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असम की नागरिकता रजिस्टर प्रक्रिया किधर ?

वास्तव में इस प्रक्रिया अब तक जिस तरह से चलायी जा रही थी, उससे कितनी ही आशंकाएं पैदा हुई हैं और वैध भारतीय नागरिकों के  नाम दर्ज किए जाने के मामले में बहुत सारी त्रुटियां सामने आयी हैं।

फोटो - गूगल

असम में नागरिकों की पहचान के लिए राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की प्रक्रिया, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार अंतिम सूची के प्रकाशन के साथ, 31 जुलाई को पूरी हो जानी चाहिए। वास्तव में इस प्रक्रिया अब तक जिस तरह से चलायी जा रही थी, उससे कितनी ही आशंकाएं पैदा हुई हैं और वैध भारतीय नागरिकों के  नाम दर्ज किए जाने के मामले में बहुत सारी त्रुटियां सामने आयी हैं।

पिछले वर्ष, 30 जुलाई 2018 को राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का जो मसौदा प्रकाशित किया गया था, उसमें कुल 3.29 करोड़ प्रार्थियों में से, 40.7 लाख के नाम बाहर छोड़ दिए गए थे। तय प्रक्रिया के अनुसार, जिन लोगों के नाम मसौदे में नहीं आए थे, वे प्रमाणों के साथ अपने नाम शामिल किए जाने का दावा कर सकते थे और इसी प्रकार, जो नाम शामिल किए गए थे उनके खिलाफ आपत्तियां भी जर्द करायी जा सकती थीं।

इस तमाम प्रक्रिया को पूरा करने के बाद ही, अब अंतिम सूची तैयार की जा रही है और उसे 31 जुलाई को प्रकाशित किया जाना है। लेकिन, इसी साल 26 जून को 1,02,462 अतिरिक्त नामों को एनआरसी के मसौदे से अधिकारियों ने यह कहते हुए हटा दिया कि वे नागरिकों की सूची में आने के पात्र नहीं हैं। बताया गया कि अब हटाए गए नामों में उन लोगों के नाम शामिल हैं जो ‘‘डी’’ वोटर या मतदाता सूची में संदिग्ध मतदाता की श्रेणी में आते हैं या फिर जिन पर, विदेशी होने के संदेह में पहले ही विदेशी ट्रिब्यूनल के सामने मामला चल रहा था। एक लाख से ज्यादा लोगों के इस तरह अतिरिक्त रूप से नाम हटाए जाने पर भी बहुत से सवाल उठे क्योंकि एनआरसी का मसौदा तैयार करते समय ही यह एलान किया गया था कि ‘‘डी’’ वोटर की श्रेणी में आने वाले सभी लोगों को एनआरसी से बाहर रखा जा रहा था।

इस समूची प्रक्रिया के दोषपूर्ण होने और उसमें गलतियों की भरमार की सचाई तब सब के सामने आ गयी, जब मीडिया ने ऐसे कुछ मामलों को रेखांकित किया। इनमें एक मामला तो सेना में नॉन कमीशन्ड अफसर रहे मोहम्मद सनाउल्ला का ही था, जो तीस साल भारतीय सेना में सेवा करने के बाद, बार्डर पुलिस में सहायक सब-इंस्पैक्टर के तौर पर काम कर रहे थे। उनका नाम ‘‘डी’’ लिस्ट में था और विदेशी ट्रिब्यूनल ने उन्हें विदेशी घोषित भी कर दिया, जबकि उनका जन्म असम में ही हुआ और जहां उनका जन्म हुआ था, उस जगह के उनके परिवार के रिश्ते बहुत गहरे थे। उन्हें डिटेंशन कैंप में भेज दिया गया और दस दिन बाद, हाई कोर्ट से जमानत मिलने के बाद ही वह डिटेंशन कैंप से बाहर आ सके।

ऐसा ही एक और प्रकरण सुनिर्मल बागची का था। उनका नाम 2018 की जुलाई में प्रकाशित एनआरसी के मसौदे में था। लेकिन, इसी जून में प्रकाशित की गयी काटे गए नामों की अतिरिक्त सूची में उनका भी नाम आ गया। इसके लिए उन्हें कारण यह बताया गया कि उन्हें विदेशी घोषित किया जा चुका था। बागची का जन्म 21 सितंबर,1943 को सिल्चर में हुआ था। उन्हें कैसे कोई विदेशी ठहरा सकता था? बाद में एनआरसी के अधिकारियों ने यह सफाई दी कि क्लर्क की गलती से उनका नाम विदेशी घोषित होने वालों में डल गया था।

ऐसी ही एक और चिंतित करने वाली रिपोर्ट, चिरांग जिले में मधुबाला के डिटेंशन में डाले जाने की थी। इस गरीब विधवा, विदेशी ट्रिब्यूनल द्वारा विदेशी घोषित किए जाने के बाद, तीन साल से डिटेंशन कैंप में बंद थी। लेकिन पिछले ही दिनों यह सचाई सामने आयी कि यह तो गलत पहचान का मामला था और मधुबाला नाम की एक और महिला की जगह पर उसे पकड़ लिया गया था। बाद में मधुबाला को डिटेंशन कैंप से तो छोड़ दिया गया, लेकिन इसका कहीं जिक्र तक नहीं है कि अवैध रूप से नजरबंद कर के रखे जाने के लिए उसे क्या कोई मुआवजा दिया जाएगा? 
ऐसे अनगिनत मामले हैं जिनमें पिता को सूची से बाहर कर दिया गया है, जबकि बेटे को सूची में शामिल किया गया है या सगे बहन-भाइयों में से किसी का नाम सूची में है और किसी का नाम सूची से बाहर है।

