संसद के नागरिकता कानून पास करने के बाद गुुजरे एक पखवाड़े में हमने, भारत के हाल के राजनीतिक इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण आंदालनों में से एक को देखा है। इस आंदोलन के क्रम में दो पहलू खासतौर पर देखने को मिले हैं, जो हैं तो आपस में जुड़े हुए, पर एक-दूसरे के विरोधी हैं। पहला पक्ष है, मोदी सरकार का तानाशाह चेहरा पूरी तरह से बेनकाब हो गया है। दूसरा पक्ष यह है कि सीएए और एनआरसी के खिलाफ देश भर में जितने व्यापक पैमाने पर विरोध कार्रवाइयां हुई हैं, उन्होंने दिखा दिया है कि हमारे धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र तथा संविधान पर मोदी सरकार के हमले के खिलाफ कैसा व्यापक प्रतिरोध खड़ा हो रहा है।
केंद्र की मोदी सरकार ने और राज्यों की भाजपाई सरकारों ने, नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों के खिलाफ चौतरफा हमला बोल दिया है। लोगों के इकठठा होने व सभा आदि करने के अधिकार, शांतिपूर्ण विरोध करने के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सब पर हमले हो रहे हैं। दफा-144 का, जो चार से ज्यादा लोगों के एक जगह जमा होने पर रोक लगाती है, भाजपा-शासित राज्यों में और दिल्ली में भी, जहां की कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी सीधे केंद्र सरकार के हाथों में है, आंख मूंदकर इस दफा का इस्तेमाल किया जा रहा है। बेशक, इसका सबसे अतिवादी रूप भाजपा-शासित उत्तर प्रदेश में देखने को मिला है, जहां पूरे के पूरे राज्य में ही यह पाबंदी लगा दी गयी।
दफा-144 के जो, वास्तव में एक औपनिवेशिक राज के कानून को ही पुनर्जीवित करती है, इस तरह से अंधाधुंध इस्तेमाल से, विरोध प्रदर्शन करने के संविधानप्रदत्त अधिकार का ही मजाक बनकर रह गया है।
दफा-144 के ऐसे अंधाधुंध इस्तेमाल साथ ही, भाजपाई सरकारों ने इंटरनैट बंद करने का भी अंधाधुंध इस्तेमाल किया है। असम में इंटरनैट पूरे नौ दिन तक बंद रहा और यह पाबंदी तभी उठायी गयी, जब हाईकोर्ट ने उसे इसके लिए मजबूर कर दिया। याद रहे कि शेष भारत में इंटरनैट बंद करने का यह हथियार आजमाए जाने से पूरे साढ़े चार महीने पहले से कश्मीर में इंटरनैट बंद चल रहा था, जो दुनिया भर में एक रिकार्ड है।
विरोध प्रदर्शन करने वालों के खिलाफ सबसे नृशंस दमन भी उत्तर प्रदेश में ही हो रहा है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक, पुलिस की गोलीबारी में 20 मौतें हो चुकी थीं और बीसियों दूसरे लोग गंभीर रूप से घायल थे। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश की पुलिस पहले तो एक भी गोली चलाने से ही इंकार कर रही थी। पुलिस की गोली लगने से हुई मौतों की पोस्टमॉर्टम रिपोर्टें तक दबा दी गयीं। बाद में ही कहीं जाकर एक मामले में पुलिस यह मानने को तैयार हुई कि पुलिस आफीसर के ''आत्मरक्षा" के लिए गोली चलाने से, एक व्यक्ति की मौत हुई थी। खुद मुख्यमंत्री आदित्य नाथ ने ''बदला" लेने की बात कही थी और यह एलान किया कि जो भी लोग सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान के लिए जिम्मेदार होंगे, उनसे इस नुकसान की भरपाई की जाएगी। जाहिर है कि मुख्यमंत्री के इस एलान ने अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ पुलिस दमन और बढ़ा दिया है और वास्तव में कुछ जगहों पर तो जुर्माना वसूल करने के लिए नोटिस भी जारी कर दिए गए हैं। मिसाल के तौर पर रामपुर जिले में, 28 लोगों पर 14 लाख रुपए को जुर्माना भरने के आदेश दिए गए हैं। इसने रॉलट कानून के खिलाफ आंदोलन को कुचलने के लिए, पंजाब में ब्रिटिश राज की बदतरीन ज्यादतियों की याद दिला दी है।
भाजपा के राज में अभिव्यक्ति और असहमति की स्वतंत्रता का दमन आम नियम ही हो गया है। सीएए तथा एनआरसी के खिलाफ सोशल मीडिया पर अपनी बात कहने तक के लिए लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है या उन पर मुकदमेे थोपे जा रहे हैं। सीएए के खिलाफ एक विरोध सभा के बारे में एक पोस्ट शेयर करने के लिए, एक छात्र का कॉलेज से निकाल दिया गया है। इमर्जेंसी की याद दिलाने वाली एक कार्रवाई में, सूचना व प्रसारण मंत्रालय द्वारा समाचार चैनलों के लिए दो-दो एडवाइजरियां जारी की गई हैं। इनमें मीडिया को आगाह किया गया था कि ऐसी किसी सामग्री का प्रसारण नहीं करें, जिससे हिंसा भडक़ सकती हो या जिसे राष्ट्र विरोधी रुख को बढ़ावा मिलता हो! दूसरे निर्देश में यह भी कहा गया था कि ऐसी कोई सामग्री न दिखाएं जिसमें 'कोई ऐसी चीज हो, जिसका असर देश की अखंडता पर पड़ सकता।
मौजूदा निजाम की फूटरपरस्त सांप्रदायिक तिकड़मों को परे धकेलते हुए, देश भर के मेहनतकश 8 जनवरी को जबर्दस्त आम हड़ताल कर के, इसकी तानाशाही का जोरदार जवाब देने जा रहे हैं।
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