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 आरएसएस प्रमुख के फासीवादी बोल

आरएसएस प्रमुख का भाषण, हमारे देश में हुए दक्षिणपंथ के सुदृढ़ीकरण का सबूत है और आने वाले समय में जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, जनता की रोजी-रोटी और मौलिक अधिकारों पर होने जा रहे और ज्यादा हमलों की ओर इशारा करता है।

आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत का विजयादशमी संबोधन, आरएसएस में समायी फासीवादी विचारधारा की झलकियां पेश करता है। आरएसएस प्रमुख ने भीड़ हत्या की घटनाओं को ‘‘लिंचिंग’’ कहे जाने पर आपत्ति जतायी। उन्होंने कहा कि, ‘‘ऐसी घटनाओं को, जो परंपरा भारत की नहीं है, ऐसी परंपरा को दर्शाने वाले लिंचिंग जैसे शब्द देकर, सारे देश को व हिंदू समाज को सर्वत्र बदनाम करने का प्रयास करना; देश के तथाकथित अल्पसंख्यक वर्ग में भय पैदा करने का प्रयास करना; ऐसे षडयंत्र चल रहे हैं, यह हम को समझना चाहिए।’’

यह वाक्य ही आरएसएस के दोमुंहेपन और उसके घोर सांप्रदायिक नजरिए को बेनकाब करने के लिए काफी है। एक ही झटके में उन्होंने भीड़ द्वारा लिंचिंग की घटनाएं होने को ही नकार दिया है। यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि लिंचिंग की संज्ञा के साथ कोई इलाकाई-सांस्कृतिक अर्थछवि नहीं जुड़ी है। इसका इस्तेमाल किसी भी भीड़ हमले के लिए किया जाता है और इसमें भीड़ हत्या तक आती है। इतना ही नहीं इसी वाक्य में भागवत इसका आरोप भी लगा देते हैं कि लिंचिंग की निंदा करना, समूूचे हिंदू समाज को बदनाम करना है। वह तो इतना भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि गोगुंडों द्वारा अल्पसंख्यकों को लिंचिंग का निशाना बनाया गया है। उल्टे अपने इसी भाषण में वह इसका भी दावा करते हैं कि ऐसी घटनाएं इकतरफा नहीं हैं। वह तो अल्पसंख्यकों को अल्पसंख्यक मानने को भी तैयार नहीं हैं और उन्हें ‘‘तथाकथित अल्पसंख्यक वर्ग’’ करार देते हैं।

सचाई यह है कि भीड़ द्वारा लिंचिंग की घटनाओं में बीसियों लोग मारे गए हैं और देश के सुप्रीम कोर्ट ने भी 2018 की जुलाई में लिंचिंग की घटनाओं ‘भीड़तंत्र की भयावह करतूतें’ करार देते हुए उसकी भर्त्सना की थी। इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए अनेक निवारक तथा उपचारात्मक कदमों का आदेश भी दिया था। उसने संसद से भी इसका आग्रह किया था कि गोगुंडागर्दी और लिंचिंक करने वाली भीड़ों से निपटने के लिए, एक अलग लिंचिंग-विरोधी कानून बनाए।

लेकिन, आरएसएस प्रमुख ने तो भीड़ द्वारा लिंचंग की सचाई को ही यह कहकर चुनौती दी है कि यह तो हिंदू समाज और देश को बदनाम करने की कोशिश है। उनका कहना है, ‘‘कुछ घटनाओं को जानबूझकर करवाया गया है तथा कुछ घटनाओं को विपर्यस्त रूप में प्रकाशित किया गया है।’’ इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट की राय के विपरीत, उनका दावा है कि इसी घटनाओं से निपटने के लिए मौजूदा कानून ही काफी हैं।

