रफाल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय खंड पीठ का फैसला, आते-आते ही विवादास्पद हो गया है। वास्तव में इस मामले में जिस तरह से सीलबंद लिफाफों में सरकारी नोट स्वीकार किए गए हैं और सरकार की दलीलों को आंख मूंदकर सही मान लिया गया है, उससे खुद अदालत की ही प्रतिष्ठा खतरे में पड़ गयी है।
इस मामले में न्यायिक समीक्षा का विषय था: (अ) क्या रफाल सौदे में पहले निर्धारित रक्षा खरीदी प्रक्रियाओं का उल्लंघन किया गया था, और ब) क्या भारत की जनता को रक्षा सौदों की कीमत जानने का अधिकार ही नहीं है? इन दोनों ही विषयों में अदालत ने व्यावहारिक रूप से यही कहा है कि इस तरह की समीक्षा करना उसका काम ही नहीं है और उसने इसे सरकार का विशेषाधिकार मान लिया है कि रफाल विमानों की कीमत को गोपनीय बनाए रखे।
सीलबंद लिफाफे में अदालत को जो जानकारी दी गयी थी उसके संबंध में आगे चलकर जो कुछ भी हुआ, उस पर उचित ही आलोचनाएं आयी हैं। हमारा इशारा खासतौर पर अदालत के फैसले में आए इस आशय के वक्तव्य की ओर है कि रफाल विमान की कीमत की नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक द्वारा पड़ताल की गयी थी और उसकी रिपोर्ट संसद की लोक लेखा समिति (पीएसी) के सामने पेश की गयी थी और इस रिपोर्ट को, उसके गोपनीय हिस्सों को काला कर के, संसद के सामने रखा गया था।
अदालत के फैसले में कहा गया है: 'बहरहाल, कीमत का विवरण भारत के नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक (यहां से आगे सीएजी) के साथ साझा किया गया है और सीएजी की रिपोर्ट की लोक लेखा समिति (यहां से आगे पीएसी) ने जांच-परख की है। इस रिपोर्ट का, गोपनीय जानकारियां हटाने के बाद का हिस्सा ही संसद के सामने पेश किया गया था और सार्वजनिक जानकारी में हैं। बाद में पता चला कि सीलबंद लिफाफे में अदालत को सौंपा गया बयान बहुत ही गोल-मोल किस्म का था। उसमें सरकार के कहे के मुताबिक सिर्फ इतना कहा गया था कि कीमतों का विवरण, सीएजी के साथ साझा किया गया था। शेष सब 'प्रक्रिया का विवरण था, न कि इसका कथन कि वह सब किया जा चुका है।
अब सरकार ने, बाकी सब ज्यों का त्यों रखते हुए, अदालत के फैसले का 'व्याकरण दुरुस्त करने के लिए याचिका लगायी है। एक सवाल यह भी है कि क्या यह संशोधन याचिका है? अगर यह संशोधन याचिका है, तो क्या इस याचिका पर विचार करने के दौरान दूसरे पक्षों की भी बात सुनी जाएगी? या फिर अदालत अपनी शर्मिंदगी को ही छुपाने की कोशिश करेगी और कह देगी कि यह याचिका सिर्फ उसकी खराब अंग्रेजी का व्याकरण दुरुस्त करने के लिए है?
बहरहाल, सीलबंद लिफाफे में सरकार की ओर से क्या जानकारी दी गयी थी, जिसे समझने में सरकार के मुताबिक अदालत ने गलती कर दी थी, उससे जुड़े विवाद से एक और सवाल उठ गया है। सीलबंद लिफाफे में सरकार की ओर से और क्या-क्या बताया गया था? उसने कहां तक अदालत को यह तय करने के लिए राजी किया था कि इन मुद्दों में उसे दखल नहीं देना चाहिए? क्या सीलबंद लिफाफे में सिर्फ कीमत का ही विवरण था? अगर ऐसा ही था तो क्या वजह थी कि सीएजी से कीमतों का ब्यौरा साझा करने आदि से संबंधित बातें सीलबंद लिफाफे में ही रखी गयी थीं और अदालत के सामने सरकार की ओर से पेश किए गए नोट में नहीं थीं, जिसे याचिकाकर्ताओं से भी साझा किया गया था? अगर इसका वास्तविक कीमत से कुछ लेना-देना ही नहीं था, जो दलील के इस हिस्से को अदालत को दिए गए गोपनीय नोट में ही क्यों रखा गया था?
