मध्यप्रदेश में नगर निकायों को लेकर प्रदेश सरकार और राज्य निर्वाचन आयोग तैयारी में जुटा है। अब संभव है कि यह चुनाव दिसंबर या जनवरी के शुरूआत में हो जायें। कांग्रेस राजनीतिक लड़ाईयां भी खो और मात के खेल की तरह लड़ रही है। यह जानते हुए भी कि इस लड़ाई में राजनीतिक दलों के दांव से ज्यादा अंगद का पांव महत्वपूर्ण होता है और यह पांव जनता का पांव होता है। कहने का मतलब यह है कि भाजपा को हराने का अर्थ किसी संस्थान या निकाय विशेष पर तिकड़म के सहारे के सत्ता को सीढिय़ा चढ़ जाना नही है, बल्कि भाजपा और उसकी विचारधारा को जनता से अलग थलग करना है। कांग्रेस का संकट यही है कि यदि भाजपा की विचारधारा को हराना है तो कांग्रेस को पहले अपनी विचाराधारा को समझना होगा, फिर जाकर भाजपा की विचारधारा को तर्क और तथ्यों के तीरों से परास्त करना होगा। मगर कांग्रेस वैचारिक रूप से दिवालिया हो चुकी है।
कमलनाथ सरकार ने जो शाँर्टकट निकाला है, वह अलोकतांत्रिक है। अगर आपकी लड़ाई का तरीका ही जनता और जनतंत्र को नकारता है तो फिर जनता से भाजपा को अलग थलग कैसा किया जा सकता है। जी हां बात नगर निकाय चुनावों की हो रही है। यह चुनाव नवंबर माह में प्रस्तावित थे, मगर भाजपा ने वार्ड और नगर निकायों के सीमांकन के नाम पर इसे आगे खिसका दिया है।
अब कांग्रेस अपने हिसाब से वार्डों की कांट छांट करेगी। भोपाल को तो तोड़ कर दो नगर निगम बनाये जा रहे हैं। खैर यह तो वह तिकड़म है जो भाजपा भी करती रही है। मगर सबसे बड़ा बदलाव महापौर/अध्यक्ष के चुनाव को प्रत्यक्ष प्रणाली की बजाय अप्रत्यक्ष प्रणाली से कराना है।
पहले महापौर या अध्यक्ष के चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली से होते थे। जनता सीधे अपना महापौर/अध्यक्ष निर्वाचित करती थी। अब निर्वाचित पार्षद महापौर/अध्यक्ष का चुनाव करेंगे। कांग्रेस पार्टी कह रही है कि इससे सीधे चुनावों में होने वाले खर्च पर रोक लगेगी। मगर ऐसा कहकर कांग्रेस और कमलनाथ सरकार किस को बेवकूफ बना रहे हैं। प्रत्यक्ष प्रणाली से होने वाले चुनावों में एक तो महापौर का सीधा जनता से संवाद होता था। दूसरा भलें ही सीमित हो, मगर इस प्रणाली में जनता अपने प्रतिनिधि को वापस बुला सकती थी। उसे राईट टू रीकॉल था। जो नए चुनावों के बाद जनता से छिन गया है।
दूसरा पार्षदों द्धारा महापौर के चुनाव का अर्थ खरीद फरोख्त को बढ़ावा देना है। पंचायत चुनावों में जिला पंचायत के अध्यक्ष और जनपद अध्यक्ष के चुनाव का अनुभव हमारे सामने है, जहां जनपद सदस्य और जिला पंचायत सदस्य ही जिला पंचायत और जनपद पंचायत अध्यक्ष का चुनाव करते हैं। जिला पंचायत अध्यक्ष बनने के लिए एक जिला पंचायत सदस्य की कीमत अधिकांश जिलों में एक करोड़ रुपए और एक स्र्कापियो या ऐसा ही कोई महंगा वाहन है। जनपद सदस्यों की कीमत भी लाखों में होती है। अब जिला पंचायत में यदि बीस जिला पंचायत सदस्य हैं तो न्यूनतम 11 सदस्य आपके साथ होना चाहिए। इससे साफ है कि करीब 11 करोड़ रुपए और व दो करोड़ की गाडिय़ा मिलाकर न्यूनतम 13 करोड़ रुपए खर्च कर ही जिला पंचायत अध्यक्ष पद को हथिया जा सकता है। अनुभव यह भी है कि ढाई साल बाद एक बार अविश्वास प्रस्ताव जिला पंचायत अध्यक्ष के खिलाफ आना ही आना है, फिर अध्यक्ष को अपना बहुमत साबित कर कुर्सी बचाने के लिए हर सदस्य को पच्चास लाख देकर खरीदा होता है। यानिकि न्यूनतम 19 करोड़ खर्च कर जिला पंचायत का अध्यक्ष अपना पांच कार्यकाल पूरा करता है। और कांग्रेस कह रही है कि वह प्रत्यक्ष चुनाव करवा कर खर्च को बचाना चाहती है।
अब अगर नगर निकायों की बात करें तो नगर निगमों में यदि 70 पार्षद भी हैं, तो महापौर के लिए कम से कम 36 पार्षदों का समर्थन अनिवार्य है। और यदि जिला पंचायत वाला रेट ही ही लगादिया जाये तो पहले ही झटके में 36 करोड़ और अविश्वास के समय 18 करोड़ की व्यवस्था करनी होगी। यानिकि 54 करोड़। फिर 54 करोड़ खर्च करने के बाद महापौर बने व्यक्ति से क्या आशा की जा सकती है कि वह जनहित में काम करेगा? सही मायनों में यह 54 करोड़ उसका निवेश है, जिसे वो चौगुना करने की कोशिश करेगा। और फिर करोड़ों लेकर वोट देने वाले पार्षद से क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि वह परिषद में जनहित के मुद्दे उठायेगा या महापौर की जनविरोधी और भ्रष्ट गतिविधियों के खिलाफ बोल सकेगा? यह मोटा मोटा यह लेखा जोखा एक नगर निकाय का है। सभी नगर निगमों, नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों का हिसाब लगाया जाये तो राशि अरबों में बैठेगी। उधर कमलनाथ सरकार बड़ी मासूमियत से कह रही है कि अप्रत्यक्ष चुनावों से 36 करोड़ बचने वाला है।
कांग्रेस खरीद फरोख्त कर नगर निकाय कब्जाने की कोशिश कर रही है। मगर इसकी कीमत जनता को चुकानी होगी, जो पैसा जन कल्याण और नगर विकास पर खर्च होना चाहिये, वह पैसा भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाने और अपनी नैया पार लगाने के लिए बहेगा।
दूसरा चुनाव यदि गैर राजनीतिक आधार पर होते हैं तो इससे दो नुकसान होंगे। एक तो राजनीतिक पार्टियां जनता से वायदे करने में बच जायेंगी। और यदि राजनीतिक दल नहीं होंगे तो जातिवाद, पैसा, दारू सहित अनैतिक तरीकों का उपयोग चुनावों में खुलेआम होगा। इन तरीकों से कांग्रेस अगर नगर निकायों पर कब्जा करती है तो क्या उससे भाजपा की साम्प्रदायिक फासीवादी विचारधारा को परास्त करने में मदद मिलेगी?
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