Sidebar Menu

न्याय जैसी योजनाओं का महत्व

नवउदारवादी पूंजीवाद के तर्क और गरीबों की माली हालत में सुधार के ऐसे किसी कार्यक्रम के बीच के अंतर्विरोध से बेखबर, गरीबों की हालत में ऐसे सुधार की पैरवी करती हैं, प्रगतिशील ताकतों के लिए उतना ही अच्छा है।  

जिन ताकतों का नजरिया नवउदारवाद से आगे नहीं जाता है, वे भी अगर गरीबों को राहत दिलाने के कदमों का वादा करती हैं, तो वामपंथ को इसका स्वागत करना चाहिए। आखिरकार, नवउदारवाद के तर्क के चलते, या तो इन ताकतों को इन वादों से पीछे हटना होगा, जिसे वामपंथ रेखांकित कर सकता है तथा उसके खिलाफ लड़ सकता है या फिर यह नवउदारवादी व्यवस्था को लांघने की एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के साथ जुड़ सकता है, वामपंथ जिसे उन्मुक्त करने का उपकरण बन सकता है। 

पहले मोदी सरकार ने, जाहिर है कि आने वाले चुनाव को ध्यान में रखते हुए, अपने आखिरी बजट में किसान परिवारों एक टार्गेटेड ग्रुप के लिए, हर साल  6 हजार रु का हस्तांतरण करने की एक योजना का एलान किया। इस योजना के तहत करीब 12 करोड़ छोटे किसानों के खातों में यह राशि दी जानी थी। 

हस्तांतरण योजनाए
लेकिन, एक तो प्रस्तावित राशि बहुत कम थी। इसके ऊपर से इस योजना के पीछे नीयत भी गंभीर नहीं थी। हां! इसके जरिए चुनाव के सीजन में अपने चहेतों के हाथ में कुछ नकदी पहुंचाए जाने की हद तक गंभीरता जरूर हो सकती है। अचरज नहीं कि मोदी ने खुद अपने चुनावी भाषणों मेें इस योजना का बखान करने से खुद को दूर ही रखा है। इसके बजाए भाजपा ने वोट बटोरने के लिए सांप्रदायिक भावनाएं भडक़ाने की अपनी जानी-पहचानी रीति का ही सहारा लिया है। प्रज्ञा ठाकुर को उम्मीदवार बनाया जाना, इसी का हिस्सा है।

चुनाव की घोषणा के बाद कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणापत्र में इससे कहीं ज्यादा महत्वाकांक्षी योजना पेश की है। इसे न्याय का नाम दिया गया है। इस योजना का लक्ष्य, आय के लिहाज से सबसे निचले पायदान पर आने वाले, कुल आबादी में से चौथाई परिवारों को, 6,000 रुपये महीना देना है। इसका लाभ पाने वाले परिवारों की संख्या करीब 5 करोड़ बैठेगी। इस योजना पर हर साल करीब 3.6 लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है, जबकि मोदी सरकार की योजना पर सिर्फ 72,000 करोड़ रुपये सालाना खर्च होने का ही अनुमान था। हालांकि, इस योजना के लिए वित्त व्यवस्था के संबंध में या इसके परिपालन के संबंध में अभी कोई विवरण सामने नहीं आए हैं, फिर भी न्याय योजना कहीं ज्यादा गंभीर लगती है।

न्याय जैसी योजनाओं की समस्याएँ
वैसे तो इस देश में गरीबों को सहायता देने की किसी भी योजना का स्वागत ही किया जाना चाहिए। फिर भी, न्याय योजना के साथ दो स्वत:स्पष्टï समस्याएं जुड़ी हुई हैं। पहली तो यही कि यह एक नकदी हस्तांतरण योजना है। इसलिए, अगर यह भी मान लिया जाए कि ये नकदी हस्तांतरण, पहले से चल रहे कल्याणकारी कार्यक्रमों की जगह नहीं ले रहे होंगे बल्कि वास्तव में इन कल्याणकारी कार्यक्रमों के पूरक की तरह काम कर रहे होंगे, तब भी यह योजना बुनियादी तौर पर इसी तरह काम करेगी कि थोड़ा सा पैसा देकर सरकार, गरीबों के प्रति अपना दायित्व पूरा हो गया मान लेगी और शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसी सार्वभौम आवश्यक सेवाएं मुहैया करने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेगी। इसलिए, इस तरह के हालात में ये नकदी हस्तांतरण, निजी क्षेत्र के ऐसी सेवाएं मुहैया कराने वालों की जेबें भरने के ही काम आएंगे। वे इन सेवाओं के लिए वसूल किए जाने वाले दाम बढ़ा देंगे।

