कुछ दिनों पहले महिलाओं की एक बैठक के दौरान गेहूं की कटाई में लगी शाम ढले खेत से वापस आकर अपने घर के काम में लग जाने वाली मजदूर महिलाओं के साथ बातचीत हुयी। एनपीआर, एनआरसी के बारे में समझाते हुये जब उनसे दुनियां में फैली भयानक बीमारी के बारे में पूछा तो बहुत मासूमियत से उन्होंने बीमारी का नाम डायनोसोर बताया। सुन कर दिमाग में स्टीवन स्पीलबर्ग की जुरासिक पार्क नाम की फिल्मों के दृश्य घूम गये, जिनमें स्पीलबर्ग ने कलात्मक लेकिन प्रेरक तरीके से बताया था कि प्रकृति से खिलवाड करने गये अति उत्साही और उन प्राणियों का उपयोग अपने फायदे में करने की कोशिश करने वाले बाजारवादियों ने किस तरह से पूरी दुनियां की जान खतरे में डाल दिया था। इन्ही स्पीलबर्ग की एक फिल्म 2011 में आई थी कांटेजियन। बहुत सफल फिल्म थी लेकिन देखने वालों को यह नहीं मालूम था कि आठ साल में ही इसी तरह का घातक अनुभव उन्हें अपनी जिंदगी में ही होने वाला है। पिछले दिसंबर से पूरी दुनियां में एक अति सूक्ष्म लेकिन अति ताकतवर वायरस ने पूरी दुनियां में तबाही मचा कर रखी हुयी है। ऐसा लग रहा है जैसे मतवाले हाथी के कान में चींटी घुस गयी हो। वायरस जिसे न तो देश की सीमा में बांधा जा सकता है न ही धर्म या जाति के बंधनों में। न ही इससे अमीर छूटा है न ही गरीब। न शासक छूटा है न ही जनता। न तो यह वीसा की दरकार रखता है न ही नागरिकता की। पूरी दुनियां इससे जूझ रही है और जूझते जूझते हांफ रही है। जेयर्ड डायमंड ने अपनी पुस्तक गन्स,जम्र्स एंड स्टील में महमारियों के पूरी दुनियां में फैलने का जो कारण बयान किया था वह आज कोरोना के कोविड 19 वायरस के फैलाव ने सही साबित किया है।
इस वायरस ने एक बात फिर से साबित कर दी है कि असली संघर्ष इंन्सान का प्रकृति से ही है जो मित्रतापूर्ण संघर्ष होगा। जो अपने फायदे के लिये इन्सान को धर्म,जाति,भाषा और देशों की सीमाओं मे अलग अलग करके प्रकृति का उपयोग करने वाले बाजारवाद के सहारे नहीं बल्कि प्रकृति को समझते हुए इन्सान के बीच मोहब्बत और भाईचारा बनाकर किया जायेगा। लेकिन उसके पहले ानवता को बचाना है तो इस बाजारवादी सोच वाले शासक वर्ग से भी लडऩा होगा। बीमारी के इस महा दौर में अमरीका और क्यूबा के दो चेहरे भी सामने आये हैं।
दुनियां भर को मानव अधिकारों का पाठ पढाने वाले अमरीकी शासन ने अनेक अमरीकी और 667 ब्रिटिश यात्रियों वाले एक ब्रिटिश जहाज को अपने किसी बंदरगाह पर रूकने नहीं दिया लेकिन उसी जहाज को क्यूबा ने न केवल अपने बंदरगाह पर आने दिया बल्कि उन यात्रियों का इलाज भी किया। आज एक ओर जहां अमरीका कोरोना की टेस्टिंग किट के उत्पादन का अधिकार अपने हाथ में लेकर भारी मुनाफा कमाने की राक्षसी कवायद में लगा है वहीं छोटे से समाजवादी देश क्यूबा ने चीन के बाद सबसे अधिक प्रभावित इटली में अपने बावन डॉक्टरों की एक पूरी टीम को इटली के चिकित्सा जगत की मदद करने भेज दिया है। चीन भी दुनियां को इस आपदा से निपटने के लिये मदद करने आगे आया है।
हमारा देश भी इस भयानक बीमारी से बहुत डरते डरते सामना कर रहा है। लेकिन ऐसा शासन शायद ही कहीं और होगा जो सरकारी नीतियों के खिलाफ चल रहे आंदोलनों को कुचलने और अपमानित करने में इस समय का भी उपयोग करेगा। एनआरसी, एनपीआर के खिलाफ देश भर में चल रहे आंदोलनों की आंदोलनकारी महिलायें जब स्थिति की गंभीरता को समझते हुए अपने स्थानों से हट रही थीं और आंदोलन को स्थगित कर रही थीं तब बेहद असभ्य और तानाशाहीपूर्ण तरीके से उनके धरना स्थल को खाली करना और टेंट को उखाडऩा सरकार की उस प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है जो किसी भी स्थिति का उपयोग अपने पक्ष में करने वाली होती है। यह बात और है कि जिस मांग को लेकर आंदोलन चल रहा था उस पर अस्थाई रोक भी इसी वायरस के चलते सरकार को लगानी पड़ी है।
वाट्स अप युनिवर्सिटी के सहारे से अपार ज्ञान हासिल करने वाले और बांटने वाले विद्वान पूरी दुनियां पर छाये इस संकट के समय में भी अफवाहें फैलाकर और अपनी ओछी राजनीति का घोड़ा आगे करने में पीछे नहीं रह रहे हैं। 22 मार्च इतवार को पूरे दिन घर में रहकर इस वायरस के संक्रमण को कुछ रोकने में सफल रहे देश में शाम को घरों के बाहर आकर,चौराहों पर इक_े होकर, अपनी बुद्धिहीनता का परचम लहराते हुये कुछ लोगों ने उस पूरे दिन का असर खत्म कर दिया। ये कौन थे यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
पूरी दुनियां में मचा तूफान एक दूसरे की मदद,सलाह और एकता के साथ किये गये वैज्ञानिक प्रयासों से ही थम सकता है। घंटे बजाने और शंख फूंकने से नहीं। इतिहास में ऐसे हादसे जातीय,क्षेत्रीय,धार्मिक, और भाषायी आधार पर पैदा हुये क्षुद्र राजनैतिक मतभेदों को पीछे रखते हुए आंखे खोलने वाले बनकर भी सामने आये हैं। इस आपदा से भी इसी तरह निबटाकर दुनिया बच भी सकती है बढ़ भी सकती है।
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