अदालत के सामने विचार करने के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न कुछ इस प्रकार थे। मोदी सरकार ने 126 रफाल विमानों की खरीद का खुला टेंंडर निरस्त कर और इसकी जगह पर, दो सरकारों के बीच के समझौते के रास्ते से सिर्फ 36 विमान खरीदकर, रक्षा खरीदी की स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन किया था। नये सौदे की मोदी-ओलांद की घोषणा, रक्षा उपकरणों की खरीद के लिए सरकारों के बीच के समझौते के लिए जरूरी प्रक्रियाओं का पालन किए बिना ही कर दी गयी थी। रफाल विमान की निर्माता, दॅसां कंपनी ने, अनिल अंबानी की नयी-नयी खड़ी की गयी प्रतिरक्षा कंपनी को, ऑफसैट साझीदार बनाया था। यह चुनाव मोदी सरकार के कहने पर किया गया था यानी दरबारी पूंजीवाद को बढ़ावा दिए जाने का मामला था। आखिरी बात यह कि रफाल खरीद में अनिल अंबानी के घुसाए जाने ने, उन्नत विमान प्रौद्योगिकी के भारत में हस्तांतरित किए जाने की संभावनाओं पर ही पानी फेर दिया। वास्तव में यह, विमान निर्माण के क्षेत्र की सार्वजनिक क्षेत्र की प्रतिष्ठिïत कंपनी, हिंदुस्तान एअरोनॉटिक्स लि0 (एचएएल) को कमजोर करने की ही नंगी कोशिश थी।
अगर कोई सरकार, स्थापित प्रक्रियाओं का इस तरह उल्लंघन करती है कि उससे किसी कंपनी या व्यक्ति का फायदा होता हो और सरकारी खजाने का नुकसान होता हो, तो उसे भ्रष्टïचार कहा जाएगा। यूपीए के राज में हुए 2जी घोटाले में यही तो हुआ था। और यह कोल गेट घोटाले में हुआ था। इसीलिए, यह जरूरी था कि सुप्रीम कोर्ट रफाल सौदे के मामले में मोदी सरकार द्वारा प्रक्रियाओं के उल्लंघन की पड़ताल करता और इसकी पड़ताल करता कि रफाल विमान की कीमत तय कैसे की गयी थी? लेकिन, ऐसा लगता है कि अदालत के फैसले में सरकार के दावों को आंख मूंदकर मान लिया गया है। यहां तक कि सरकार के वक्तव्य के बड़े हिस्सों को, निर्णय में जस का तस उतार दिया गया है। इसीलिए, अदालत का यह निर्णय निराश करने वाला है।
रफाल सौदे में रक्षा खरीद की स्थापित प्रक्रियाओं का उल्लंघन कर के मोदी सरकार ने, इस मामले में घड़ी की सुइयों को पीछे घुमा दिया है और हमें उसी पुराने जमाने में ला खड़ा किया है, जहां रक्षा सौदे विवादों तथा भ्रष्टïाचार के संदेहों से घिरे रहते थे। वास्तव में खरीदी की इन पूरी तरह से मनमानी तथा अपारदर्शी प्रक्रियाओं से निजात दिलाने के लिए ही एक के बाद एक आयी सरकारों ने एक विस्तृत, रक्षा खरीदी प्रक्रिया (डीपीपी) तय की थी। इस डीपीपी में, रक्षा मंत्रालय तथा सशस्त्र बलों द्वारा तय की जाने वाली अपनी जरूरतों को आधार बनाया जाता था, खुले टेंडर जारी किए जाते थे और संबंधित उपकरणों के परीक्षण, मूल्यांकन तथा अंतिम रूप से कीमत तय करने, सैट ऑफ साझीदारों के चयन, आदि की विस्तृत प्रक्रियाएं तय थीं। सरकारों के बीच समझौते के माध्यम से खरीद को अपवाद माना जाता था और इसका सहारा उसी सूरत में लिया जाता था जब सशस्त्र बलों तथा रक्षा मंत्रालय की नजरों में, फौरन ऐसी खरीद जरूरी हो।
