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कुछ करो ! कुछ करते हुए दिखो तो सही !!

कहावत है कि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं, इस लिहाज से जो लगता है वह आश्वस्ति नहीं जगाता।

संसदीय लोकतंत्र में कहा जाता है कि नवनिर्वाचित सरकारों को कम से कम 6 महीने का समय दिया जाना चाहिये । मध्यप्रदेश में 17 दिसम्बर को मुख्यमंत्री ने पदभार ग्रहण किया। 25 को मंत्रिमण्डल का शपथ ग्रहण हुआ और 28 को विभागों के बंटवारे हुये। जाहिर है इतने से समय में किसी सरकार के कामकाज को लेकर समीक्षात्मक टिप्पणी करना न सम्भव है ना ही उचित।  सो भी उस देश में जहां केंद्र में साढ़े चार साल से भी अधिक समय से सिर्फ जुबान चलाने वाली पूरी तरह नॉन-परफार्मिंग सरकार बैठी हो। मगर कहावत है कि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं, इस लिहाज से जो लगता है वह आश्वस्ति नहीं जगाता।


मगर ठीक इतना ही समय तो छत्तीसगढ़ की सरकार को हुआ है। उसने-किसानों के कर्ज, धान खरीदी के दाम, आदिवासियों की जमीन वापसी, पुलिसिया आतंक को थामने और पूर्ववर्ती सरकार के धतकर्मों की जांच इत्यादि के-जो कदम उठाये हैं उनसे बदलाव दिखता है। मध्यप्रदेश में अभी भी कुहासा और कोहरा बना हुआ है। उस पर कभी ग्वालियर के किसी पैलेस से उठती धुंध की छाया अंधेरा बढ़ाती है तो कभी राघौगढ़ की गढ़ी से लपलपाती चमक दिशाभ्रम कराती है।


दिक्कत जितने क्षत्रप उतने तम्बू की नहीं है, ऐसा न हो तो फिर कांग्रेस काहे की कांग्रेस!! सवाल जनादेश को पढऩे और उसके अनुरूप कुछ करने - कम से कम करते हुए दिखने - का है । जो अब तक नहीं दिख रहा। ठीक है, नौकरशाही में चुनने के ज्यादा विकल्प नहीं होते । कालातीत हुयी सरकार नीचे से ऊपर तक के प्रशासनिक अमले ईमानदारी और निष्पक्षता को कालकवलित करके गयी है । इसका मतलब यह तो नहीं कि भ्रष्टाचार में लिपे-पुते अफसरों की बहाली कर दी जाये? नहीं है तो - आईएएस ही चाहिये ना, कहीं और से ले आइये!!


जनता कुछ होता हुआ देखना चाहती है तो पूर्ववर्तियों के बहुत कुछ किये धरे को अनकिया होते हुआ देखना चाहती है। ठीक है, किये जाने के लिए वक्त चाहिये, किये-धरे को अनकिया करने के लिए तो सिर्फ फैसले ही काफी होते हैं!! कहाँ है वे?
कांग्रेसियों से मुकदमे उठेंगे, 2 अप्रैल की हिंसा के शिकार बनने के बावजूद जेल में ठूंस दिए गए पांच सैंकड़ा दलितों पर थोपे गए मुकद्मों का क्या होगा? व्यापमं की कीच कब निथरेगी - दुर्योधन कब तक अंगूठा दिखाता आजाद घूमता रहेगा? बाकी जित देखो तित लूट के मामलो की एफआईआर कब कटेंगी? नदियों के रेतहरण के दु:शासन कब कठघरों में खड़े होंगे? भोपाल की जेल से निकालकर सरासर गैरकानूनी हत्याओं की जांच कब होगी, असली अपराधी कब नपेंगे ?
अगर यह सब नहीं होना है तो फिर होना क्या है? 11 दिसम्बर का जनादेश मंत्रियों के घर और वल्लभ भवन के दफ्तरों पर मंडराते दलालों के कन्धों पर डले गमछों का रंग बदलने का जनादेश नहीं है। जनादेश को ढंग से पढऩे और काम पर लगने की जरूरत है।


प्रदीप के बिना .....

न जाने कितनी वर्षों के बाद प्रदीप तिवारी के बिना छपा लोकजतन का यह पहला अंक हैं । हालांकि, इस अंक की पेज मेकिंग करते हुए उपेन्द्र यादव ने बताया कि इसकी भी कुछ खबरें वे लगा कर गये थे।


प्रदीप, जैसा कि 2016 की एक पोस्ट में लिखा था; 'लोकजतन के पीर, बाबर्ची, भिश्ती और ईश्वर सब थे । आखिऱी मिनट तक आने वाली सामग्री को भी सहेजकर सजा देने और उसके बाद की समीक्षा की पहली तोहमत झेलने के लिये हाजिर इसके इकलौते पंचिंग पैड भी।  सोलह साल से अधिक समय तक लोकजतन संपादक रहे जसविंदर सिंह ने इसी अंक में प्रकाशित स्मृति लेख में उन्हें लोकजतन का स्तम्भ ठीक ही कहा है।


लोकजतन 20वें साल में दाखिल हो रहा है। इन उन्नीस सालों में उसने अपने दो बड़े स्तम्भ खोये हैं - पहले अपने संस्थापक सम्पादक शैलेन्द्र शैली का विछोह सहा, अब प्रदीप तिवारी नहीं रहे। मगर असली स्तंभ वे ही होते हैं जो खुद के सहारे के बिना खड़े रहना सिखा जाते हैं।


प्रदीप रहेंगे लोकजतन की यात्रा में हमेशा, जैसे शैली हैं।

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