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मध्यप्रदेश : जनादेश के साथ विश्वासघात 

भाजपा नेताओं नरोत्तम मिश्रा, शिवराज सिंह चौहान और भूपेंद्र सिंह सहित कई नेताओं के आडियो और वीडियो जारी हुए थे, जिसमें कांग्रेस विधायकों को 100 करोड़ रुपए लेकर सरकार गिराने की बात कही गई थी।

फोटो - गूगल

 जब दुनिया कोरोना वायरस हमले की चपेट में है। मध्यप्रदेश दोहरे हमले का शिकार हुआ। कोरोना वायरस के चलते लाँकडाउन को झेलने के साथ ही भाजपा के जनविरोधी वायरस ने जनादेश को भी अपनी चपेट में ले लिया है। 2018 के विधान सभा नतीजों के जनादेश को 15 माह में पलट कर फिर से शिवराज ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है। 
वैसे भाजपा को यह जनादेेश शुरू से ही हजम नहीं हुआ था। जनादेश को भारी मन से स्वीकारते हुए शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि भलें ही सीटें कांग्रेस को ज्यादा मिली हैं, मगर भाजपा को वोट ज्यादा मिले हैं। पाठकों को याद होगा, तब भी इन पन्नों पर हमने लिखा था कि क्या भाजपा अनुपातक चुनाव प्रणाली का समर्थन करती है। भाजपा के एक और नेता कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था कि जिस दिन भाजपा हाईकमान का आदेश होगा, प्रदेश में 15 दिन में भाजपा की सरकार को वापस स्थापित कर दिया जायेगा। हद तो यह थी कि मतदाताओं की ऊंगली की स्याही भी नहीं सूखी थी और भाजपा नेताओं नरोत्तम मिश्रा, शिवराज सिंह चौहान और भूपेंद्र सिंह सहित कई नेताओं के आडियो और वीडियो जारी हुए थे, जिसमें कांग्रेस विधायकों को 100 करोड़ रुपए लेकर सरकार गिराने की बात कही गई थी।  फिर 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान तो शिवराज सिंह चौहान और भाजपा नेताओं के प्रचार का मुख्य मुद्दा ही यह था कि यदि आपने दिल्ली में मोदी सरकार बन गई तो प्रदेश में भाजपा सरकार मुफ्त में बन जायेगी। शिवराज सिंह चौहान के अपने शब्दों में एक के साथ एक फ्री। जनादेश के प्रति भाजपा की आस्था की यह वानगी भर है।
भाजपा : बेशर्मी की इंतहा
हाल का घटनाक्रम एक मार्च को शुरू हुआ था, जब दिग्विजय सिंह ने भाजपा पर आरोप लगाया था कि वह कांग्रेस की सरकार को गिराने के लिए विधायकों की खरीदफरोख्त करने की योजना बना रही है। तब भाजपा नेताओं ने इसे दिग्विजय सिंह की दिमागी खुराफात करार देते हुए कहा था कि वे राज्य सभा की अपनी सीट पक्का करना चाहते हैं। मगर अगले ही दिन भाजपा कांग्रेस और कांग्रेस समर्थित दस विधायकों को भोपाल से उठाकर गुडग़ांव के एक रिसोर्ट में ले आई थी। जिसे निकालने के लिए प्रदेश सरकार के दो मंत्रियों को गुडग़ांव पहुंचना पड़ा। उन मंत्रियों और दिग्विजय सिंह के प्रयासों से वे विधायक वापस आए। भाजपा के इस आपरेशन लोटस के फेल हो जाने के बाद भाजपा ने आपरेशन बी शुरू किया, जिसकी कमान प्रदेश नेताओं की बजाय अमित शाह ने अपने हाथों में संभाली। 

इस आपरेशन के तहत कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक छह मंत्रियों सहित 22 विधायकों को पहले भोपाल से दिल्ली और फिर दिल्ली से बैंगलूरू के पास एक रिसोर्ट में बंदी बनाया गया। विधायकों के मोबाईल छीन लिए गए और परिजनों से भी बात पर रोक लगा दी गई। मजेदार बात यह है कि इस पूरे घटनाक्रम को भाजपा कांग्रेस का अंदरूनी मामला बताती रही और इसमें भाजपा के हाथ होने को नकारती रही। जबकि इन विधायकों के भोपाल से दिल्ली और दिल्ली से बैंगलूरू पहुंचाने के लिए चार्टर प्लेन की व्यवस्था भाजपा की ओर से की गई। भाजपा ने इस आरोप का खंडन नहीं किया है कि हर बार चार्टर प्लेन का पेमेंट भाजपा कार्यालय से हुआ है। 

