मध्यप्रदेश, कारपोरेट घरानों और भूमाफियाओं की चारागाह बन गया है। प्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार चंद औद्योगिक घरानों और भूमाफियाओं के हितों को संरक्षण देने के लिए प्रदेश के किसानों, ग्रामीण गरीबों, विशेषकर दलितों और आदिवासिायों को उनकी पीढिय़ों से काबिज जमीनों से बेदखल किया जा रहा है।
सरदार सरोवर की ऊंचाई बढ़ाकर और बांध के गेट बंद कर नर्मदा घाटी के चालीस हजार परिवारों के पुनर्वास और मुआवजे की व्यवस्था किए बगैर सरकार ने इन परिवारों के भविष्य को अंधकारमय बना दिया है।
भाजपा सरकार प्रदेश के औद्योगिक विकास की बात करती है, जबकि कृषि विकास और जनता की क्रयशक्ति में वृद्धि से ही वह आधार तैयार होता है,जिस पर कृषि विकास संभव है। इसके लिए एक ओर भूमि सुधार कर भूमिहीनों ओर गरीबों के बीच भूमि का वितरण जरूरी है। दूसरा कृषि में सरकारी निवेश बढ़ाकर किसानों को सब्सिडी देकर सस्ते में खाद बीज,कीटनाशक दवायें उपलब्ध कराने और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप उनकी लागत का डेढ़ गुना दाम देकर खेती को लाभकारी बनाना बुनियादी शर्त है।
मगर भाजपा की केन्द्र और राज्य सरकार की नीतियों से कृषि संकट बढ़ा है। आत्महत्या करने वाले राज्यों में मध्यप्रदेश का स्थान पांचवें से बढक़र तीसरा हो गया है। मंडियों में किसानों को उनकी फसल का दाम नहीं मिल रहा है। सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य पर भी किसानों की फसल को नहीं खरीदा जा रहा है। इस संकट का समाधान करने की बजाय प्रदेश सरकार औद्योगिक विकास के नाम पर किसानों और आदिवासियों को उनकी जमीनों से बेदखल कर कारपोरेट घरानों और भूमाफियाओं को जमीनें सौंप रही है।
2006 से शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने के बाद से प्रदेश में विभिन्न औद्योगिक सम्मेलनों और इनवेस्टर्स मीट के बहाने सरकार ने अभी तक 1348 समझौतों पर हस्ताक्षर किये हैं। सरकार के अपने रिकार्ड के अनुसार ही अभी तक 4.50 लाख हैक्टेयर भूमि उद्योगों के लिए अधिग्रहण की गई है। जिन कारपोरेट घरानों से सरकार ने अधिकांश अनुबंध कियें हैं उनमें जैन ग्रुप, रिलांयस, अडानी,एस्सार, टाटा, मोजर बेयर, लांस, जेपी गु्रप आदि प्रमुख हैं। सीधी, सिंगरौली, अनूपपुर, बालाघाट, छिंदवाड़ा,सतना, सिवनी,इंदौर, खंडवा, धार सहित प्रदेश में बड़े पैमाने पर आदिवासियों और किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है।
मुख्यमंत्री ने निवेशकों को आकर्षित करने के लिए ढाई करोड़ रुपये से ज्यादा विदेशी दौरों पर व्यय किया है। इंदौर में प्रधानमंत्री द्वारा उदघाटित इनवेस्टर्स मीट में तो मुख्यमंत्री ने कारपोरेट घरानों को खुश करने के लिए यहां तक कह दिया था कि वे जिस जमीन की ओर उंगली करेंगे, वहीं उन्हें दे दी जायेगी।
जमीनी स्तर पर इसका परिणाम यह हो रहा है कि पांचवी अनुसूची का उल्लंघन हो रहा है। आदिवासी क्षेत्रों में ग्रामसभाओं की बिना अनुमति के भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है। उस क्षेत्र के आदिवासियों को वनभूमि के पट्टे के दावे ही स्वीकार नहीं किये जा रहे हैं, ताकि उन्हें मुआवजा न देना पड़े। जमीन अधिग्रहण में भूमि अधिग्रहण कानून 2013 का भी उल्लघ्ंान किया जा रहा है, जिसके तहत भूमि अधिग्रहण से पूर्व 80 प्रतिशत किसानों की सहमति जरूरी है।
