दैनिक भास्कर के गु्रप एडीटर कल्पेश याग्निक इंदौर में अचानक चले गए, जाने के साथ ही अपने पीछे अनेक सवाल भी छोड़ गए। मृत्यु के बाद उनके परिवारजनों द्वारा पोस्टमार्टम की जिद करने से भी उन कयासों को बल मिला है, जो कल्पेश की मौत के बाद से लगातार उठ रहे है। सार्वजनिक सूचना है कि उन्हें दिल का दौरा पड़ा, अस्पताल में फिर से दौरा आया और बचाया नहीं जा सका। मगर उनके शरीर में अनेक स्थानों पर हुए फ्रै क्चर्स, टूटी हड्डियां कुछ ऐसे सवाल उठाती है जिनका जबाब नहीं दिया जा रहा है।
कल्पेश के दूसरी मंजिल से गिरने का सीसीटीवी फुटेज होने का दावा आशंकाओं को और अधिक गहरा बनाता है। दबाबों के चलते उनके आत्महत्या करने की खबरें भी आम चर्चा में है। इन सबका समाधान किसी उच्च स्तरीय एवं निष्पक्ष जांच से ही हो सकता है। दैनिक भास्कर समूह को खुद इस जांच की पेशकश करनी चाहिए, इसलिए नहीं कि सीजर ही नहीं उनके परिजनों को भी संदेह से ऊपर होना चाहिए। बल्कि इसिलए भी कि आशंकाओं के झुरमुटे में साजिशों के बिल होते है। इन्हें बंद किया जाना जरुरी है।
अखबारों के कारपोरेट मुनाफे के जरिये बन जाने ने संपादकों को बिचौलियों और फेसिलिटेटर की भूमिका में लाकर खड़ा कर दिया है। इस भूमिका के अपने अंतर्निहित खतरे है। पूंजीवादी मुनाफे की हवस किसी के साथ रहम या रूरियायत नहीं करती, किसी नैतिक रेखा को नहीं मानती।
दमन कितना भी भीषण क्यों न हो, उससे निजात पाने की उम्मीद कितनी भी मुश्किल क्यों न दिखती हो, दूर-दूर तक कोई सहारा भले नजर न आता हो, मगर औरते सबसे पहले खड़ी होती है। उठते उठते ही में पल भर में मुकाबले का संकल्प साध लेती है, आंख भर देखती है और पूरी शक्ति झोंककर सशरीर प्रतिरोध-प्रतिकार बन जाती है।
मुरैना इस का गवाह है। 2 अप्रैल के भारत बंद के बाद जब हजारों दलितो पर मुकदमें थोप दिए गए, सैंकड़ों निर्दोष जेल में ठूंस दिए गए, उत्तमपुरा, सिंगल बस्ती सहित दलित बहुल बस्तियों को रात बिरात, जब चाहे तब पुलिस दबिश के केन्द्रों में बदल दिया गया। जब एक सीपीएम को छोडक़र बाकी सभी पार्टियों को जाति आधारित वोटो के कोबरा सांप ने डसकर खामोश कर दिया-तब ये मुरैना की औरतें थीं जो उठी, खड़ी हुर्इं और सडक़ों पर उतरीं। जलूसों में चली, प्रशासन से भिड़ीं और अपनी मांगों को लेकर सरापा तेवरों से लड़ीं।
ये वे औरतें थीं जिन्हें चूल्हे चौके से नत्थी और घर गृहस्थी में पैबस्त कर दिया गया है। घर, परिवार और समाज को बचाने के लिए यही सबसे पहले खड़ी होती है। मजाज को पढ़े बिना, उनके लिखे को अमल में लाते हुए, आंचल को सुर्ख परचम बनाते हुए।
बच्चे भीग रहे हैं। बारिश उनके बस्तों को गीला कर रही है। किताबें सील रही है, कॉपियों पर लिखी स्याही फैल रही है। पढ़े जाने वाली इबारत अंधली हो रही है, लिखे जाने वाले शब्द-अक्षर गायब हो रहे है।
यह कहानी गांव और शहरी गरीब बस्तियों के छत-शाला-शिक्षक विहीन स्कूलों की नहीं है। मंहगे, निजी स्कूलों की है। जहां मानसून की तरह दो-तीन महीने नहीं-लंबे समय तक चलने वाली कमाई की लालसा और मुनाफे की हवस की वृष्टि है। इसमें शिक्षा के अधिकार का डूबना तय है। खरबपतियों की पूंजी के कुकरमुत्ते अशिक्षितों की जमात को घूरा बनाकर ही उगते है।
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