अचरज की बात नहीं है कि ऐसे दृष्टिïकोण के चलते सत्ताधारी आरएसएस-भाजपा जोड़ी ने, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अनदेखा ही कर दिया है। मोदी सरकार न तो संसद में कोई लिंचिंग-विरोधी कानून लाने के लिए तैयार है और न ही संबंधित सरकारों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के इसके निर्देशों का ईमानदारी से पालन किया गया है कि भीड़ द्वारा लिंचिंग के प्रकरणों की त्वरित तफ्तीश हो और विशेष अदालतों के जरिए तेजी से सुनवाई हो।
भागवत का तो दावा है कि लिंचिंग का झूठा शोर मचाकर, देश और हिंदुओं को ‘‘बदनाम’’ करने का षडयंत्र रचा जा रहा है। इसी तरह के विकृत सोच का नतीजा है कि इस मुद्दे पर देश के 49 जाने-माने नागरिकों, कलाकारों तथा बुद्धिजीवियों की प्रधानमंत्री के नाम चिठठी को राजद्रोह का जुर्म बना दिया गया है और उनके खिलाफ एफआइआर दर्ज कर ली गयी है।

आरएसएस प्रमुख ने जोर-शोर से इसका भी एलान किया है कि संघ की ‘‘ अपने राष्ट्र के बारे में, हम सब की सामूहिक पहचान के बारे में, हमारे देश के भाव की पहचान के बारे में स्पष्टï दृष्टिï व घोषणा है’’ कि, ‘‘भारत, हिंदुस्थान, हिंदू राष्ट्र है।’’ वह यह दोहराते हैं कि सभी भारतीय हिंदू हैं और आरएसएस की जानी-पहचानी लफ्फाजी का सहारा लेते हैं कि, ‘‘हिंदू समाज, हिंदुत्व, इनके बारे में अनेक प्रमाणहीन विकृत आरोप लगाकर उनको भी बदनाम करने का प्रयाय चलता ही आया है।’’ इतना ही नहीं वह ‘‘स्वभाषा, स्वभूषा तथा स्वसंस्कृति’’ की दुहाई देकर, एक राष्ट्र, एक भाषा, एक संस्कृति के आरएसएस के विचार को पुनर्जीवित करते नजर आते हैं।
हिंदुत्व की दृष्टि को प्रस्तुत करने के बाद, भागवत मौजूदा परिस्थिति के एक और पहलू पर आ जाते हैं-हिंदुत्व और कार्पोरेट पूंजी का गठजोड़। वह मोदी सरकार के आक्रामक तरीके से विदेशी पूंजी को न्यौतने का और उसकी निजीकरण की मुहिम का अनुमोदन करते हैं। वह दावा करते हैं कि अनेक क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को न्यौतना और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में विनिवेश करना, ‘‘अर्थव्यवस्था में बल भरने’’ के लिए जरूरी है। बेशक, इसके बाद वह स्वनिर्भरता और स्वदेशी के बारे में अपनी जानी-पहचानी बतकही भी करते हैं। लेकिन, इससे इस सचाई को छुपाया नहीं जा सकता है कि आरएसएस पूरी तरह से भाजपा सरकार की नवउदारवादी नीतियों के साथ है। देश के कोयला भंडारों का दोहन करने के लिए विदेशी कंपनियों को न्यौता देने को और रक्षा उत्पादन सुविधाएं निजी हाथों में बेचने को, किस तरह से स्वनिर्भरता का नाम दिया जा सकता है?

हिंदुत्ववादी तानाशाही के पीछे मुख्य चालक शक्ति होने के नाते भागवत ने संविधान की धारा-370 को खत्म करने और जम्मू-कश्मीर राज्य को तोडऩे के मोदी सरकार के कदमों की प्रशंसा की है। आरएसएस की अखंड भारत की कल्पना में, संघीय व्यवस्था के लिए कोई जगह ही नहीं है।

आरएसएस प्रमुख का भाषण, हमारे देश में हुए दक्षिणपंथ के सुदृढ़ीकरण का सबूत है और आने वाले समय में जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, जनता की रोजी-रोटी और मौलिक अधिकारों पर होने जा रहे और ज्यादा हमलों की ओर इशारा करता है।
                                                                                                     


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प्रकाश करात

लेखक-सी.पी .आई.(एम) पोलिट ब्यूरो सदस्य है

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