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दस फीसद आरक्षण : किस के हित में ? इससे किस का भला होगा?

सी पी आइ (एम) ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण को इस आधार पर सही ठहराया था कि इन तबकों को सामाजिक भेेदभाव झेलना पड़ा था जो संविधान के अनुसार उन्हें 'सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़ा' बनाता है। इसलिए, अनुसूचित जाति तथा जनजाति की तरह, अन्य पिछड़ा वर्ग को भी आरक्षण दिए जाने की जरूरत थी।

मोदी सरकार ने संसद से एक संविधान संशोधन पारित कराया है। यह संशोधन सामान्य श्रेणी के यानी अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग में न आने वालों के आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए, 10 फीसद आरक्षण का प्रावधान करता है।
एक चुनावी पैंतरा
यह संविधान संशोधन विधेयक बहुत जल्दबाजी में पारित कराया गया है। केंद्रीय कैबिनेट के निर्णय से लेकर, संसद के दोनों सदनों के अनुमोदन तक, सब कुछ कुल तीन दिन में पूरा हो चुका था। इसमें कोई शक हो ही नहीं सकता है कि यह कदम आने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए उठाया गया है, जिसमें अब चंद हफ्ते ही रह गए हैं।

यह कदम मोदी सरकार की बदहवासी को भी दिखाता है। जाहिर है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के विधानसभाई चुनावों में हार से भाजपा के हाथ-पांव फूल गए हैं और वह अपना खोया समर्थन फिर से हासिल करने के लिए हाथ-पांव मार रही है। गहराते कृषि संकट और बढ़ती बेरोजगारी का एक नतीजा यह भी हुआ है कि जातियों की बढ़ती संख्या की तरफ से आरक्षण की मांग आ रही है। मोदी सरकार इसकी उम्मीद कर रही है कि आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए 10 फीसद आरक्षण का प्रावधान करने के जरिए, वह इन मांगों को तुष्टि कर सकती है।

सामान्य श्रेणी में आने वाले गरीबों के लिए शिक्षा तथा रोजगार में एक निश्चित कोटा रखे जाने का सवाल कोई नया नहीं है। यह मुद्दा तब भी सामने आया था जब वी पी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने 1990 में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करने का फैसला लिया था। उस फैसले पर, तीखा विभाजन तथा उग्र आंदोलन सामने आया था और खासतौर पर उत्तरी भारत में ऊंची जातियों ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का भारी विरोध किया था।

सी पी आइ (एम) ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण को इस आधार पर सही ठहराया था कि इन तबकों को सामाजिक भेेदभाव झेलना पड़ा था जो संविधान के अनुसार उन्हें 'सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़ा' बनाता है। इसलिए, अनुसूचित जाति तथा जनजाति की तरह, अन्य पिछड़ा वर्ग को भी आरक्षण दिए जाने की जरूरत थी।

बहरहाल, मंडल आयोग से भिन्न रुख अपनाते हुए, सी पी आइ (एम) ने यह कहा था कि अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के दायरे में, पात्रता के लिए एक आर्थिक मानदंड भी होना चाहिए। इसकी वजह यह थी कि अन्य पिछड़ा वर्ग के दायरे में, कहीं ज्यादा भिन्नताएं आ चुकी थीं और कुछ तबके कहीं ज्यादा संपन्न थे, जिनके पास जमीन तथा अन्य संसाधन थे। इसलिए, अगर इस आरक्षण लाभ इस श्रेणी के वाकई जरूरतमंद तबकों को दिलाना है, तो उन्हें संपन्नतर हिस्सों से अलग करने के लिए, एक आर्थिक मानदंड का अपनाया जाना जरूरी है।

इससे भिन्न, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के मामले में सी पी आइ (एम) हमेशा से किसी आर्थिक मानदंड के बिना ही आरक्षण दिए जाने का समर्थन करती आयी है क्योंकि ये तबके जाति व्यवस्था के तहत, जो आज भी बनी हुई है, सदियों से भयावह सामाजिक उत्पीडऩ के शिकार रहे हैं।

