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सीता की अग्निपरीक्षा ‘स्थल’ पर मंदिर - मनु की बहाली की शातिर चतुराई !!

समूची रामकथा में सीता की अग्निपरीक्षा और शम्बूक की ह्त्या दो ऐसे अप्रिय प्रसंग है जिनके खास निहितार्थ और स्पष्ट सन्देश हैं।

मौजूदा समय की ख़ास बात इसका त्रासद-प्रहसन, ट्रेजी-कॉमेडी का स्थायी भाव है। आप हास्यास्पदता और फूहड़पन के जितने न्यूनतम पैमाने तय करेंगे हुक्मरान उससे भी कहीं ज्यादा नीचे डले नजर आएंगे। ताजातरीन मामला श्रीलंका में सीता के नाम पर मंदिर बनाने का है।  इस सीता-मंदिर पर कोई 12 से 14 करोड़ रुपयों की लागत आने वाली है और एक सवा साल में बनकर तैयार हो जाने का अनुमान है। भाजपा की मध्यप्रदेश सरकार ने 2010 में इसका एलान किया था - एक करोड़ रूपये शुरुआती निवेश के लिए दिए थे। मगर काम आगे नहीं बढ़ पाया एक तो इसलिए कि वहां के इनके स्थानीय प्रतिरूपों ने उसी मंदिर के साथ रावण का मंदिर बनाने की शर्त को लेकर हल्ला-गुल्ला शुरू कर दिया दूसरे इसलिए कि जिन महंत जी को यह जिम्मा सौंपा गया था वे श्रीलंका में अवैध तरीके से पेड़ काटने के जुर्म में एक मुकद्दमे में धर लिए गए। सो मंदिर बनना रुक गया। नयी सरकार के मंत्री ने अब इसे बनवाने के लिए खम ठोंकी है।  उनका दावा है कि शिवराज सरकार ने सिवा घोषणा के कुछ नहीं किया था। वे भाजपा की तरह खाली पीली घोषणाबाजी नहीं करेंगे, बनवा कर ही मानेंगे। इसके लिए अधिकारियों की टीम जल्दी ही श्रीलंका जाकर पता लगाएगी। कमलनाथ सरकार के इस ‘मंदिर वहीँ बनाएंगे’ एलान से भड़भड़ाये पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने अफसरों की टीम भेजे जाने को ‘हिन्दुओं का अपमान’ बताया है और दावा किया है कि ‘सीता की जिस किडनेपिंग  के बारे में दुनिया जानती है, उसकी जानकारी जुटाने के लिए टीम भेजने की क्या जरूरत है।’  

सवाल सिर्फ मंदिर भर का नहीं है। असली सवाल है उसके लिए चुनी गयी जगह का; यह श्रीलंका के मध्यप्रांत में नुवारा एलिया नामक शहर के नजदीक दिवूरमपोला का वह स्थान है जहां - कहा जाता है कि - सीता की अग्निपरीक्षा ली गयी थी।  समूची रामकथा में सीता की अग्निपरीक्षा और शम्बूक की ह्त्या दो ऐसे अप्रिय प्रसंग है जिनके खास निहितार्थ और स्पष्ट सन्देश हैं। ये तुलसी की कुख्यात चौपाई ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ से भी ज्यादा दूरगामी, गहरे और सांघातिक ऐसे दृष्टांत है जो एक विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था को धर्मसम्मत और विधिमान्य ठहराते हैं। जिसमे स्त्रियों और शूद्रों के प्रति बर्बरता का महाख्यान है। इस पौराणिक प्रसंग को मंदिर बनाकर प्रामाणिकता प्रदान करना, एक तरह से उस कृत्य और समझ की पुष्टि करना, उसे गौरवान्वित करना और सही ठहराना है। आज सीता की अग्निपरीक्षा के स्थल को पूजनीयता प्रदान की जा रही है, कल शम्बूक की ह्त्या के स्थान पर भी ऐसा ही कोई निर्माण कर उसे भी गरिमामय भव्यता प्रदान कर दी जाएगी। दुनिया अपने अतीत के काले अध्यायों से छुटकारा पाने की कोशिश कर रही है। एक के बाद दूसरे देश इतिहास में उनके पूर्वजों के हाथों हुयी जघन्यताओं के लिए कहीं खेद जता रहे हैं तो कहीं माफी मांग रहे हैं और इधर जम्बूद्वीपे भारत खण्डे में उन्हें बिना किसी ग्लानिभाव के महिमामण्डित किये जाने की होड़ सी लगी है। 

यह विडम्बना नहीं शातिर चतुराई है। सोची विचारी धूर्तता है। प्रतीकों के चयन का भी एक ख़ास अजेंडा होता है। केरल में महाबली के बरक्स वामन की प्राणप्रतिष्ठा हो या गुडग़ांव का गुरुग्राम बनाया जाना, भरी संसद में महिषासुर का मानमर्दन हो या सरकारों के शपथ ग्रहण समारोहों में धर्मगुरुओं के अखाड़ों का पंक्तिबद्ध आगमन और शंखो का फूँका जाना - सब कुछ एक अजेंडे की पूर्वलिखित पटकथा का हिस्सा है। यह अजेंडा भारत की उस कथित महान सामाजिक प्रणाली की बहाली का दम्भ भरता है  जिसमें वर्णाश्रम संविधान होगा, मनुस्मृति आईपीसी और गौतम स्मृति सीआरपीसी। एक ऐसी व्यवस्था जिसमे सामाजिक असमानता और उसके आधार पर उंच-नीच के श्रेणीक्रम को धर्माधारित बाध्यकारी अनुल्लंघनीय निर्देश करार दे दिया जाएगा। यह उस अजेंडे का विधिपूर्वक विस्तार और संकल्पबद्ध व्यवहार है जो भारत के उस संविधान के मर्म को नकारता है जिसने अपने बुनियादी अधिकारों में सारी असमानताओं को समाप्त कर स्थापित किया था कि राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध  धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। ‘ऐसा करने को दंडनीय अपराध’ भी बनाया था। भले किताब में ही दर्ज था किन्तु ऐतिहासिक कदम था। इस एजेंडे का लक्ष्य कोई दो सौ साल तक चले सामाजिक सुधार आन्दोलनों की उपलब्धियों, सामाजिक चेतना के परिष्कार और संविधान के किये का अनकिया जाना है। 

