मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनते ही कमलनाथ ने हर महीने की पहली तारीख को मंत्रालय बिल्डिंग में होने वाले वंदेमातरम गायन में पुलिस बैंड और परेड जोडऩे के साथ ही धर्मस्व, तीर्थाटन आदि पुराने कुछ विभागों को जोडक़र अध्यात्म मंत्रालय का गठन किया था। मगर वे अपने अध्यात्म विभाग को इतना सीरियसली ले लेंगे यह किसी ने भी नहीं सोचा था।
मगर नवगठित मध्यप्रदेश विधानसभा के पहले सत्र के पहले दो दिनों में कमलनाथ सरकार पूरी तरह अध्यात्म मोड में दिखी और सत्ता की निरंतरता को सनातन सत्य और मंदसौर गोलीकांड, हजारों करोड़ रुपयों के सिंहस्थ कुम्भ काण्ड, नर्मदा किनारे हुए 5 करोड़ पौधों के पौधरोपण घोटाले को आँखों का भ्रम और माया करार दे दिया। ब्रह्म सत्यं-जगत मिथ्या की और आत्मा सिर्फ शरीर बदलती है की तर्ज पर उनकी सरकार ने एक के बाद एक लगातार जो उलटासन लगाये हैं उनने सबको चौंका दिया।
सबसे पहले आया मंदसौर गोलीकाण्ड को जायज बताने वाला गृहमंत्री बाला बच्चन का शर्मनाक बयान। एक कांग्रेसी विधायक के प्रश्न के लिखित जवाब में उन्होंने बताया कि 6 जून 2017 में मंदसौर के किसानों पर जो गोली चली थी वह पुलिस ने अपनी आत्मरक्षा में चलाई गयी थी, कि उसके पहले प्रशासन ने एसडीएम की अनुमति बगैरा लेने की पूरी प्रक्रिया का निर्वाह किया था आदि आदि। नयी सरकार की यह उलटबांसी न सिर्फ इस निर्मम और एकदम अकारण गोलीकांड और उसके शिकार हुए मृतकों का अपमान थी, मंदसौर और पूरे देश में उसके खिलाफ उभरे जनाक्रोश का अनादर थी खुद कमलनाथ की पार्टी के चुनावी वचनपत्र और उनकी पार्टी के शीर्षस्थ नेता के मध्यप्रदेश की हर आमसभा में दोहराये गए ‘‘मन्दसौर के किसानों को इन्साफ देने’’ के सार्वजनिक वायदे का भी नकार थी।
सब जानते है कि मंदसौर गोलीकांड तत्कालीन कारपोरेट चाकर संघ संचालित भाजपा सरकार और उसके द्वारा संरक्षित तथा पाले पोसे गये ट्रिगर हैप्पी पुलिस अफसरों द्वारा, संघ से जुड़े एक स्थानीय अनाज व्यापारी के कहने पर किया गया एक नृशंस हत्याकांड था - बाला बच्चन की क्लीन चिट इस कड़वी सच्चाई को बदल नहीं सकती। सरकार के बदलाव के बाद भी राज की निरंतरता के मामले में गृह मंत्री अकेले नहीं थे । दो और मंत्रियों पीएचई मंत्री सुखदेव पांसे और नगरीय आवास मंत्री जयवर्धन सिंह ने भी अपने अपने जवाबों में सिंहस्थ कुम्भ की खरीदी में किसी भी तरह का घोटाला न होने की बात कह कर और वनमंत्री उमंग सिंगार ने नर्मदा किनारे हुए पौधरोपण में किसी भी घपले से इंकार करके पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के तीन बड़े कांडों की लीपापोती सी कर दी।
इन सब पर प्रदेश भर में हुई थुक्का फजीहत और खुद कांग्रेस में ही उठे विरोध के स्वरों के बाद अब मंत्रियों को ट्रेनिंग देने की बातें हो रही हैं। सवाल सिर्फ प्रशिक्षण के अभाव या ट्रेनिंग की जरूरत भर का नहीं है। सवाल है दिसंबर 2018 के जनादेश को ठीकठाक दृष्टि से पढऩे और उसके अनुरूप खुद को बदलने का। पुराने किये को अनकिया करने और उसके दोषियों को सजा दिलाने के साथ नया करने की संगति जनता की इच्छाओं के साथ बिठानी होती है।
इसके लिए नीति भी चाहिए, इच्छाशक्ति और साहस भी चाहिए; मुख्यमंत्री ने माकपा के प्रतिनिधिमण्डल द्वारा सौंपे गए ज्ञापन के बाद कहा था कि पुरानी सरकार के कुकर्म इतने सारे हैं कि उन पर अगर एक साथ किया तो बैकलैश की, प्रतिक्रिया की आशंका है। सब होगा पर धीमे धीमे। मगर इतना धीमे कि पहले निर्दोष तक घोषित कर दिये जायेंगे?