कर्पूरी ठाकुर फार्मूला
उस समय सी पी आइ (एम) ने कोई नया-नया यह रुख नहीं अपनाया था। इससे पहले, केरल में  ई एम एस नंबूदिरीपाद के नेतृत्व में यूनाइटेड फ्रंट सरकार ने आरक्षण के प्रश्न पर ही विचार करने के लिए, एन दामोदरन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इसकी सिफारिश की थी कि अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण के दायरे में, एक आर्थिक मानदंड लगाया जाना चाहिए। उस समय, जब राज्य विधानसभा में इस रिपोर्ट पर चर्चा हुई थी, अकेले सी पी आइ (एम) ने ही उसका समर्थन किया था। 1978 में जब बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का एलान किया था, एक जबर्दस्त आरक्षणविरोधी आंदोलन उठा था। उस समय, सी पी आइ (एम) के तत्कालीन महासचिव, ई एम एस नंबूदिरीपाद और कर्पूरी ठाकुर के बीच, जो एक लोहियावादी समाजवादी थे, इस मुद्दे पर बातचीत हुई थी। इसी बातचीत के फलस्वरूप आरक्षण का एक फार्मूला निकला था, जिसे कर्पूरी ठाकुर फार्मूला के नाम से जाना जाता है।

बिहार में दो-सूचियां बनाकर, कुछ पिछड़ी जातियों के आरक्षण के दायरे में, आर्थिक मानदंड लागू किया गया था। सूची-1 में सबसे पिछड़ी जातियों के लिए, बिना आर्थिक मानदंड के, 12 फीसद आरक्षण का प्रावधान किया गया था। सूची-2 में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए, आर्थिक मानदंड के साथ, 8 फीसद आरक्षण का प्रावधान किया गया था। इसके अलावा, महिलाओं के लिए 3 फीसद और अगड़ी जातियों के गरीबों के लिए भी 3 फीसद आरक्षण प्रावधान किया गया था। वी पी सिंह की सरकार ने जब अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का एलान किया था, उसके एक दशक से ज्यादा पहले से बिहार में यह व्यवस्था चल रही थी।

सी पी आइ (एम) का रुख
1990 में सी पी आइ (एम) ने अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण पर अपना जो रुख सूत्रबद्घ किया, इस प्रकार था..
अ.    अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए, संपन्नतर हिस्सों को बाहर रखने के लिए एक आर्थिक मानदंड के साथ, 27 फीसद आरक्षण हो। अगर अपेक्षाकृत गरीब तबकों से पद नहीं भरते हैं, तो इन्हेंं अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में से ही भरा जाए।
ब.    सामान्य श्रेणी के अपेक्षाकृत गरीब तबकों के लिए कुछ (5 से 10 फीसद) आरक्षण रखा जाना चाहिए।
स.    सी पी आइ (एम) ने यह भी कहा कि आरक्षण सीमित राहत ही दे सकता है और यह पिछड़ेपन तथा बेरोजगारी की बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं है। संपदा के केंद्रीयकरण को तोडऩे के लिए मूलगामी भूमि सुधार होने चाहिए और संतुलित आर्थिक विकास होना चाहिए ताकि जनता की चौतरफा प्रगति का पोषण करने के लिए रोजगार पैदा हो सकें।
द.    जातिगत भेदभाव, अपवर्जन तथा सकारात्मक कार्रवाई के एक रूप के तौर पर आरक्षण पर, सी पी आइ (एम) का एक वर्गीय नजरिया भी है। पूंजीवादी पार्टियां, जातिगत विभाजनों को बनाए रखने और जाति पर आधारित पहचान की राजनीतिक के लिए, एक औजार के तौर पर आरक्षण का इस्तेमाल करती हैं। उत्पीडि़त जातियों के कुछ संगठन भी सामाजिक न्याय के मुद्दे को घटाकर, नौकरियों में आरक्षण तक ही सीमित कर देते हैं।

सी पी आइ (एम) के लिए, मजदूर वर्ग और सभी जातियों व समुदायों के गरीबों को एकजुट करने का मुद्दा सबसे ऊपर है। इसी तरह से मौजूदा उत्पीडऩकारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से लड़ा जा सकता है। सभी जातियों के गरीब तबकों की एकता कायम करने और आरक्षण के मुद्दे से बने रहने वाले विभाजनों पर काबू पाने के इसी रुख के आधार पर, सी पी आइ (एम) ने इसकी पैरवी की थी कि सामान्य श्रेणी के गरीब तबकों को कुछ आरक्षण दिया जाना चाहिए।

