कुछ लोगों को रतलाम के एक आरएसएस कार्यकर्ता द्वारा बीमा के 20 लाख रूपये हड़पने के लिए अपने ही पुराने नौकर की ह्त्या करके खुद को मरा हुआ और मरे हुए को हत्यारा साबित करने की भयानक कथा फि़ल्मी लग सकती है । एक अलग थलग घटना के रूप में इसे देखने पर ऐसा लगना अजीब भी नहीं लगता । मगर जब इसे एक प्रवृत्ति के रूप में देखते हैं तो यह समाज और विचार, राजनीति और संस्कार के लिहाज से अत्यंत चिंताजनक रुझान को उजागर करती है।
इस तरह की हत्याओं को सामान्यत: राजनीतिक चश्मों से नहीं देखा जाना चाहिये। मगर तब क्या किया जा सकता है जब घटना को आरएसएस कार्यकर्ताओं की योजनाबद्ध हत्याओं का सिलसिला बता कर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा खुद इसे राजनीतिक रंग दे दिया जाये।
खासतौर से तब जब इस 'ह्त्या' के कुछ घंटों के भीतर ही स्वयंभू 'टाइगर जि़ंदा है द्वितीय' शिवराज सिंह चौहान ने इसे संघ समर्थकों की हत्याओं की मुहिम बताकर सडकों पर उतरने, पुतले लटकाने और जलाने, हाहाकार मचाने की दुंदुभी बजा दी थी - और अब असली सच उजागर होने पर सुट्ट साधे बैठे हैं । अनावश्यक हवस का शिकार और बर्बर मौत के बाद भी 'हत्यारा' होने की तोहमत से घिरे मृतक युवा दलित मदन मालवीय के प्रति शोक या श्रद्धांजलि के दो शब्द तक नहीं है इस टाइगर के पास।
इतना निर्मम कैसे हो सकता है कोई ? हिम्मत पाटीदार जिसे व्यवहार में लाता है, पूर्व मुख्यमंत्री जिसे शब्दों में उच्चारते हैं वह एक 'संस्कारी' पाशविक मानसिकता है - मानसिकता जिसे ख़ास तरह की परवरिश से सायास संस्कारित किया जाता है। इस तरह यह एक प्रवृत्ति है जिसकी शिनाख्त और फिर उसका निदान जरूरी हो जाता है।
इक्का-दुक्का अपराधी व्यक्ति किसी भी विचार समूह या राजनीतिक दल में हो सकते हैं ; अपवाद की तरह । मगर जब एक के बाद एक, इधर से लेकर उधर तक निरंतर इसी तरह के नमूने नुमायाँ होते दिखें तो सोचना पड़ता है।
व्यापमं की अब तक अनसुलझी हत्यायें और आधा सैकड़ा संदिग्ध मौतें, जस्टिस लोया और उनसे जुड़ी मौतें, देवास के संघ प्रचारक की ह्त्या में लिप्त संदिग्धों की सूची, हर 15 दिन में किसी वरिष्ठ भाजपा या संघ नेता का 'अपनों से ही खतरा' के आर्तनाद से लेकर बड़े वाले संघी और जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष बलराज मधोक के लिखापढ़ी में लगाये गए आरोप तक एक ख़ास तरह की प्रवृत्ति की ओर इंगित करते हैं।
यही प्रवृत्ति है जो मरे हुए राष्ट्रीय नेताओं के प्रति घिनौने दुष्प्रचार में सामने आती है, आत्महत्या के लिए विवश होने वाले किसानों के बारे में और बलात्कार की शिकार हुई बच्चियों -स्त्रियों के संबंध में खिलखिलाकर दिए जाने वाले वासना में पगे लिजलिजे बयानों में दिखती है। मनोरोगिता के शब्दों में यह सिर्फ ''सैडिस्ट" (पीड़क) होना भर नहीं है। यह उससे भिन्न और आगे की,कहीं ज्यादा सांघातिक प्रवृत्ति है। इतनी अटूट निरंतरता अनायास तो नहीं ही हो सकती। पुराने यूनानी विचारक के शब्दों में कहें तो; हिंस्र विचार हिंसक मनोवृत्ति संस्कारित करते हैं - नरभक्षी व्यक्तित्व साकार करते है।
हवस, वासना, लोभ और लालसा में हत्यारा हो जाना भारतीय मानस नहीं है, मानवीय गुण तो कतई नहीं है। और जो अमानवीय और अभारतीय दोनों हैं उसका धिक्कार और तिरस्कार दोनों ही अत्यंत जरूरी हो जाता है ।
यूं तो काबिले गौर हमेशा ही रहे हैं बाबूलाल गौर!! खुद उनके मुताबिक़ गौर नाम उन्हें उनके स्कूल के शिक्षक ने दिया था क्योंकि वे हर चीज पर काफी गौर फरमाया करते थे। इन दिनों भाजपा उन्हें काफी गौर से देख रही है। वजह इत्ती सी है कि दिग्विजय सिंह ने उनसे कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में भोपाल से चुनाव लडऩे की पेशकश कर दी है; और, और यह कि चिरयुवा गौर साब ने अभी मना नहीं किया है। इस पेशकश की जानकारी प्रेस को देते समय गौर साब ने एक रूबाई की याद दिला दी;
'दौर हो जाये एक, अच्छा है/ और हो जाये एक, अच्छा है/ आरजू तो हजार हैं लेकिन / गौर हो जाये एक अच्छा है।'अब आरजूयें कोई जीती जागती शख्सियत तो है नहीं कि उन्हें साधा या बांधा जा सके । लिहाजा गौर साहब की आरजूयें दूसरी हम सुखन आरजूओं रदीफ और काफिया मिला रही है। सुर ताल साध रही है। कुछ के कानों के लिए मधुर तो कुछ के लिए कर्णकटु साबित हो रही है।
अभी तो लोकसभा चुनाव की अधिसूचना भी नहीं निकली। अभी तो बिसात भी नहीं सजी, तो क्या हुआ- गौर साहब के अरमान भी कहां निकले है।
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