दूसरी समस्या यह है कि यह एक टार्गेटेड योजना होगी। हरेक टार्गेटेड योजना के साथ, पात्रता के बावजूद कुछ लोगों के छूट जाने की समस्या लगी रहती है। इसके ऊपर से इस मामले में टार्गेटिंग बहुत ही मनमाने तरीके से की जा रही होगी। मिसाल के तौर पर एक आय सीमा से नीचे के परिवारों को तो 6 हजार रुपये महीना की सहायता मिलेगी, लेकिन इस आय सीमा से सिर्फ एक रुपया ज्यादा आय वालों को भी एक पैसा भी नहीं मिलेगा। यह गरीबों के बीच अनावश्यक टकराव पैदा करने का काम करेगा।

इसके अलावा इस तरह की कोई भी टार्गेटेड योजना, व्यावहारिक मानों में शासन की ओर से खैरात बांटे जाने का ही रूप ले लेती है। इस रिश्ते में एक ओर दाता होता है और दूसरी ओर याचक। यह अपनी बुनियाद से ही अलोकतांत्रिक है। वास्तव में यह हर नागरिक का सार्वभौम अधिकार होना चाहिए कि शासन द्वारा उसे कुछ माल तथा सेवाएं मुहैया करायी जाएं। उसकी जगह पर इसे दया या कृपा बनाया जा रहा होगा। प्रसंगवश बता दें कि कुछ खास सार्वभौम अधिकार सुनिश्चित किए जाने पर, गरीबों के बीच उस तरह के टकराव के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं रहेगी, जैसा टकराव टार्गेटिंग से पैदा होता है।

नवउदारवाद का संकट और हस्तांतरण योजनाएँ
बहरहाल, इस तरह की योजनाओं के प्रति अपने नजरिए की बात हम अगर एक तरफ रख दें, तब भी यह सवाल तो सामने आता ही है कि अचानक, इस तरह के हस्तांतरणों की जरूरत क्यों पड़ गयी? मोदी ने 2014 का चुनाव तो ‘‘विकास’’ के नारे पर जीता था। उससे पहले भी हमेशा जीडीपी की वृद्घि दर की ही बात होती थी। भारत के एक ‘आर्थिक महाशक्ति’ बनने की, ‘इंडिया शाइनिंग’ की और इसी तरह की चीजों की बातें होती थीं। गरीबों के पक्ष में हस्तांतरणों की बात तो शायद ही कभी सुनाई दी हो। यूपीए-प्रथम की सरकार जो महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना लायी थी, वह भी 2004 के चुनाव में प्रचार का कोई प्रमुख मुद्दा नहीं बनी थी। दूसरे शब्दों में अभी हाल तक यह मानकर चला जाता रहा था कि जीडीपी में ऊंची वृद्घि दर लायी जा सकती है और उससे खुद ब खुद सब को लाभ मिल जाएगा। साफ है कि अब मतदाताओं को इस सपने पर विश्वास नहीं रह गया है।

इसका अर्थ संक्षेप में यह है कि नकदी हस्तांतरणों की ये योजनाएं नवउदारवादी पूंजीवाद के संकट को ही दिखाती हैं। संकट यह है कि नवउदारवाद की इस विचारधारा पर से जनता का विश्वास उठ गया है कि यह व्यवस्था उत्पादक शक्तियों का ऐसी तेज रफ्तार से विकास कर सकती है, जिसका लाभ सभी को मिलेगा।

इसी सचाई का पता भाजपा के घोर सांप्रदायिक प्रचार का सहारा लेने भी चलता है। यह इसका सबूत है कि ‘विकास’ का उसका पिछली बार का नारा, अब जनता को खोखला लगने लगा है और इसलिए इस नारे को अब और चुनाव में नहीं दुहराया जा सकता है। आम जनता अपने अनुभव से यह जान चुकी है कि ‘विकास’ के नारे से आज के हालात में, जब नवउदारवादी पूंजीवाद संकट में फंसा हुआ है, उसको रत्तीभर राहत मिलने वाली नहीं है।

