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भारत के लिए 'चतुर्भुज' का जाल

अमरीका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत के बीच चतुर्भुजीय गठजोड़ एक बार फिर हो रहा है। मनीला में हाल में हुए आसियान शिखर सम्मेलन के दौरान, इस सम्मेलन के हाशिए पर इन चारों देशों के अधिकारियों की एक बैठक आयोजित की गयी। आगे चलकर, सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अलग-अलग तीनों देशों के नेताओं से बातचीत की।

   प्रकाश करात 

 अमरीका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत के बीच चतुर्भुजीय गठजोड़ एक बार फिर हो रहा है। मनीला में हाल में हुए आसियान शिखर सम्मेलन के दौरान, इस सम्मेलन के हाशिए पर इन चारों देशों के अधिकारियों की एक बैठक आयोजित की गयी। आगे चलकर, सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अलग-अलग तीनों देशों के नेताओं से बातचीत की।


चारो भागीदार देशों की अधिकारी स्तर की वार्ता की ओर से कोई संयुक्त वक्तव्य जारी नहीं किया गया है। इनमें से हरेक देश ने बयान देकर इस बैठक के नतीजों के बारे में बताया है। बहरहाल, चारों वक्तव्यों में समान बात यह कही गयी है कि सहमति से यह तय किया गया कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र को, व्यापार तथा नौवहन के लिए खुला तथा मुक्त रखा जाए और इस क्षेत्र में शांति व स्थिरता के लिए हरेक खतरे का मुकाबला किया जाए। इस तरह यह स्वत: स्पष्टï था कि साफ तौर पर इसका मकसद चीन की बढ़ती ताकत तथा प्रभाव की काट करना ही है।


एशिया-प्रशांत क्षेत्र के चार 'जनतंत्रों' के बीच चतुर्भुजीय गठजोड़ के विचार को अमरीका लगातार आगे बढ़ाता आया है। अब से दस साल पहले, 2007 में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने पहली बार इस विचार को पेश किया था। उस समय, 2007 की मई में, मनीला में आसियन क्षेत्रीय शिखर सम्मेलन में, चारों देशों के नेताओं ने मुलाकात की थी। इससे पहले अमरीका, जापान तथा भारत ने संयुक्त नौसैनिक अभ्यास किया था।


बहरहाल, चीन की आपत्तियों के चलते चार देशों का यह गठजोड़ आगे नहीं बढ़ पाया। चीनी सरकार ने चारों देशों की सरकारों को एक आधिकारिक पत्र देकर उनसे इस तरह के गठजोड़ के उद्देश्य के संंबंध में पूछा था और इस पर अपनी नापसंदगी जतायी थी।


चतुर्भुजीय गठजोड़ इसलिए नहीं हो पाया कि इसके साल भर के अंदर-अंदर आस्ट्रेलिया में सरकार बदल गयी। वहां के नये प्रधानमंत्री केविन रुड चाहते थे कि आस्ट्रेलिया चीन के साथ घनिष्ठïतर व्यापारिक तथा आर्थिक रिश्ते विकसित करे। इसलिए, आस्ट्रेलिया की सरकार ने एलान कर दिया कि उसकी ऐसे गठजोड़ का हिस्सा बनने में दिलचस्पी नहीं है। इसके बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने भी इस मामले को आगे बढ़ाना उपयुक्त नहीं समझा।


बहरहाल, दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी, शिंजो आबे के जापान में दोबारा सत्ता में आने के बाद, जापान एक बार फिर चतुर्भुजीय गठजोड़ के विचार को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने में जुट गया है। यूपीए सरकार के दौर में, जापान तथा अमरीका के साथ त्रिपक्षीय सुरक्षा गठजोड़ कायम किया गया था। 2010 में मालाबार नौसैनिक अभ्यासों में आस्टे्रलिया समेत चारों देशों ने हिस्सा लिया था।


अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने एशिया के लिए अपनी 'धुरी' की घोषणा की थी और अपने नौसैनिक बलों का 60 फीसद एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भेज दिया गया। भारत को पटाया जा रहा था कि इस धुरी का आधार बन जाए। उसके बाद से भारत पर इसके लिए बढ़ता हुआ दबाव डाला जा रहा है कि अमरीका के साथ बाकायदा सैन्य गठजोड़ कायम कर ले।


मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद, 2015 की जनवरी में, राष्ट्रपति ओबामा की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों ने एशिया-प्रशांत तथा हिंद महासागर क्षेत्र पर एक संयुक्त विजन दस्तावेज पर दस्तखत किए थे। इस दस्तावेज में भारत औपचारिक रूप से एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमरीका की रणनीति का साझीदार बन गया और उसने अपनी ''एक्ट एशिया पॉलिसी'' को, अमरीका की एशिया धुरी के साथ जोडऩे का वादा किया।


भारत के चतुर्भुजीय सुरक्षा गठजोड़ कायम करने का मतलब इसका एलान करना है कि उसने चीन की घेरेबंदी की अमरीकी रणनीति को अपना लिया है। जापान तथा आस्ट्रेलिया, अमरीका के दो प्रमुख सैन्य गठजोड़ सहयोगी हैं। भारत ने अब खुद को इसी श्रेणी में पहुंचा दिया है।


