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नर्मदा: क्या क्या डूब रहा है?

जब यह अंक पाठकों के हाथ में होगा तब तक सरदार सरोवर के गेट बंद हो चुके होंगे। धीरे धीरे पानी चढऩा शुरू होगा। इसके साथ ही गांव, घर, खेत, मंदिर, मस्जिद, हमारे बच्चों की शालायें, बुजुर्गों की चितायें सब एक एक कर डूबना शुरू हो जायेंगी। मगर सरकार क्या हमें ही डुबोना चाहती है? नहीं, संघी सरकार की नीयत संदेहों से भरी पड़ी है।


जब यह अंक पाठकों के हाथ में होगा तब तक सरदार सरोवर के गेट बंद हो चुके होंगे। धीरे धीरे पानी चढऩा शुरू होगा। इसके साथ ही गांव, घर, खेत, मंदिर, मस्जिद, हमारे बच्चों की शालायें, बुजुर्गों की चितायें सब एक एक कर डूबना शुरू हो जायेंगी। मगर सरकार क्या हमें ही डुबोना चाहती है? नहीं, संघी सरकार की नीयत संदेहों से भरी पड़ी है।


राजघाट से राष्ट्रपिता, कस्तूरबा गांधी और महादेव के अस्थि कलश को बुलडोजर के साथ रात के अंधेरे में प्रशासन ने वैसे ही नेस्तानाबूद किया है, जैसे 2002 के दंगों के दौरान अहमदाबाद में वली दक्खनी की दरगाह को नेस्तनाबूद किया था। यह राष्ट्रपिता के प्रति संघ और भाजपा की सोच है। जो सोच गौंडसे को पोषित करती है। गांधी जी हत्या करवाती है। आज उनके अस्थि कलशों को अपमानित कर रही है। प्रश्न यह है कि यदि इन्हें हटाया ही जाना था तो दिन के उजाले में भी यह काम किया जा सकता था। सम्मान के साथ अस्थि कलश निकाले जा सकते थे। राजकीय सम्मान के साथ उन्हें स्थानांत्रित किया जा सकता था। मगर रात के अंधेरे में, बुलडोजर के साथ, राजघाट पर बनी समाधि को इस तरह हटाया जाता है, जैसे कोई गैर कानूनी अतिक्रमण हटाया जा रहा हो।


इससे संघ परिवार के इरादे साफ होते हैं। केवल गांधी की हत्या करने भर से उनका काम नहीं चलता है। उनको राष्ट्र की परिभाषा बदलनी है। उन्हें हमारे साम्प्रदायिक सोहार्द से चिढ़ है।  हमारा धर्मनिरपेक्ष ढांचा उन्हें मंजूर नहीं। वे हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना चाहते हैं। वह संघीय ढांचे को तोडऩा चाहते हैं। हमारे आजादी के संघर्ष से उपजा हमारा राष्ट्र और अनेकता में एकता का हमारा सिद्वांत उन्हें खलता है। वे एक धर्म, एक भाषा, एक राष्ट्र की बात करते हैं। गांधी का दर्शन उनके मकसद में आड़े आता है। इसलिए वे गांधी को रास्ते से हटाना चाहते हैं। राजघाट से अस्थि कलश को अपमानित तरीके से हटाकर संघ परिवार और संघ नियंत्रित सरकार ने अपनी कुंठायें तृप्ति की है।


बात सिर्फ इतनी भर नहीं है। बात यह भी है कि यदि हिन्दू राष्ट्र बनाना है तो हमारे इतिहास और संस्कृति को भी बदलना होगा। यह काम सिर्फ दीनानाथ बत्रा की ऊलजलूल किताबों को पढ़ाने से पूरा नहीं हो सकता है। हमारी संस्कृति के विकास के सारे स्रोतों को नष्ट करना होगा। यह काम यदि सरदार सरोवर के बहाने हो जाये तो सोने पे सोहागा। सो किया जा रहा है। रोमिला थापर सहित हमारे आधा सैंकड़ा इतिहासकारों का कहना है कि नर्मदा घाटी में मानव सभ्यता के विकास के इतने अवशेष छिपे हुए हैं कि उनकी खोज करने के लिए कम से कम सौ साल तक नर्मदा का पानी अपने वेग में बहना चाहिये। बांध बनाने से  सिर्फ नदी के किनारे के खेत और गांव ही नहीं डूबेंगे, बल्कि यह मानव सभ्यता के यह अवशेष भी हमेशा हमेशा के लिए डूब जायेंगे।


