मध्यप्रदेश में कोरोना भलें ही मुबई, राजस्थान, दिल्ली, केरल सहित कई शहरों और प्रदेश के बाद आया हो, मगर अब प्रदेश कोरोना के संकट में है। कोरोना को लेकर हर रोज आने वाली अधिकृत खबरों के अनुसार ही महाराष्ट्र के बाद मध्यप्रदेश में सबसे अधिक मृत्यु हुई हैं। मृत्यु दर तो मध्यप्रदेश में देश में सबसे अधिक है। प्रदेश की नई सरकार का रवैया और इस संकट से निबटने की अदूरदर्शिता तथा अवैज्ञानिकता के चलते यह संकट कब थमेगा? कहना मुश्किल है।
गौर करने वाली बात यह है कि जब पूरी दुनिया कोरोना वायरस को लेकर चिंतित थी, तब मध्यप्रदेश भाजपा की चिंतायें कुछ और थी। उसकी सत्ता की हवश ने प्रशासन को अस्थिर कर दिया था। करीब दो सप्ताह तक प्रशासन लकवाग्रस्त रहा। वजह थी- भाजपा द्धारा करीब एक दर्जन कांग्रेस और निर्दलीय विधायकों को अगवा कर गुड़ागव के एक रिसोर्ट में बंधक बना लिया गया। उन्हें मुक्त कराने के बाद सिंधिया और सिंधिया समर्थक छह मंत्रियों से 22 विधायकों को बंधक बनाकर बैंगलूरू में पहुंचा दिया गया। सिंधिया कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गए। मगर भाजपा इस दौरान राज्यपाल से कई बार मिली। भाजपा नेताओं ने कमलनाथ सरकार के इस्तीफे की मांग की। मगर एक बार भी यह मांग नहीं कि कोरोना के संभावित संकट से निबटने के लिए सरकार को उचित कदम उठाने चाहिए। न ही अपनी ओर से कोई सुझाव दिया।
उल्लेखनीय है कि जब कोरोना के चलते प्रदेश भर में धारा 144 लगा दी गई थी। चार से अधिक लोगों के साथ आने पर पाबंदी थी और प्रधानमंत्री पहले जनता कफ्र्यू और फिर लाँकडाउन के घोषणा कर रहे थे। तब मध्यप्रदेश में भाजपा ही इसका सबसे ज्यादा उल्लंघन कर रही थी। वह कांग्रेस के बागी विधायकों को भर भर के बैगलूरू ले जारही थी। फिर अपनी पार्टी के एक सैंकड़ा से अधिक विधायकों को पहले गुडग़ांव और बाद में सीहोर के एक रिसोर्ट में बंधक बनाकर रखा। वह भाजपा विधायक दल की बैठकें कर रही थी। मगर तब उसे कोरोना की चिंता नहीं थी। उसकी सिर्फ एक चिंता थी कि हर हालत में सत्ता की उसकी हवश पूरी होनी चाहिए।
बिना सेना के सेनापति
खैर, 23 मार्च को शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा की सत्ता की हवश आधी अधूरी तो पूरी हो गई है। वे मुख्यमंत्री बन गए हैं। मगर मंत्रीमंडल का गठन अभी टाल दिया गया है। पहले कहा जा रहा था कि 14 अप्रैल को लाँकडाउन खुलने के बाद मंत्रीमंडल का गठन होगा। अब लाँकडाउन ही 30 अप्रैल तक कर दिया गया है, तो जाहिर है कि मंत्रीमंडल का गठन अब मई में ही होगा। हालांकि लाँकडाउन तो बहाना है। असली वजह कुछ और है और वजह एक नहीं दो हैं।
पहली वजह तो भाजपा की अंदरूनी कलह है। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व प्रदेश में भाजपा की सरकार तो चाहता था, मगर शिवराज उसकी पसंद नहीं थे। विधानसभा चुनावों के बाद भी वे नेता प्रतिपक्ष बनना चाहते थे। मगर केन्द्रीय नेतृत्व इसके लिए तैयार नहीं था। केंन्द्रीय नेतृत्व ने नरोत्तम मिश्रा का नाम आगे बढ़ाया था, मगर वह शिवराज को स्वीकार्य नहीं था। इस तरह गोपाल भार्गव के नाम पर सहमति बनी थी। शिवराज सिंह चौहान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर सदस्यता अभियान का प्रभार सौंपा गया, मगर उनका ज्यादा वक्त भोपाल और मध्यप्रदेश में ही गुजरा। कमलनाथ सरकार को सत्ता से बाहर करने की साजिशों की कमान भलें ही अंतिम समय में अमित शाह ने अपने हाथ में ले ली थी, मगर मध्यप्रदेश में विधायकों को साधने का काम शिवराज सिंह चौहान और नरोत्तम मिश्रा ही संभाल रहे थे। इसलिए यह असमंजस था कि मुख्यमंत्री कौन होगा। खैर जो भी परिस्थितियां बनी, वो शिवराज के पक्ष में थी और इस तरह 23 मार्च को रात के अंधेरे में उन्होंने मुख्यमंत्री पद ग्रहण किया।
