदि मासूम बच्चियों के साथ प्रदेश में होने वाली हर तरह की यौन हिंसा से जुड़े सारे मामलों को जोड़ लिए जाये तो सरकार की इसी एजेंसी के अनुसार प्रदेश में इन्हीं 16 सालों में 1109 प्रतिशत बढ़ोतरी इुई है। वर्ष 2001 में मासूम बच्चियों के साथ 390 बलात्कार के मामले दर्ज हुए जो 2016 में बढक़र 2467 हो गए। मतलब यह कि बात सिर्फ मंदसौर, इंदौर या सतना की नहीं है, हर रोज औसतन छ: से ज्यादा मासूम बच्चियों को इस पाशविक हवश का शिकार होना पड़ा है। मसूम बच्चियों के साथ होने वाली यौन हिंसा की सभी तरह की घटनायें भी इन्ही 16 सालों में 390 से बढक़र 4717 हो गई हैं। औसतन 13 बच्चियां इन हादसों का शिकार होती हैं, इन्हें रोकने की जिम्मेदारी सरकार की है।
देश भर के आंकड़ों को यदि तुलना की जाये तो माूसम बच्चियों के साथ होने वाली यौन हिंसा के कुल मामलों में से 15 प्रतिशत केवल मध्यप्रदेश में होते हैं। दूसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश है और तीसरे स्थान पर महाराष्ट्र। तीनों ही राज्यों और केन्द्र में भी संयोग से उसी पार्टी की सरकार है, जो भारतीय संस्कृति की रक्षक होने का दावा करती है।
राजधानी भोपाल में कुछ वर्ष पूर्व जब गृहमंत्री के सरकारे बंगले के पास एक मासूम बच्ची इस तरह के हादसे का शिकार हुई थी तो गृहमंत्री का बयान था कि पुलिस कैसे पता लगा सकती है कि कहां और कब बलातकार होने वाला है। लोकतंत्र में जहां जवाबदेह सरकार का जिम्मेदार मंत्री यदि इस प्रकार का बयान देता है तो समझा जा सकता है कि सरकार मासूम बच्चियों की सुरक्षा के प्रति कितनी संवेदनशील है।
जनता की हमदर्दी बटोरने के लिए यह कहना तो आसान है कि अपराधी को फांसी होना चाहिए। मगर फांसी दिलवाने के लिए सरकार अपनी जिम्मेदारी किस हद तक पूरा कर रही है? राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि मध्यप्रदेश में पिछले 16 सालों में, जिसमें 15 सालों में एक ही पार्टी की सरकार है, बाल अपराध के मामले में सजा होने के मामलों में 9 प्रतिशत की कमी आयी है। वर्ष 2001 में प्रदेश में यौन अपराध के मामलों में सजा की दर 38.9 प्रतिशत थी जो 2016 में घटकर 30 प्रतिशत रह गई है। क्या यह अपराधियों को बचाना नहीं है? यदि है तो लोकतंत्र में इसकी जिम्मेदारी तो सरकार को ही लेना होगी।
चिंताजनक पहलू यह है कि प्रदेश में जब बाल अपराध के मामलों में सजा की दर कम हो रही है, तब न्यायालयों में बाल अपराध के मामलों की संख्या में वृद्धि हो रही है। पिछले 16 सालों यह वृद्धि 1420 प्रतिशत है। वर्ष 2001 में न्यायलय में लंबित मामलों की संख्या 2065 थी जो 2016 में बढक़र 31,392 हो गई है। क्या इस ओर सरकार और समाज का ध्यान नहीं होना जाना चाहिए।
सच बात तो यह है कि सरकार अपने अपराधों पर पर्दा डाल रही है। प्रदेश सरकार के बजट पर यदि नजर डाली जाये तो बाल सुरक्षा पर सरकार अपने बजट का 0.04 प्रतिशत खर्च करती है। आम आदमी की भाषा में सरकार के पास बच्चों की सुरक्षा पर खर्च करने के सौ रुपये में से केवल चार पैसे हैं।
अपराधी ही अपने अपराधों पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहें हैं। सत्ताधारी पार्टी के एक बड़े नेता का बयान है कि लक्ष्मण रेखा पार होगी तो चीरहरण तो होगा ही। मगर उन्हीं नेता के शहर में चार माह की बच्ची ने कौन सी लक्ष्मण रेखा पार की थी। सतना में अपने पिता के साथ सो रही चार माह की मासूम बच्ची तो रात में नहीं घूम रही थी। मंदसौर की मासूम ने भी अश£ील कपड़े नहीं पहने थे। वे तो सरस्वती शिशु मंदिर की स्कूली ड्रेस में थी।
इसलिए अपराधी को फांसी दो के गाल बजाने से मासूमों को नहीं बचाया जा सकता है। यौन उत्पीडऩ की घटनाओं के मामले में महिला को ही अपराधी करार देने की मानसिकता को नष्ट करना होगा। पितृसत्ता ने महिला को निजी संपत्ति बनाया था अब उपभोक्तावादी संस्कृति ने महिला को उपभोग की वस्तु में तबदील कर दिया है। जो लोग मनुवादी पितृसत्ता के पोषक हैं, जो नव उदारवादी नीतियों को ही विकास का मूलमंत्र मानते हैं, उनके रहते महिला सुरक्षित नहीं रह सकती। हां जैसे मुर्गी से ज्यादा चूजे को पसंद किया जाता है। वैसे ही उपभोक्तावादी हवश महिला से ज्यादा मासूम बच्चियों पर अपने पंजे गढ़ा रही है।
सरकार को न्यायपालिका को निर्देशित करने की बजाय अपनी जिम्मेदारी निबाहने की पहल करनी चाहिए।
(जसविंंदर सिंह)
फोटो -साभार गूगल
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