भ्रष्टों के बैकलैश से डरने के लिए सत्ता नहीं सौंपी गयी है। जनादेश पुराने और शरीकेजुर्म अधिकारियों द्वारा लिखकर दिए झूठे-सच को ज्यों का त्यों पढ़ देने का नहीं, बुद्धि और विवेक का इस्तेमाल करने का है। यह शाश्वत सत्य भी समझने का है कि अक्ल इस्तेमाल करने से खर्च नहीं होती बल्कि बढ़ती है। अफसरों के लिखे को पढऩे का यही आचरण जारी रखेंगे तो वह दिन भी आयेगा जब यही मंत्री विधानसभा में कहेंगे कि व्यापमं और डम्पर घोटाला तो हुआ ही नहीं था!!
नौकरशाही की प्रतिबद्धतायें ज्यों की त्यों हैं। ऊपर से नीचे तक मुख्य पदों पर जमी नौकरशाही कमोबेश पूरी तरह से वही है जिसे पंद्रह वर्षों तक भाजपा ने उपकृत किया, आरएसएस की शाखाओं में जाने की ‘‘अनुमति’’ देकर अपनी तरह ‘‘संस्कारित’’ किया, उन्हें भ्रष्टाचार और वसूली में सहायक बनाया, उनकी लूट को संरक्षण दिया। ये ‘‘संस्कारी अफसर’’ आज भी अपने पूर्ववर्ती आकाओं के हित साधने में लगे हुए है। प्रदेश भर में बन रहे ‘‘मंत्री भर बदलें हैं राज नहीं बदला’’ के भाव को बदलने के लिए साहस और जोखिम की दरकार होती है। वरना अध्यात्म की एक गति मोक्ष की भी होती है। इसी दौरान उजागर हुआ एक अन्य मसला सुप्रीम कोर्ट के आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय करने वाले उस फैसले का है जिसमें लाखों आदिवासी परिवारों को जंगल से खदेड़ देने का फरमान सुनाया गया है। मध्यप्रदेश इसका सबसे बुरा शिकार होने वाला है। इस तुगलकी फरमान के बाद सबसे अधिक आदिवासी और जंगलवासी इसी प्रदेश में खदेड़े जाने वाले हैं। यह फैसला अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के उस खतरनाक फैसले की खराब कार्बन कॉपी है, जिसे बदलने की शर्त यूपीए प्रथम की सरकार को दिए समर्थन में वामपंथी पार्टियों ने लगाई थी और नतीजे में आदिवासी एवं परम्परागत गैर आदिवासी वन निवासी वनाधिकार कानून बना था। आरोप यह है कि केंद्र और मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकारों ने ठीक तरह से पैरवी नहीं की। कहते हैं कि आखिरी सुनवाई में केंद्र सरकार का वकील तो हाजिर ही नहीं हुआ। छग और मप्र में दिसंबर में सरकारें बदलने के बाद भी सुप्रीमकोर्ट में न तो वकील बदले गये ना हीं रवैया सुधरा।
एक के बाद एक घटी इन औचक उलटबाँसियो ने भाजपा को सत्ता से हटाने वाली जनता को चम्बल की एक कहावत ‘‘सिर वही है, सिर्फ जूता बदला है’’ की याद दिला दी है। अध्यात्म मोड में गयी कमलनाथ सरकार को स्मरण रखना चाहिये कि जनता भ्रम और सत्ता सत्य नजर आने वाली इस स्थिति का अगला चरण संन्यास का होता है; क्योंकि, जैसा कि बांग्ला कवि चण्डीदास कह गए साबेर ऊपर मानुष सत्य - इस तरह अंतत: यह पब्लिक ही है जो मजबूरी में सहन कितना भी कर ले, माफ कभी नहीं करती।
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