मंत्री मंडल के गठन की दूसरी वजह कोरोना वायरस नहीं, बल्कि भाजपा में शामिल हुए नए वायरस ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं। उनसे वायदा किया गया है कि न सिर्फ उन छह लोगों को फिर से मंत्री बनाया जायेगा जो कमलनाथ सरकार से इस्तीफा देने के बाद भाजपा में शामिल हुए हैं, बल्कि तीन और नेताओं को नेताओं को भी मंत्री बनाने पर समझौता हुआ है। इस तरह सिंधिया कोटे से ही नौ लोग मंत्री बनते हैं तो फिर भाजपा से केवल 26 लोग ही मंत्री बन पायेंगे। चर्चा तो यह भी है कि सिंघिया के एक मंत्री को उप मुख्यमंत्री बनाया जायेगा, तो फिर भाजपा संतुलन बनाने के लिए एक उप मुख्यमंत्री और बनायेगी। वह कौन होगा? बाहरी नौ लोगों को मंंत्री बनाने के बाद भाजपा के अंदर भी असंतोष पनपेगा। यह विवाद भी है। इन विवादों के बोझ तले दबी भाजपा कोरोना का बहाना बनाकर मंत्रीमंडल के गठन को आगे बढ़ा रही है।
न नीति न दृष्टि
सत्ता में आने के बाद भाजपा की सत्ता की हवश तो पूरी हो गई है,मगर कोरोना की महामारी से निबटने के लिए भाजपा की एक सदसयीय मंत्रीमंडल की सरकार के पास कोई योजना नहीं है। सत्ता में आने के बाद पूर्ववर्ती सरकार पर जो आरोप लगा रही है, वह भी उसे भी भाजपा और उसकी केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा करने वाले हैं। मस्लन शिवराज सिंह को कहना है कि जब कोरोना का पहला मरीज 30 जनवरी को ही मिल गया था तो तभी से व्यवस्थायें और सुरक्षा पर ध्यान दिया होता तो समस्या इतनी जटिल न होती। मगर इस ध्यान देने के लिए कमलनाथ सरकार नहीं, बल्कि केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार जिम्मेदार है। इसे लेकर नरेन्द्र मोदी सरकार की आलोचना हो रही है।
अब अगर शिवराज सिंह चौहान और भाजपा का यह कहना है कि इस सरकार को कमलनाथ सरकार को स्वास्थ्य सुविधाओं और अस्पतालों की कमियों को समय रहते दूर करना चाहिए था, तो भाजपा को इसकी जवाबदेही भी लेनी होगी कि वही तो ऐसे संवेदनशील समय में प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री को बंधक बनाकर बैंगलूरू ले गई थी। और अब जब कोरोना की मौतों के मामले में प्रदेश दूसरे स्थान पर है, तब प्रदेश में कोई स्वास्थ्य मंत्री नहीं है।
लाँकडाउन के बाद परिस्थितियां ऐसी हो गई हैं कि गरीब और निम्नमध्यम वर्गीय परिवारों के लिए दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल हो गई है। मुख्यमंत्री ने तीन माह का राशन देने की जो घोषणा की थी, वह राशन प्रदेश के साठ प्रतिशत कंट्रोल की दुकानों पर नहीं पहुंचा है। सरकार दावा कर रही है कि जिन परिवारों के पास राशन कार्ड नहीं है, उन्हें भी राशन वितरित किया जायेगा, मगर हालत यह है कि कि राशनकार्ड धारकों को ही राशन उपलब्ध नहीं है।
संकटकाल में भी राजनीतिक संकीर्णता