भाजपा की केंद्र सरकार अवैध बांग्लादेशी आप्रवासियों को निकाल बाहर करने की रट लगाए रही है। अमित शाह ने, जो अब देश के गृहमंत्री हैं, चुनाव प्रचार के दौरान उन्हें ‘‘दीमक’’ करार दे दिया था। मोदी सरकार यह वचन दे चुकी है कि वह एनआरसी की प्रक्रिया को पश्चिम बंगाल तथा बांग्लादेश की सीमाओं से लगते अन्य राज्यों तक ले जाएगी। इस बात का डर है कि इस सब के चक्कर में मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा होगा।

दूसरी ओर, भाजपा बांग्लादेश से ही आए हिंदुओं से इसका वादा करती आयी है कि नागरिकता कानून में संशोधन कर, उन्हें नागरिकता दिलायी जाएगी। गृहमंत्री की हैसियत से अमित शाह तो और भी आगे बढ़ गए और उन्होंने 1 जुलाई को राज्यसभा में कहा कि सरकार, एनआरसी से बाहर रह गए ‘‘हिन्दू  शरणार्थियों’’ को नागरिकता देने के लिए विधेयक लाएगी।

एनआरसी की प्रक्रिया का मकसद तो था, विदेशियों को छोडक़र सभी भारतीय नागरिकों के नाम दर्ज करना, लेकिन अब इस प्रक्रिया के भाजपा के साप्रदायिक तथा संकीर्ण उद्देश्यों के लिए अगवा किए जाने का ही खतरा पैदा हो गया है।
असम में एनआरसी की प्रक्रिया से अनेक प्रश्न खड़े हो गए हैं, जिन्हें हल किए जाने की जरूरत है। एनआरसी की अंतिम सूची के प्रकाशन के बाद, चाहे नौकरशाही की गलतियों की वजह से हो या सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के चलते, अन्यायपूर्ण तरीके से या गलती से इस सूची से छूट जाने वालों को न्याय दिलाने के लिए, त्वरित कानूनी प्रक्रिया सुनिश्चित करनी होगी। और जो दसियों लाख लोग नागरिकों के इस रजिस्टर से बाहर छूट जाएंगे, उनका क्या होगा? ‘अ-नागरिक’ करार दिए गए इन लोगों का क्या दर्जा होगा और उनके क्या अधिकार होंगे? इतना तो पहले ही साफ हो चुका है कि विदेशी ट्रिब्यूनल द्वारा विदेशी घोषित किए गए लोगों को भी बांग्लादेश प्रत्यार्पित नहीं किया जा सकता है क्योंकि बांग्लादेश उन्हें लेने को तैयार नहीं है। तब क्या उन्हें अनिश्चित काल तक डिटेंशन सेंटरों में ही सड़ते रहना होगा?

सुप्रीम कोर्ट ने, एनआरसी की यह प्रक्रिया शुरू करायी है और उसकी निगरानी में ही यह प्रक्रिया चली है। वह इन प्रश्नों के जवाब खोजने की जिम्मेदारी से बच नहीं सकता है। यहां भारतीय नागरिकता और नागरिकों के अधिकारों के बुनियादी सवाल दांव पर लगे हुए हैं।
एनआरसी के दोषपूर्ण परिपालन से उठने वाली शिकायतों को दूर करने में किसी भी विफलता का नतीजा होगा, नागरिकता के अधिकारों तथा मानवाधिकारों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन। दुनिया भर में, एक जनतंत्र और कानून से शासित सामाज के रूप में भारत की प्रतिष्ठï पर, बड़ी भारी कालिख पुत जाएगी।

जहां एनआरसी की अंतिम सूची के प्रकाशन की 31 जुलाई की समय सीमा की पूर्व-संध्या में ऐसे हालात हैं, केंद्र और असम की सरकारों ने अब अचानक सुप्रीम कोर्ट के सामने एक नयी मांग पेश कर दी है। उनका कहना है कि अंतिम सूची के प्रकाशन की आखिरी तारीख को, 31 जुलाई से आगे खिसका दिया जाए। उनका कहना है कि इसी बीच, 30 जून 2018 को प्रकाशित सूची के मसौदे में आए नामों का, नमूना पुनर्सत्यापन कराया जाए। बांग्लादेश की सीमा पर पडऩे वाले जिलों में 20 फीसद नमूना पुनर्सत्यापन कराया जाना चाहिए और अन्य जिलों में 10 फीसद। यह निहित स्वार्थ प्रेरित मांग, बार-बार सुनवाई तथा रिकार्ड जमा कराने की तकलीफदेह प्रक्रिया से गुजरे लाखों नागरिकों के और ज्यादा परेशान किए जाने और उनकी तकलीफें जारी रहने की ओर ही ले जाएगा।

इसका दृढ़तापूर्वक विरोध किया जाना चाहिए। यह मानने के कारण हैं कि मोदी सरकार, एनआरसी के अंतिम रूप से प्रकाशन को तब तक टालना चाहती है, जब तक वह नागरिकता कानून में संशोधन नहीं कर लेती है या ऐसा कानून नहीं ले आती है जिसके जरिए, बंग्लादेश से आए हिंदुओं को नागरिकता दी जा सके। लेकिन, सांप्रदायिक आधार पर नागरिकता के साथ इस तरह की छेड़छाड़ अवैध है और विभाजनकारी है। इसका मुकाबला करना ही होगा।           
 


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प्रकाश करात

लेखक-सी.पी .आई.(एम) पोलिट ब्यूरो सदस्य है

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