नवउदारवाद के संकट से निपटने के दो रास्ते
इसे भिन्न तरीके से कहें तो यह भी कह सकते हैं कि नवउदारवादी पूंजीवाद के संकट ने हमारे देश में, उसके प्रति प्रतिबद्घ एक पूंजीवादी राजनीतिक पार्टी को, अपने लिए समर्थन जुटाने के लिए, घोर सांप्रदायिकता का सहारा लेने के रास्ते पर भेजा है। उसी संकट ने एक अन्य पंूजीवादी राजनीतिक पार्टी को, जो नवउदारवाद के ही प्रति वचनबद्घ तो है, लेकिन अपने दृष्टिïकोण में मोटे तौर पर धर्मनिरपेक्ष बनी रही है, इसके रास्ते पर भेजा है कि नवउदारवादी यात्रापथ में सुधार कर, उसे एक ‘मानवीय चेहरा’ देने का वादा करे और उसके लिए, सबसे नीचे की चौथाई आबादी के पक्ष में, अच्छे-खासे नकदी हस्तांतरण करना मंजूर करे।

बेशक, जहां तक इसके लिए जरूरी संसाधनों का सवाल है, इस तरह के हस्तांतरण पूरी तरह से व्यावहारिक हैं। ये हस्तांतरण सकल घरेलू उत्पाद के 2 फीसद से जरा से ही ज्याद बैठेंगे। यह दूसरी बात है कि नवउदारवादी पूंजीवाद का तर्क, ऐसे सभी हस्तांतरणों के आड़े आता है। जीडीपी का यह 2 फीसद या तो पूंजीपतियों पर या कहीं सामान्य रूप से समाज के संपन्नतर तबकों पर कर लगाने के जरिए जुटाया जा सकता है ( जाहिर है कि ऐसे हस्तांतरणों के लिए मेहनतकश जनता पर कर बढ़ाना तो गरीबों के बीच गरीबी के वितरण में ही बदलाव करने का काम करेगा न कि गरीबी दूर करने का) या फिर इसकी भरपाई राजकोषीय घाटा बढ़ाने के जरिए की जा सकती या इन दोनों ही उपायों के किसी योग के जरिए। लेकिन, संसाधन जुटाने के ये दोनों ही तरीके, वैश्वीकृत वित्त के लिए कुफ्र हैं। इसीलिए, ऐसे हस्तांतरण करना चाहने वाली किसी भी सरकार को, या नवउदारवादी व्यवस्था में ही कुछ काट-छांट करनी पड़ेगी और ऐसी काट-छांट अपनी ही द्वंद्वात्मकता को उन्मुक्त करेगी। या फिर उसे पहले से चल रही कल्याणकारी योजनाओं से ही संसाधनों को इधर मोडऩा होगा, तो इस हस्तांतरण के उद्देश्य को ही विफल कर देगा।

वामपंथ का रुख क्या हो?
कुछ वामपंथी हलकों में यह तर्क देने का रुझान पाया जाता है कि नवउदारवादी व्यवस्था, खुद को बनाए रखने के लिए, गरीबों को एक हद तक राहत मुहैया करा सकती है और वास्तव में सामान्य रूप से ऐसा राहत मुहैया कराती भी है। इसलिए, नकदी हस्तांतरण की ऐसी योजनाओं का और इससे भी सामान्य रूप से कल्याणकारी खर्चों का स्वागत करना तो, सीधे-सीधे ‘संशोधनवाद’ ही कहा जाएगा। आपके एक ऐसी चीज का स्वागत करने का क्या मतलब है, जो वर्तमान व्यवस्था की वहनीयता से पूरी तरह से मेल खाती है।

विडंबना यह है कि यह विचार, नवउदारवाद के पैरोकारों के विचार से पूरी तरह से मेल खाता है। वे भी तो यही कहते हैं कि नवउदारवादी व्यवस्था इतनी लचीली है कि वह गरीबों को राहत मुहैया करा सकती है और इस व्यवस्था का अपना अंतर्निहित तर्क तो इस तरह की राहत में कोई बाधा डालता ही नहीं है।