पहले के प्रयास
मंडल आयोग की रिपोर्ट के लागू होने की पृष्ठïभूमि में अनेक राजनीतिक पार्टियों ने इस रुख को स्वीकार कर लिया था कि ऊंची जातियों के गरीबों को भी कुछ राहत दी जानी चाहिए। वास्तव में, वी पी सिंह ने ही, अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की घोषणा करते हुए, इस तरह के कदम का प्रस्ताव किया था।
1991 में नरसिंह राव की सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसद आरक्षण लागू करने का आदेश जारी किया था, जिसके दायरे में आर्थिक मानदंड भी तय किया गया था। इसके अलावा, सामान्य श्रेणी के गरीबों के लिए 10 फीसद हिस्सा रखा गया था।  यह मोटे तौर पर, इस प्रश्न पर सी पी आइ (एम) के रुख के अनुरूप ही था। बहरहाल, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने सामान्य श्रेणी के लिए आरक्षण के प्रावधान को निरस्त कर दिया, जबकि क्रीमी लेयर को बाहर रखकर, अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसद आरक्षण को सही ठहराया।

सी पी आइ (एम) ने, क्रीमी लेयर को बाहर रखकर, अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसद आरक्षण देने के फैसले का स्वागत किया था। उसने यह भी मांग की थी कि सरकार कोई तरीका निकाले जिससे आरक्षण से बाहर की जातियों के गरीबों तथा जरूरतमंदों को भी कुछ राहत दिलायी जा सके।

सी पी आइ (एम) हमेशा से इस पर भी कायम रही है कि सामान्य श्रेणी के लिए ऐसी कोई भी राहत अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण के वैधानिक प्रावधान की कीमत पर या उसे कमजोर कर के नहीं दी जा सकती है।

मोदी सरकार द्वारा उठाए गए कदम के संबंध में सी पी आइ (एम) के रुख को समझने के लिए, इस पृष्ठïभूमि को याद रखना जरूरी है। अपने वादे के अनुरूप, हर साल दो करोड़ रोजगार पैदा करने में बुरी तरह से विफल रहने और कृषि संकट से निपटने में असमर्थ रहने के बाद, मोदी सरकार आम चुनाव से पहले किसी न किसी चुनावी पैंतरे की तलाश में थी।

झूठा मानदंड
भाजपा सरकार किसी भी तरह से इस निराशाजनक सचाई से लोगों का ध्यान बंटाना चाहती थी कि 2018 में ही 1 करोड़ 10 लाख मौजूदा रोजगार छिन गए थे। लेकिन, मोदी सरकार ने जिस तरह से 'आर्थिक रूप से कमजोर तबकोंÓ के लिए 10 फीसद आरक्षण का प्रावधान किया है, वह सरासर फर्जी है।  जिस तरह से आर्थिक रूप से कमजोर की निशानदेही करने के लिए मानदंड तय किया गया है, उससे साफ हो जाता है कि सचमुच वंचित तथा गरीब तबकों के लिए तो यह आरक्षण है ही नहीं।

जो मानदंड तय किया गया है उसके अनुसार, 8 लाख रु0 सालाना से कम पारिवारिक आय वाले या पांच एकड़ से कम खेती की जमीन के मालिक या  1000 वर्ग फुट से कम के रिहाइशी फ्लैट के मालिक या अधिसूचित म्युनिसिपैलिटी में 100 वर्ग गर्ज या गैर-अधिसूचित म्युनिसिपैलिटी में 200 वर्ग गज से कम के प्लाट के मालिक, इस आरक्षण के पात्र होंगे। इसका अर्थ यह है कि सामान्य श्रेणी के 95 फीसद लोग इस आरक्षण के दायरे में आ जाएंगे। यह तो गरीब तबकों को आरक्षण देने के उद्देश्य को ही विफल कर देता है। 