राष्ट्रीय पार्क और अभ्यारण्य भी आदिवासियों और गरीबों की बेदखली के बहाने बने हुए हैं। अभी तक राष्ट्रीय पार्कों और अभ्यारण्य क्षेत्र मे पडऩे वाले 94 गांवों के 5460 परिवारों को बेदखल किया जा चुका है,जबकि 109 गांवों के 10,438 परिवारों को आने वाले दिनों में बेदखल करने की योजना है।
वनाधिकार कानून पर अमल भी मध्यप्रदेश में मजाक बन कर रह गया है। सरकार दावा कर रही है कि प्रदेश में शतप्रतिशत दावेदारों को वनभूमि के पट्टे दे दिये गए हैं, जबकि राज्य सरकार आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि के पट्टे देना ही नहीं चाहती है। ताजा जानकारी के अनुसार ग्राम सभाओं और विकास खंड स्तरीय समिति ने 6,14,662 दावेदारों को वनभूमि का पट्टा देने का अनुमोदन किया था, जिला स्तरीय समिति ने उनमें से 3,64,634 दावों को निरस्त कर सिर्फ 2,50,028 दावेदारों का ही अनुमोदन किया है। यह स्थिति तब है, जब जिला स्तरीय समिति सिर्फ अपीलीय समिति है, जब किसी दावेदार को ग्रामसभा या विकास स्तरीय समिति से न्याय नहीं मिलता है तो आदिवासी उक्त भूमि पर काबिज रहते हुए जिला स्तरीय समिति में अपील कर सकता है।
दलित एजेंडे को तो भाजपा सरकार के आने के बाद भुला ही दिया गया है। सरकारी अंाकड़ों के अनुसार प्रदेश में जब दलित एजेंडा लागू किया गया था, तब प्रदेश मे 15.85 लाख हैक्टेयर यानि कि 39.625 लाख एकड़ चरनोई भूमि था, जिसका पांच प्रतिशत छोड़ कर बाकी भूमि का वितरण दलित आदिवासियों में किया जाना था। मगर कांग्रेस सरकार की ओर से केवल 3 लाख 44 हजार 329 दलित आदिवासी परिवारों को केवल 6 लाख 98 हजार 576.88 एकड़ भूमि का ही वितरण किया गया। इसमें भी बड़ी संख्या में पट्टे मिलने के बाद भी दलित आदिवासी उस भूमि पर काबिज नहीं हो पाये हैं। भाजपा ने तो दलित एजेंडे का विरोध यह कह कर किया था कि इससे गाय के चरने के लिए भूमि कम हो जायेगी। अर्जुन सिंह के जमाने से ही लाखों दलित आदिवासी पट्टा लेकर घूम रहे हैं,मगर आज तक उन्हें भूमि का कब्जा नहीं मिला है।
प्रदेश सरकार जिस प्रकार किसानों को विस्थापित करती जा रही है, उसका सबसे ज्यादा असर दलित आदिवासियों पर होता है। मध्यप्रदेश में 93-94 में 3.85लाख दलित परिवार भूमिहीन थे, जबकि 2004-5 में भूमिहीन दलित परिवारों की संख्या बढक़र 4.64 लाख हो गई है। विस्थापन के दुष्प्रभावों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि बच्चों पर इनका सबसे अधिक असर पड़ता है। विस्थापन के बाद 20.40 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोडऩे पर मजबूर होते हैं। 26.68 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं और 24.81 प्रतिशत बच्चे बीमारी के शिकंजे में फंस जाते हैं।
इन परिस्थितियों में 13 सितंबर को भोपाल में हुआ विस्थापन विरोधी सम्मेलन, विस्थापन के खिलाफ प्रदेशव्यापी आंदोलन तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा।
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