इन विधायकों पर निगरानी रखने के लिए भाजपा विधायक अरविंद भदौरिया, उमाशंकर गुप्ता और पूर्व विधायक सुदर्शन गुप्ता 22 मार्च तक  उनके लौटने तक बैंगलूरू में रहे। भाजपा नेता और शिवराज सरकार के गृहमंत्री रहे भूपेंद्र सिंह ही  चार्टर प्लेन से इन 22 विधायकों के इस्तीफे चार्टर प्लेन से बैंगलूरू से लाये और भाजपा नेताओं ने ही यह इस्तीफे विधानसभा अध्यक्ष को सौंपे। भाजपा के  राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इन विधायकों से बैंगलूरू जाकर बात की। इधर प्रदेश सरकार के चार मंत्री दो बार अपनी पार्टी के इन विधायकों को मिलने पहुंचे तो उन्हें रिसोर्ट में प्रवेश तक नहीं दिया गया। एक मंत्री को तो गिरफ्तार कर लिया गया। एक विधायक के बुजुर्ग पिता को भी बेटे से नहीं मिलाया गया। अंत में  दिग्विजय सिंह आठ मंत्रियों और करीब इतने ही विधायकों सहित इनसे मिलने पहुंचे तो उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। 

20 मार्च को कमलनाथ सरकार द्धारा इस्तीफा दे देने के बाद ही ये विधायक लौटे। दिल्ली में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के निवास पर भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर उप चुनावों में टिकट का आश्वासन पाने और फिर भोपाल में शिवराज के साथ डिनर उड़ाने के बाद ही अपने घरों में पहुंचे हैं। क्या इसके बाद भी कोई संदेह रह जाता है कि इस घटनाक्रम में भाजपा का कोई हाथ नहीें है?

सिंधिया का विश्वासघात
मध्यप्रदेश में कांग्रेस के तीन छत्रपों में से एक ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोडकऱ भाजपा में चले जाने के बाद यह कहा जा रहा है कि प्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय द्धारा उन्हें किनारे करने के कारण मजबूर में वे भाजपा में शामिल हुए हैं। मगर अंदर ही अंदर खिचड़ी बहुत पहले से पक रही थी। पिछले तीन सालों में यह अफवाह कई बार उठी कि अरुण जेटली के साथ चर्चा हो गई और वे भाजपा में जाने वाले हैं। इन अफवाहों का सिंधिया ने कभी खंडन नहीं किया। 

यह बात सत्य है कि विधान सभा चुनावों में वे प्रचार अभियान समिति के चेयरमैन थे। मगर जब विधायक दल का नेता चुनने की बात आई तो 114 में से 90 से ज्यादा विधायकों ने कमलनाथ का समर्थन किया। इसके बाद भी मंत्री मंडल में उसे बराबर की भागीदारी मिली। 29 सदस्यीय मंत्रीमंडल में तीनो छत्रपों के आठ आठ मंत्री थे। जैसाकि अब चर्चा हो रही है, नाराजगी को दूर करने के लिए राजस्थान फारमूले की तरह उसे भी उप मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया गया। मगर वह अपने जिस मंत्री को उप मुख्यमंत्री बनाने की बात कर रहे थे, उसके काफी जूनियर होने से बाकी लोगों को यह स्वीकार्य नहीं था। कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष का पद पर भी चर्चा हुई, मगर वे इस पर भी अपने किसी समर्थक को ही बिठाना चाहते थे। 
जैसाकि पहले ही नोट किया गया है, खिचड़ी बहुत पहले से ही पक गई थी। प्रदेश में भी लोकसभा चुनावों का जब तीसरा अैर चौथा चरण बाकी था, सिंधिया गुना में मतदान होने के बाद ही अपने बेटे के परीक्षा में पास होने का जश्र मनाने अमरीका चले गए। और चुनाव परिणाम आने व गुना से लोकसभा चुनाव हार एक सामंत के लिए सहन करना बहुत कठिन था। अब तो उसकी भुआ ने ही बताया है कि चुनाव हारने के बाद सिंधिया ने छह दिन तक खाना नहीं खाया था और उन्हें जाकर उसे मनाना पड़ा। चर्चा तो यह भी है कि गुजरात में उसकी सुसराल की ओर से भी सिंधिया को बीजेपी में लाने के प्रयास एक साल से चल रहे थे। 