लेकिन, मोदी सरकार ने 126 विमानों की खरीद के मूल रफाल सौदे को खारिज कर दिया, जबकि यह समझौता अपने अंतिम चरण में था और प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण, भारत में उसके निर्माण के काम के दायरे और कीमतों, आदि के करीब सारे फैसले हो चुके थे। इस समझौते की जगह पर मोदी सरकार ने, सरकारों के बीच समझौते का रास्ता अपनाया। एचएएल के पूर्व-चेयरमैन, सुवर्ण राजू पहले ही बता चुके हैं कि जब उक्त समझौते को निरस्त किया गया, दॅसां और एचएएल के बीच भारत में उत्पादन पर वार्ताएं पूरी हो चुकी थीं और उनके नतीजे अनुमोदन के लिए मंत्रालय के विचारार्थ थे। मोदी सरकार के इस फैसले के चलते भारतीय वायु सेना को भी, उसकी जरूरत के मुकाबले काफी कम विमान ही मिलने जा रहे हैं। इसके ऊपर से देश को विमानों की इस खरीद में कहीं ज्यादा कीमत अदा करनी पड़ रही है। मोटे अनुमानों के अनुसार, नये सौदे में एक विमान की कीमत, मूल सौदे से 60 फीसद से लेकर, तीन गुनी तक ज्यादा बैठ सकती है। इसके ऊपर से इन अत्याधुनिक विमानों की खरीद की एवज में, भारत के पक्ष में प्रौद्योगिकी का कोई हस्तांतरण अब नहीं होगा। इस निर्णय से अगर किसी को फायदा हो रहा है, तो वह कर्ज में डूबा अनिल अंबानी कारोबारी परिवार, जिसकी आफसैट्स से करीब 21,000 करोड़ रु0 की कमाई होने का अनुमान है।
अदालत को सीलबंद लिफाफे में दी गयी सामग्री के संबंध में अपनी गलतफहमी का जायजा लेना चाहिए, कीमतों के पहलू को छोड़कर बाकी तमाम सामग्री सार्वजनिक होने देनी चाहिए और अपने फैसले में 'दुरुस्ती की सरकार की याचिका को एक संशोधन याचिका की तरह लेना चाहिए और दूसरे याचिकाकर्ताओं को सुनवाई का मौका देना चाहिए। इससे कम कुछ भी, उसका अपनी पहले की गलती को ही और बढ़ाना होगा।
वैसे भी नीति संबंधी मामलों में अदालत की भूमिका सीमित ही होती है। इस मामले में कहीं बड़ा मुद्दा राजनीतिक है। रफाल सौदे से संबंधित सभी तथ्य जनता के सामने लाने के लिए, सी पी आइ (एम) राजनीतिक रास्ता ही अपनाने जा रही है। सी पी आइ (एम) तथा अन्य विपक्षी पार्टियां, रफाल सौदे की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के गठन की मांग कर रही हैं। सीएजी को भी रफाल सौदे पर अपनी रिपोर्ट देनी चाहिए ताकि संसद और उसकी लोक लेखा समिति, उस पर विचार कर सकें।
आखिरी बात यह कि इस मामले में फैसला अंतत: तो जनता की अदालत में ही होगा, न कि कानून की अदलतों में। जनमत की अदालत में ही इसका भी उसी तरह से फैसला होगा, जैसे बोफोर्स का फैसला हुआ था।
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