वास्तव में, जब ‘ट्रिकल डाउन’ (बूंद-बूंद नीचे की ओर रिसाव) की धारणा बदनाम हो गयी, ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में, जीडीपी में वृद्घि पर ही ध्यान लगाए रखने को, जिसे कि नवउदारवादी व्यवस्था आगे बढ़ाती है, उचित ठहराने के लिए नया तर्क यही दिया जा रहा था कि जीडीपी में वृद्घि की दर ऊंची होगी तो, सरकार के राजस्व में तेजी से बढ़ोतरी होगी और इस तरह गरीबी दूर करने के लिए कल्याकारी खर्चों को बढ़ाया जा सकेगा। दूसरे शब्दों में उसके लिए यही बहाना लिया जा रहा था कि, गरीबी दूर करने के लिए सरकार के संसाधन जुटाने पर, नवउदारवादी व्यवस्था तो अपने तो कोई रोक लगाती नहीं है।

नवउदारवाद को लॉघने की लड़ाई का हिस्सा
लेकिन, अगर यह विचार सही होता तो, नवउदारवादी दौर में जीडीपी की ऊंची वृद्घि दर के साथ-साथ, गरीबी के परिमाण में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई होती, भूख नहीं बढ़ी होती, बेरोजगारी नहीं बढ़ी होती, मेहनतकश आबादी की आय को इस तरह निचोड़ा नहीं गया होता कि उनकी प्रतिव्यक्ति आय, उदारीकरण से पहले के दौर के मुकाबले भी घट जाती। अगर, ऊंची जीडीपी वृद्घि दर के साथ-साथ यह सब हुआ है और यह सब होने के अकाट्य तथ्यात्मक प्रमाण हैं, तो ऐसा इसीलिए हुआ है कि नवउदारवादी पूंजीवाद अनम्य है। वास्तव में नवउदारवादी पूंजीवाद का अपना अंतर्निहित तर्क है जो एक छोर पर बढ़ती संपदा पैदा करने के साथ ही अपरिहार्य रूप से दूसरे छोर पर बढ़ती हुई गरीबी पैदा करता है। इसीलिए, गरीबी उन्मूलन इस व्यवस्था के दायरे में हासिल किया ही नहीं जा सकता है और उसके लिए, नवउदारवादी पूंंजीवादी व्यवस्था के अतिक्रमण की जरूरत होगी।

ठीक इसीलिए, जिन ताकतों का नजरिया नवउदारवाद से आगे नहीं जाता है, वे भी अगर गरीबों को राहत दिलाने के कदमों का वादा करती हैं, तो वामपंथ को इसका स्वागत करना चाहिए। आखिरकार, नवउदारवाद के तर्क के चलते, या तो इन ताकतों को इन वादों से पीछे हटना होगा, जिसे वामपंथ रेखांकित कर सकता है तथा उसके खिलाफ लड़ सकता है या फिर यह नवउदारवादी व्यवस्था को लांघने की एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के साथ जुड़ सकता है, वामपंथ जिसे उन्मुक्त करने का उपकरण बन सकता है। 

वास्तव में नवउदारवादी पूंजीवाद के संकट के इस दौर में, जब कार्पोरेट-वित्तीय अल्पतंत्र का रुझान, एक ध्यान-बंटाऊ सांप्रदायिक व विभाजनकारी एजेंडा को आगे बढ़ाने का है, जनता के आर्थिक हालात पर कोई भी जोर और इन हालात में सुधार लाने का कोई भी कार्यक्रम अपने आप में, कार्पोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ के खिलाफ एक जवाबी ताकत का काम करता है। जिस हद तक पूंजीवादी पार्टियां भी, नवउदारवादी पूंजीवाद के तर्क और गरीबों की माली हालत में सुधार के ऐसे किसी कार्यक्रम के बीच के अंतर्विरोध से बेखबर, गरीबों की हालत में ऐसे सुधार की पैरवी करती हैं, प्रगतिशील ताकतों के लिए उतना ही अच्छा है।  
               


About Author

प्रभात पटनायक

लेखक - देश के जाने माने अर्थशास्त्री है.

Leave a Comment