पिछले दो महीनों में देश के विभिन्न हिस्सों में भीड़ के हमलों तथा भीड़-हत्याओं की जैसे बाढ़ ही आ गयी है। स्तब्धकारी हिंसा की इस लहर में मई और जून के महीनों में ही, दस राज्यों में, कम से कम 30 निर्दोष लोगों की जानें गयी हैं।
भीड़ के ये हमले ‘बच्चा चोरी’ की अफवाहों ने भडक़ाए हैं और ये अफवाहें व्हाट्सएप्प मैसेंजर सेवा के जरिए फैलायी जा रही थीं। घटना दर घटना, गांवों या कस्बों में दिखाई दिए ‘अपरिचितों’ को बच्चा उठाने वाला मान लिया गया, उन पर भीड़ें टूट पड़ीं और उन्हें पीट-पीटकर मार डाला गया या गंभीर रूप से घायल कर दिया गया।
बेशक, इस तरह की घटनाएं पहले भी हुई हैं। इसके बावजूद, इस समय के इन बर्बर हमलों के पैमाने और उनकी भयावहता की पहले की घटनाओं से कोई तुलना नहीं हो सकती है। उत्तर-पूर्व में असम तथा त्रिपुरा में, गुजरात में, मध्य प्रदेश में, बंगाल मेें, कर्नाटक में, तेलंगाना में तथा आंध्र प्रदेश में भीड़ के हमलों की ऐसी गंभीर घटनाएं हुई हैं। फिर भी इन हमलों की चपेट में सबसे ज्यादा झारखंड और महाराष्ट्र हैं, जहां क्रमश: सात तथा नौ मौतें हुई हैं।
हिंसा की इस लहर को हम बाकी सब चीजोंं से काटकर नहीं देख सकते हैं। हिंसा की यह लहर, भीड़ हिंसा तथा भीड़ हत्या के उस सिलसिले के हिस्से के तौर पर आयी है, जिसकी शुरूआत गोहत्या या गोमांस रखने के नाम पर, मुसलमानों को हमला बनाने के साथ हुई थी। 2015 में मोहम्मद अखलाक की हत्या के साथ इसकी शुरूआत हुई थी और उसके बाद देश के विभिन्न हिस्सों में ऐसी घटनाएं फैल गयीं। ‘गोरक्षक’ के नाम पर स्वयंभू गिरोह खड़े हो गए और उन्होंने बेरोक-टोक लोगों को मारना तथा घायल करना शुरू कर दिया।
मुसलमानों तथा दलितों को निशाना बनाकर घृणा का जो माहौल बनाया गया था, वह अब ‘बच्चा चोरी’ की दहशत और इसके चलते भीड़ की हिंसा के रूप में फूट पड़ा है।
गोगुंंडों की हिंसा को भाजपायी राज्य सरकारों ने और आरएसएस-भाजपा के संगठनों ने या तो उचित ठहराने की कोशिश की थी या फिर उस पर पर्दा डालने की कोशिश की थी। ‘दूसरे’ या ‘पराए’ के खिलाफ हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा लगातार चलाए जाते रहे घृणा के अभियान ने, अपनी कीमत वसूल करनी शुरू कर दी है। यही वह चीज है जिसने कुछ भी करने के लिए खुली छूट मिल जाने के आम वातावरण को और सामाजिक मूल्यों के विध्वंस को बढ़ावा दिया है।
झारखंड में, दो मुस्लिम कारोबारियों की भीड़ हत्या के बाद, गोड्डा के भाजपायी सांसद, निशिकांत दुबे ने 13 जून को एलान किया था कि वह, इस अपराध के चारों आरोपियों के बचाव का पूरा कानूनी खर्चा देगा। यह इस जघन्य कृत्य के खुले अनुमोदन के सिवा और कुछ नहीं है।
इसी प्रकार त्रिपुरा में, एक ग्यारह वर्षीय बच्चे की लाश मिलने के बाद, राज्य सरकार के मंत्री रतन लाल नाथ ने पीडि़त परिवार से मिलने के बाद एलान कर दिया कि बच्चे के दोनों गुर्दे निकाल लिए गए थे। इसने, बच्चा चोरी की पहले ही फैल रही अफवाहों की आग को और भडक़ाने का काम किया और इसके चलते हुए भीड़ हमलों में अब तक तीन लोगों की जानें जा चुकी हैं।
इस तरह के अनेक हमले आदिवासी आबादी वाले दूर-दराज के इलाकों में हुए हैं। यहां सोशल मीडिया पर फैलायी जा रही बच्चा चोरी की झूठी अफवाहों को ही सच मान लिया गया है और इन इलाकों में बाहरी लोगों को देखकर भीड़ें भडक़ उठी थीं। ज्यादातर मामलों में गरीब, प्रवासी मजदूर, बदहवास लोग या आसानी से पहचाने जाने वाले मुसलमान इन हमलों के शिकार हुए हैं।
इन घटनाओं पर प्रशासनिक तथा पुलिस तंत्र की सक्रियता हमेशा की तरह कमजोर रही है। लेकिन, असली विफलता राजनीतिक स्तर पर रही है। सभी प्रभावित राज्यों में न तो सरकार के राजनीतिक नेतृत्व ने कारगर तरीके से इस झूठे प्रचार की काट की है और न इन तरह की अंधी भीड़ हिंसा का दबाने के संकल्प का ही प्रदर्शन किया है। सोशल मीडिया का उपयोग करने में अति-सक्रिय प्रधानमंत्री ने भी इस मामले में बहुत मुखर चुप्पी साधे रखी है।
बच्चा चोरी के डर से भडक़ने वाली यह अस्वीकार्य तथा नृशंस हिस्सा, गहरी सामाजिक बीमारियों को उजागकर कर रही है। यह इसकी डरावनी चेतावनी है कि किस तरह हमारे समाज में सांप्रदायिक तथा संकीर्णतावादी खाइयों को चौड़ा कर दिया गया है, जो हमें अमानुषकारी तथा अराजक हिंसा की ओर ले जा रहा है।
प्रकाश करात
(लेखक सीपीआई (एम) पोलिट ब्यूरो के सदस्य हैं)
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