लोकसभा चुनाव के बाद वह खुद ही बदला बदला नजर आया। नरेंद्र मोदी सरकार ने जब धारा 370 को खत्म किया गया तो कांग्रेस पार्टी ने उसका विरोध किया, मगर सिंधिया ने ट्वीट कर इसका समर्थन किया। बाद में सीडब्ल्यूसी में हुई आलोचना के बाद ही उक्त ट्वीट को हटाया गया। जब मोदी सरकार सीएबी लेकर आई तो भी सिंधिया ने इसका समर्थन किया। बीच में उसने अपने फेसबुक पेज से कांग्रेस के महासचिव सहित सारे पदों को हटाकर केवल जनसेवक ही कर दिया था। 

खैर छह मार्च को उसने अमित शाह और नरेंद्र मोदी से मिलने के बाद कांग्रेस अध्यक्षा को इस्तीफा कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा भेज कर कहा कि वे जन सेवा के लिए ऐसा कर रहे हैं।

सिंधिया के कांग्रेस छोडऩे और भाजपा में शामिल होने पर दो तरह की प्रतिक्रियाएं हुई हैं। पहली का जिक्र हम कर चुके हैं कि उसे कांग्रेस में काम नहीं करने दिया जा रहा था। दूसरी प्रतिक्रिया में इस कदम को 1857 को फिर से दोहराने और फिर से गद्दारी करने की बात कही जा रही है। मगर ज्योतिरादित्य का अपराध इससे कहीं बड़ा है।

सिंधिया रियासत की परंपरा धर्मनिरपेक्ष परंपरा रही है। दशहरा और मोहरम सिंधिया रियासत के रियासती त्यौहार हुआ करते थे। ग्वालियर में एक ही परिसर में रियासत की ओर से मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे और चर्च का निर्माण किया गया है। ज्योतिरादित्य के पिता माधव राव सिंधिया ने इस धर्मनिरपेक्ष परंपरा को सुरक्षित रखा। राजमाता विजयराजे के भाजपा में होने के बावजूद आरएसएस की ओर से आगरा में माधवराव पर हमला हुआ था। कांग्रेस से नाराज होने और अपनी अलग पार्टी बनाने के बाद भी उसने भाजपा और साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष से समझौता नहीं किया। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस परंपरा से विश्वासघात किया है और वह भी माधवराव सिंधिया की 75वीं जयंती के अवसर पर। 

कांग्रेस की नाकामिया
भाजपा की साजिशों और सिंधिया के विश्वासघात के बावजूद कांग्रेस अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नही हो सकती है। यह खामियां भी दो स्तर पर हैं। विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने धोषणापत्र जारी करने की बजाय वचनपत्र जारी किया था। इसमें सबसे महत्वपर्ण था किसानों के दो लाख रुपए तक के कर्जमाफ का वायदा। मगर 15 माह में केवल किसानो का 50 हजार तक का ही कर्जमाफ हुआ। अब जून 20 तक 1 लाख तक के कर्जमाफ होने की बात कही जा रही थी, कि सरकार चली गई। किसानो का पिछले साल के गेहूं का बोनस अभी तक अटका हुआ है। दूध उत्पादकों को पांच रुपए लीटर बोनस भी अमल में नहीं आया। मंडियों में किसानो की लूट भी बंद नही हुई। 

भाजपा सरकार के खिलाफ वातावरण बनाने वाले तबकों में आंगनवाड़ी, आशा ऊषा, स्वास्थ्य कर्मी, शिक्षा कर्मी, पंचायत कर्मी, गुरूजी, अतिथि शिक्षक सहित 12 लाख से अधिक वो लोग हैं जो सरकारी विभागों में अस्थाई रूप से काम कर रहे हैं। कांग्रेस ने इन्हें भी स्थाई करने का वायदा वचनपत्र में किया था। मगर उन्हें भी निराशा ही हाथ लगी है। हां बिजली कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए मध्यम वर्ग पर बोझ डालकर गरीबों को कुछ राहत जरूर दी गई है। 