संकटकाल से निबटने के लिए राजनीतिक संकीर्णता से ऊपर उठकर एकजुट और सामूहिक प्रयासों की जरूरत होती है। मगर संघ के नियंत्रण वाली भाजपा सरकार ने संकट के समय भी घिनौनी राजनीति करना शुरू कर दिया है।
नौकरशाही की अपनी समस्याएं और सीमायें होती हैं। अंतिम व्यक्ति तक राहत पहुंचाने की कोशिश नौकरशाही कभी नहीं कर सकती है। हां यदि सरकार की राजनीतिक इच्छा जन कल्णाण और जनता को राहत पहुंचाने की हो तो,रास्ते निकाले जा सकते हैं। केरल की वामपंथी जनवादी मोर्चे की सरकार ने देश भर को दिखा दिया है कि संकट की घड़ी में कैसे निबटना चाहिए। मध्यप्रदेश में भी हमारी यही मांग रही है कि सरकार को पहले प्रदेश स्तर पर और फिर जिला स्तर पर सर्वदलीय बैठकों का आयोजन करना चाहिए। जिला स्तरीय बैठकों में प्रत्येक राजनीतिक दल से वार्ड और पंचायत स्तर के वालंटियर्स की सूची मांगी जानी चाहिए। उस सूची के आधार प्रत्येक वार्ड और पंचायत स्तर पर राहत टीम गठित कर हर जरूरतमंद तक राहत पहुंचाई जा सकती है। ऐसा करने से जनता तक राहत तो पहुंच सकती थी, मगर भाजपा और संघ का एजेंडा पीछे छूट जाता।
शिवराज सरकार द्वारा सर्वदलीय बैठक न बुलाये जाने के बाद भी विभिन्न राजनीतिक पार्टियां और सामाजिक संगठन अपने अपने स्तर पर सरकार से बिना कोई मदद लिए, खुद संसाधन जुटा कर राहत कार्य चलाने का प्रयास कर रहे थे। शिवराज सरकार ने पहले हमला इन्हीं राहत कार्यों पर किया। प्रशासन ने डिस्टेंसिंग के नाम पर इन राहत कार्यों को बंद करवा दिया है। और सरकारी राहत कार्य केवल भाजपा और संघ के स्वंयसेवकों और संघ नियंत्रित संस्थाओं के हवाले कर दिए हैं। राहत अब अंधे की रेबड़ी हो गई है। अब प्राथमिकता प्रभावित जनता नहीं, बल्कि अपने प्रभाव की जनता हो गई है।
दूसरा प्रदेश के जिन 24 विधान सभा क्षेत्रों में उप चुनाव होना है, वहां तो राहत कार्य भाजपा का चुनाव प्रचार हो गए हैं। जब राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों के राहत कार्यों पर रोक लगाई जा रही है, तब भाजपा के संभावित प्रत्याशी राहत कार्यों का वितरण धड़ल्ले से कर रहे हैं।
इससे जनता तक राहत सामग्री नहीं पहुंच रही है। साथ ही आवश्यक वस्तुओं की कालाबाजारी को भी प्रशासन संरक्षण दे रहा है। सबसे ज्यादा नुकसान सब्जी उत्पादक किसानों का हो रहा है, जिन्हे खेत खाली करने के लिए औने पौने दामों पर सब्जी बेचनी पड़ रही है। इधर उपभोक्ताओं के वह बेहद महंगे दामों पर मिल रही है। किसानों की फसल कटाई की भी सरकार ने कोई व्यवस्था नहीं की है।
जनता को राहत पहुंचाने में विफल शिवराज सरकार अपने साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में जुटी है। देश भर में जो काम भाजपा की आईटी सेल कर रही है। वही काम मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री खुद कर रहे हैं। उन्होने सार्वजनिक रूप से बयान दिया है कि मध्यप्रदेश में स्थिति नियंत्रण में आ गई थी, मगर जमातियों ने इसे बिगाड़ा है। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय कह रहे हैं कि कोरोना से मौते इसलिए हो रही हैं कि कुछ लोगों ने दीए नहीं जलाए थे।
अब चुनौती जनता तक राहत पहुंचाने और भाजपा और संघ परिवार के साम्प्रदायिक धु्रवीकरण को रोकने की है।
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