इस उलटी यात्रा की संभावना और ‘संविधान के गलत हाथों में पहुँच जाने’ के विस्फोटक परिणामो की पूर्व चेतावनी संविधान सभा में ही दी जा चुकी थी। डॉ. बी आर अम्बेडकर ने कहा था कि  ‘हमने राजनीतिक लोकतंत्र तो कायम कर लिया - मगर हमारा समाज लोकतांत्रिक नहीं है। भारतीय सामाजिक ढाँचे में दो बातें अनुपस्थित हैं, एक स्वतन्त्रता (लिबर्टी), दूसरी भाईचारा-बहनापा (फे टर्निटी)’ उन्होंने चेताया था कि ‘यदि यथाशीघ्र सामाजिक लोकतंत्र कायम नहीं हुआ तो राजनीतिक लोकतंत्र भी सलामत नहीं रहेगा।’  इस लिहाज से सीता की अग्निपरीक्षा के स्थल को पूजनीयता प्रदान करने की कोशिश सभ्य समाज और संविधान को कूपमंडूकता और पुरातनपंथ की ज्वाला में भस्म कर देने की तरह का काम है।

ध्यप्रदेश सरकार सिर्फ सीता की अग्निपरीक्षा स्थल पर मंदिर है नहीं बनाएगी।  इस बजट में उसने चित्रकूट से अमरकंटक तक के ‘राम वन पथ गमन’ के रास्ते के लिए भी 600 करोड़ रूपये का प्रोजेक्ट मंजूर किया है। इसमें बीच बीच में वातानुकूलित धर्मशालाओं के निर्माण के प्रावधान हैं।  इसके लिए फिलहाल 22 करोड़ रूपये सरकारी खजाने से दे दिए गए हैं।  बाकी ‘बनाओ-चलाओ-कमाओ’ (बी ओ टी) योजना के तहत निजी कंपनियों से करवाया जाना प्रस्तावित है। बात यहीं तक भी नहीं रुक रही। बजट में 11 करोड़ रूपये प्रति लागत वाली 300 एयर कंडीशन्ड गौ- शालायें बनाये जाने की 3300 करोड़ रुपयों की महत्वाकांक्षी योजना के लिए निविदाएं बुलाएं जाने का भी आव्हान किया गया है।  यह उस प्रदेश में किया जा रहा है जहां आर्थिक संकट और पैसे की कमी का बहाना बनाकर इसी महीने से आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं के मानदेय में राज्य के अंशदान में सीधे 1500 और 750 रूपये महीने की कटौती लागू कर दी गयी है। जहां खेती किसानी का संकट संभलते नहीं संभाल रहा - कर्जमाफी की घोषणा के बाद से 77 किसान आत्महत्या कर चुके हैं।  कर्मचारियों की तनख्वाहें बांटने के लाले पड़े हों। 

राजनीति में दक्षिणोन्मुखी रुझान सामाजिक चेतना में कूपमण्डूक और पोंगापंथी विकार के बढऩे की संगति के साथ आता है। यह ऐसा माहौल पैदा करता है जो इस बीच निष्क्रिय और सुप्त पड़ गए विषाणुओं और बैक्टीरिया को जगाकर महामारी मचा देने की सामथ्र्य रखता है। दुनिया में कई जगह ऐसा हुआ है।  हमारे यहां हो रहा है।  बरेली की युवती साक्षी के प्रेम विवाह के प्रसंग को लेकर उठा कुत्सा का कोहराम इसी वायरस के जाग जाने का संकेत है।  80 प्रतिशत मांसाहारी आबादी वाले सर्वाधिक कुपोषित प्रदेशों में से एक छत्तीसगढ़ में मध्यान्ह भोजन और आंगनबाड़ी केंद्रों में पोषणाहार में, जिन्हे असुविधा नहीं है उन्हें,  अण्डा दिए जाने के खिलाफ भाजपा का सडक़ रोको आंदोलन इसी पाखण्डी मूर्खता का विस्तार है।  सामाजिक कुरीतियां और ऊंच नीच का मनोरोग कथित संस्कारों के डी एन ए और सोच के क्रोमोजोम्स में है। आजादी के पहले और बाद की सारी कोशिशें इसे सुधारने की थी।  मंशा तो निर्मूलन की थी, मगर यहां तो जो थोड़ा बहुत हुआ उसे भी पीछे लौटाने की मुहिम सी छेड़ दी गयी है। एक जमाने में यह आरएसएस और हिन्दू महासभा जैसी ताकतों का लक्ष्य हुआ करता था।  

हाल के दौर में, किसी कारगर प्रतिरोध या काउंटर नैरेटिव के अभाव के चलते इसकी संक्रामकता इतनी बढ़ी है कि कथित धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और लोकतंत्र के प्रति प्रतिबध्द  होने का दावा करने वाली कांग्रेस और कुछ स्वयंभू सामाजिक जनवादी पार्टियां भी सारी आड़ और हया को त्याग कर ‘तू डाल डाल - मैं पात पात’ खेलने के लिए कूद पड़ी है। 

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