सी पी आइ (एम), इस मानदंड के आधार पर सामान्य श्रेणी में आरक्षण दिए जाने का मजबूती से विरोध करती है। इसके अलावा एक और नुक्ता है, जिसे साफ किए जाने की जरूरत है। जिस रूप में संविधान संशोधन स्वीकार किया गया है, उसमें सामान्य श्रेणी में आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए सिर्फ 10 फीसद आरक्षण का प्रावधान किया गया है। संविधान संशोधन में उक्त मानदंड निर्धारित नहीं किया गया है। संसद में सी पी आइ (एम) सांसदों ने इस संविधान संशोधन का समर्थन किया था क्योंकि हमारी पार्टी सिद्घांत रूप में इस तरह के आरक्षण के पक्ष में है। लेकिन, उक्त मानदंड तय करने के लिए पेश किए जाने वाले हरेक विधेयक या अधिसूचना का हमारी पार्टी विरोध करेगी। 

आरक्षण के पालन का दयनीय रिकार्ड
इस कदम का विरोध इस वजह से भी हो रहा है कि सरकारी नौकरियों में तथा उच्च शिक्षा संस्थाओं में अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग के मौजूदा कोटे भी ढंग से नहीं भरे जा रहे हैं। ताजातरीन आंकड़े दिखाते हैं कि अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित 21.7 फीसद पद ही भरे गए हैं, जबकि आरक्षण का कोटा 27 फीसद का है। इसी प्रकार, अनुसूचित जाति तथा जनजाति के मामले में, ग्रुप-ए तथा बी की नौकरियों में कोटा पूरा नहीं हुआ है और बड़ी संख्या में पद खाली पड़े हुए हैं।

उच्च शिक्षा संस्थाओं में दाखिलों में भी अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग कोटे से पीछे हैं। निजी शिक्षा संस्थाओं में अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के लिए, 2006 में किया गया 93 वां संविधान संशोधन, उसे लागू करने के लिए जरूरी कानून न बनने के कारण लागू ही नहीं हुआ है। सी पी आइ (एम) ने मांग की है कि सभी सरकारी क्षेत्रों में और उच्च शिक्षा संस्थाओं में अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के कोटे भरने के लिए, फौरन कदम उठाए जाएं। इस मोर्चे पर मोदी सरकार का जो खराब रिकार्ड रहा है, उससे इसके संदेहों को बल मिलता है कि सामान्य श्रेणी के लिए ताजा 10 फीसद आरक्षण, उत्पीडि़त जातियों के आरक्षण को ही कमजोर करने का बहाना है। इस संदेह को इस तथ्य से और बल मिलता है कि आरएसएस शुरू से ही जाति आधारित आरक्षणों के खिलाफ रहा है।

निजी क्षेत्र में आरक्षण
एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा, जिससे मोदी सरकार बड़ी कसरत से बचती रही है, निजी क्षेत्र में आरक्षण दिलाने का है। नवउदारवादी नीतियों तथा निजीकरण के करीब तीन दशकों के बाद, सरकारी नौकरियों और सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार का दायरा बहुत ही सीमित हो गया है। निजी क्षेत्र में आरक्षण के अभाव में, एक सकारात्मक कदम के रूप में आरक्षण ज्यादा से ज्यादा प्रभावहीन होता जा रहा है।

आरक्षण के मामले में मोदी सरकार का पाखंडी रुख इस तथ्य से बेनकाब हो जाता है कि केंद्र सरकार की नौकरियों में अनुसचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के कोटे खाली पड़े हुए हैं और यह सरकार निजी क्षेत्र में आरक्षण दिलाने में विफल रही है। 1992 के इंद्रा साहनी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने तमाम आरक्षणों के लिए 50 फीसद सीमा तय की थी। जिस तरह से संविधान संशोधन पेश किया गया तथा जल्दबाजी में पारित कराया गया है, वह दिखाता है कि मोदी सरकार की दिलचस्पी सिर्फ इससे फौरी चुनावी लाभ हासिल करने में है। उसने ऐसा सुचिंतित कदम नहीं उठाया है, जो कानूनी-संवैधानिक चुनौती का सामना कर सकता हो। यह अंतत: एक और जुम्ला साबित हो सकता है। 


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प्रकाश करात

लेखक-सी.पी .आई.(एम) पोलिट ब्यूरो सदस्य है

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