यह एशिया में अमरीका का जूनियर पार्टनर बनने की दिशा में मोदी सरकार द्वारा उठाया गया एक बड़ा कदम है। अमरीका, एशिया-प्रशांत क्षेत्र को हिंद-प्रशांत क्षेत्र कहकर, भारत को खुश करना चाहता है। वह भारत को अपनी एशिया-प्रशांत रणनीति का केंद्र बनाने के जरिए, उसके अहंकार को सहलाना चाहता है। अमरीका के रणनीतिक सिद्घांत में भारत, चीन का कुंजीभूत जवाब है।


इसके साथ ही साथ अमरीका के इसमें वाणिज्यिक हित भी हैं कि भारत को अपना सैन्य सहयोगी बनाकर, उसे बड़े पैमाने पर अपने हथियार बेचे। राष्ट्रपति ट्रम्प के लिए, जिन्होंने 'अमरीका पहले' का सिद्घांत पेश किया है, भारत के लिए अत्याधुनिक रक्षा उपकरणों की बिक्री से पैसे बनाना और अमरीका में रोजगार पैदा करना, मुख्य लक्ष्यों में से एक है। 

सचाई यह है कि इस चतुर्भुजीय गठजोड़ में भारत के तीनों सहयोगियों के चीन के साथ घनिष्ठï आर्थिक तथा व्यापारिक रिश्ते हैं। चीन के साथ अपनी झगड़ों के बावजूद, उनकी अर्थव्यवस्थाएं अविभाज्य रूप से चीन की बढ़ती आर्थिक ताकत के साथ बंधी हुई हैं।


2016 में अमरीका-चीन व्यापार पूरे 650 अरब डालर का था। अमरीका पर सबसे ज्यादा कर्जा भी चीन का ही है। ट्रेजरी बांड, बिल आदि के रूप में अमरीका पर चीन का 12.4 खरब डालर से ज्यादा का कर्जा है, जो अमरीका के सार्वजनिक ऋण का 10 फीसद होता है। दूसरी ओर अमरीका ने चीन में बहुत भारी निवेश किए हुए हैं।


जहां तक जापान का सवाल है, चीन के साथ उसका व्यापार 340 अरब डालर का है और चीन, जापान का सबसे बड़ा व्यापार सहयोगी है। जापान, चीन में सबसे बड़ा विदेशी निवेशकर्ता भी है। पिछले साल के आंकड़ों के अनुसार उसने 100 अरब डालर से ज्यादा का निवेश किया था।


जहां तक आस्ट्रेलिया का सवाल है, चीन उसके शीर्ष व्यापार सहयोगियों में से है। उसके 28.8 फीसद निर्यात चीन के लिए ही होते हैं।


भारत की अर्थव्यवस्था, चीन तथा जापान के बाद, एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इसके बावजूद, 2016 में चीन के साथ उसका व्यापार 70.8 अरब डालर का ही था। यह पिछले साल के मुकाबले 2.1 फीसद की गिरावट को ही दिखाता था। यह भारत के हित में होगा कि चीन के साथ, जोकि विश्व अर्थव्यवस्था को चलाने वाला इंजन बना हुआ है, व्यापारिक तथा आर्थिक रिश्ते बढ़ाए। इसके बावजूद, विवेकपूर्ण स्वहित में काम करने के बजाए, अमरीका तथा उसके सहयोगियों द्वारा भारत का इस्तेमाल उस कंधे के तौर पर किया जा रहा है, जिस पर रखकर वे चीन पर गोली-गोले दागना चाहते हैं।


भारत वही खेल खेल रहा है, जो अमरीका उससे खिलवाना चाहता है। वह दक्षिण चीन सागर में, जिसकी भारत के लिए कोई रणनीतिक प्रासंगिकता नहीं है, एक रुख अपनाने के जरिए, चीन के साथ अपने रिश्तों में उलझनें पैदा कर रहा है। भारत जितना ज्यादा रणनीतिक-सैन्य पहलू से खुद को अमरीका के साथ बांधता जा जा रहा है, उतना ही चीन के साथ अपने रिश्ते बिगाड़ता जाता है। लेकिन, विचित्र बात यह है कि भारत तो चतुर्भुजीय गठजोड़ में शामिल होकर उनका यह काम कर रहा है, लेकिन इस गठजोड़ के उसके तीनो सहयोगी चीन के साथ अपने व्यापार तथा वहां अपने निवेशों से आर्थिक लाभ कमाना जारी रखे हुए हैं। पिछले सप्ताह राष्ट्रपति ट्रम्प की चीन यात्रा के दौरान भी 250 अरब डालर के व्यापारिक समझौतों पर दस्तखत किए गए हैं।


विराट ''वन बैल्ट वन रोड'' मुहिम में सहयोग करने से इंकार कर, भारत में बुनियादी ढांचे के निर्माण में चीनी निवेशों में रोड़े अटका कर और चीन के साथ उनकी लड़ाइयां लडऩे के लिए अमरीका के लठैत की तरह काम कर, मोदी सरकार वास्तव में भारत के हितों को ही चोट पहुंचा रही है। 


मोदी की रणनीतिक तथा विदेश नीति में 'राष्ट्रवाद' कहां है? 'राष्ट्रवादी' मोदी सरकार तो भारत की राष्ट्रीय संप्रभुता को गिरवी रखने और खुद को अमरीका के रणनीतिक हितों का मातहत बनाकर, भारत के राष्ट्रीय हितों के साथ समझौता करने में ही लगी हुई है।    

       
लेखक माकपा के पोलिट ब्यूरो सदस्य है 

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