हद तो यह है कि श्रम कलयाण बोर्ड, श्रम सलाहकार परिषद सहित ट्रेड यूनियनों की भागीदारी वाली जिन समितियों को भाजपा ने प्रभावहीन कर दिया था, उनका गठन तक भी नहीं हुआ। विभिन्न निगमों और मंडलों के अध्यक्षों की नियुक्तियां भी 15 महीने में कमलनाथ सरकार नहीं कर पायी। यह बात सही है कि सिंधिया के विश्वासघात से लोग खुश नहीं है। मगर कोई भी तबका ऐसा नहीं है जो कमलनाथ सरकार के जाने से दुखी हो। 

संगठनिक स्तर पर कांग्रेस में खींचातान बनी रही। कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष की नियुक्ति तक नहीं हुई। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वे दोनो पदों पर बने रहे। मंत्रीमंडल का विस्तार भी आपसी खींचतान के कारण नहीं हो पाया। शायद यह आजाद भारत में पहला मंत्रीमंडल था, जिसमें एक भी राज्यमंत्री नहीं था। गुटबाजी के कारण मंत्रीमंडल के गठन में न तो सारे समुदायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हुआ और न ही क्षेत्रों का। जिन जिलों में कांग्रेस ने विधान सभा की सारी सीटें जीती थी,उन जिलों का भी मंत्रीमंडल में प्रतिनिधित्व नहीं था। इसका असर यह हुआ कि भाजपा जब सरकार के खिलाफ अक्रामक हो रही थी, कांग्रेस अपनी निष्क्रियता को नहीं तोड़ रही थी। 

कमलनाथ या भाजपा इस गलतफहमी में थी कि वे भाजपा के साथ समझदारी बनारक सरकार चला सकती है। इसलिए ई टेंडरिंग, व्यापमं घोटाले, सिंहस्थ घोटाले, सहकारिता घोटाले सहित किसी भी घोटाले पर 15 महीने में सरकार ने कोई ठोस कार्यवाही नहीं की। हद तो यह है कि हनीट्रैप में भाजपा के शीर्षथ नेताओं के फंसे होने के बाद भी कांग्रेस ने उन्हें बेनकाब नहीं किया।

भाजपा सरकार का आना
कोरोना वायरस की भयंकरता और लाँकडाउन के बीच मास्क पहने शिवराज सिंह चौहान ने 24 मार्च को मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है। चर्चा यह है कि इस सरकार के गठन की लागत 1500 करोड़ है। इसमें भाजपा के अपने 106 विधायकों का हफ्ता भर से अधिक समय तक मानेसर और फिर सीहोर के महंगे रिसोर्ट में रखना शामिल नहीं है। 

सरकार गठन के बाद भी भाजपा में सब ठीकठाक नहीं है। कैलाश विजयवर्गीय ने पूरे घटनाक्रम में चुप रहना ही ठीक समझा। संघ से नजदीकी वाले प्रभात झा भी राज्य सभा की अपनी सीट सिंधिया को देने से दुखी हैं। सुना है कि नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव और नरोत्तम मिश्रा भी मुख्यमंत्री बनने के सपने देख रहे थे। सिंधिया समर्थक 22 विधायकों को अब भाजपा ने टिकट देने का वायदा किया है। इससे स्थानीय नेताओं में भी नाराजगी होगी। पिछले कई चुनावों में भाजपा के स्थानीय नेताओं की इन नेताओं के साथ कटुता है। उप चुनावों में क्या वे इनका समर्थन करेंगे या वे कांग्रेस के बागियों के खिलाफ बगावत करेंगे?

हां सिंधिया का बेनकाब होना शुरू हो गया है। राज्यसभा सीट के लिए उसने भारी कीमत चुकाई है। अब तो आर्थिक अनियमितताओं के मुकदमें भी वापस होना शुरू हो गए हैं। जाहिर है कि सत्ता की लोलुपता और अपने आर्थिक हितों के लिए ही उसने जनादेश के साथ विश्वासघात किया है। 

 


About Author

जसविंदर सिंह

राज्य सचिव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) मध्यप्रदेश

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