यह बात समझने की है कि संस्कृति की ठेकेदार होने का दावा करने वाली सरकार ही मानव सभ्यता के इतने अमूल्य स्रोतों तों को डुबो देना चाहती है। क्योंकि भाजपा जानती है कि यह अवशेष हमारी साझा संस्कृति के अवशेष है। यह अवशेष संघ परिवार के खोखले राष्ट्रवाद और बुनियादविहीन संस्कृतिक क्रिया कलाप को बेनकाब कर सकते हैं। इसलिए भाजपा जानबूझ कर इन अवशेषों को नष्ट कर देना चाहती है। भले ही यह इतना बड़ा अपराध है कि आने वाले पीढिय़ां हमें कभी भी माफ नहीं करेंगी। मानव सभ्यता के इन अवशेषों को खोजना और आने वाली पीढिय़ों के लिए सुरक्षित रखना हर पीढ़ी की जिम्मेदारी होती है। वर्तमान पीढ़ी के पास पुरानी पीढिय़ों से अर्जित जो भी ज्ञान का भंडार है, उसे आने वाली पीढ़ी के हाथों तक सुरक्षित पहुंचाना चाहिये। मगर संघ और उसके द्वारा नियंत्रित सरकार जानती हैं कि यदि यह सुरक्षित रहेगा तो फिर हिन्दूराष्ट्र का सपना साकार नहीं होगा। इसलिए वह जानबूझ कर मानव सभ्यता के अवशेषों को नष्ट कर मानव सभ्यता के साथ सबसे बड़ा अपराध कर रही है। मगर यह अनजाने में नहीं, जानबूझ कर, सोची समझी साजिश के तहत हो रहा है।


राजघाट के सामने ही नर्मदा नदी के उस पार एक गांव है चिखलदा। यह गांव सबसे पहले डुब की चपेट में आने वाला है। मानव सभ्यता और कृषि के विकास में इस गांव का उल्लेख केवल मध्यप्रदेश या भारत तक ही सीमित नहीं है। इतिहासकारों ने साबित कर दिया है कि एशिया का सबसे पहला किसान इस गांव में पैदा हुआ था। सही मायनों में यह गांव पूरे एशिया का कृषि गुरू है। अपने पेट का आग बुझाते समय, रोटी का निवाला तोड़ते समय, निवाले को मुंह में रखते समय हमारे जेहन में चिखलदा और चिखलदा गांव का वो किसान होना चाहिये, जिसने सदियों पहले खेती की शुरूआत कर हमारे लिए रोटी की व्यवस्था की थी। भारत के अलावा अगर यह गांव किसी और देश में होता, जो देश अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता का सम्मान और सुरक्षा करने वाला होता तो क्या वह चिखलदा को ऐसे ही डुबो देता, जैसे कि हम डुबो रहे हैं? यह काम भाजपा और संघी सरकार कर रही है।


भाजपा की इन हरकतों से साफ है कि उन्हें तो हमारी संस्कृति और मानव सभ्यता के इतिहास से ज्यादा जरूरी कारपोरेट घरानों का मुनाफा लगता है। मुनाफे की हवश राष्ट्रपिता, राष्ट्रीय इतिहास और मानव सभ्यता के अवशेषों को नष्ट कर ढाई लाख नागरिकों और करीब चालीस हजार से अधिक परिवारों से उनका घर, जमीन,खेत खलिहान छीन लेना चाहती है। और बदलें में देना चाहती हैं अंधकारमय भविष्य। अब तो जमीन के बदले जमीन भी नहीं। पुनर्वास कालोनियां पशु तबेलों से भी बुरी हालत में हैं। घर बनाने के लिए सिर्फ 1 लाख 20 हजार रुपये। न रोटी न रोजगार। न घर न द्वार। न खेत न खलिहान।


जब कहा जाता है कि ढाई लाख लोगों को बेघर करने वाली सरकार की संवेदनहीनता शून्य हो गई है तो शायद यह सही नहीं है। यह फासीवादी सोच का नमूना है। फासीवाद राष्ट्रीय प्रतीकों की दुहाई देता है। मगर कारपोरेट मुनाफे की खातिर मानव मूल्यों का इतनी ही क्रूर तानाशाही के साथ कुचलता है। फासीवादी सोच वाला मुख्यमंत्री नर्मदा सेवा यात्रा तो करता है, मगर पिछले चौदह साल में नर्मदा के डूब प्रभावित किसानों से चर्चा करने के लिए उसके पास समय नहीं है। क्योंकि वह जानता है कि उन्हें सिर्फ हटाना है।


आईये नर्मदा बचाओ आंदोलन का साथ दीजिये। यह लड़ाई सिर्फ नर्मदा बचाने या पुर्नावास कराने की लड़ाई नहीं है। फासीवादी सोच से टकराने और उसको बेनकाब करने की लड़ाई भी है। मानव सभ्यता को बचाने की लड़ाई भी है।

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