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महापलायन; कुछ को बचाने के लिए मेहनतकशों की बलि चढाने पर आमादा निजाम 

प्रधानमंत्री ने लॉकडॉउन की तकलीफों के लिए 'माफी' जरूर मांगी, लेकिन अपने प्रशासन को सार्वजनिक रूप से इसका कोई निर्देश तक देने की जरूरत नहीं समझी कि मेहनत-मजदूरी करने वाले गरीबों के साथ अपराधियों जैसा सलूक करना बंद करें।

फोटो - गूगल

आखिरकार, मोदी सरकार के लॉकडॉउन का असली चेहरा सामने आ ही गया। देश भर में तमाम सामान्य गतिविधियों की तीन हफ्ते की मौजूदा तालाबंदी के पीछे, खौफनाक कोरोना वाइरस के संक्रमण से और किसी को भी बचाने की चिंता रही होगी, कम से कम गरीब-गुरबा और खासतौर पर मेहनत-मजूरी करने वालों को बचाने की चिंता नहीं है। लॉकडॉउन का पालन कराने के लिए भाजपा-शासित हरियाणा के पुलिस महानिदेशक के, 29 मार्च के निर्देश से यह बिल्कुल साफ हो जाता है। च्हरियाणा भर से प्रवासी मजदूरों के प्रवाहज् के सिलसिले में ही जारी किए गए निर्देश में, अंतर्राज्यीय सीमाएं पूरी तरह से सील करने और बस, ट्रक आदि वाहनों से ही नहीं बल्कि साइकिल पर या पैदल भी, किसी को भी राज्य की सीमा पार न करने देने के अलावा यह भी निर्देश दिया गया है कि इस मामले में जिला प्रशासन के निर्देशों की अवज्ञा करने वालों को बंद करने के लिए इंडोर स्टेडियमों और ऐसी ही अन्य सुविधाओं को स्थायी जेल घोषित कर दिया जाए।

कोई कह सकता है कि यह एक राज्य के पुलिस प्रमुख के कोरोना का मुकाबला करने के 'अति-उत्साह' का मामला भी तो हो सकता है। लेकिन, दुर्भाग्य सेे इस मामले में इस भ्रम की भी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी गयी है। प्रवासी मजदूरों को, उनसे काम तथा रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने के सारे साधन तथा मौके, कम से कम तीन हफ्ते के उनकी नजर से लंबे अर्से के लिए छीनने के बाद और सिर पर छत व अगले वक्त की रोटी तक की अनिश्चितता के बावजूद, अपने घर-गांव से सैकड़ों तथा हजारों किलोमीटर दूर बंद कर के रखने के लिए, पहले रेल-बसें आदि बंद कर, उनसे निकलने के सारे साधन छीन लिए गए। उसके बाद, उनके लिए सडक़ पर निकलना/ पैदल चलना भी प्रतिबंधित कर दिया गया और अब बाकायदा अपराध ही बना दिया गया है, जिसके लिए उन्हें जेल में बंद कर दिया जाएगा! इससे साफ है कि लॉकडॉउन के पहले दिन से ही, आम लोगों के साथ जगह-जगह पुलिस की जोर-ज्यादतियों की जो खबरें आ रही थीं, वह किसी संयोग का या यहां-वहां पुलिस अधिकारियों के अति-उत्साह का नतीजा नहीं थीं, बल्कि उस बुनियादी समझ का प्रतिफल थीं, जो कोरोना के संदर्भ में मेहनत-मजदूरी करने वालों को ऐसे खतरे के रूप में देखती है, जिससे संपन्नतर आबादी को बचाना है, न कि ऐसे नागरिकों के रूप में जिन्हें कोरोना की आफत से बचाना है।

जाहिर है कि यह किसी एक राज्य का मामला नहीं है। वास्तव में यह नजरिया शीर्ष पर केंद्र सरकार से ही, नीचे की ओर प्रवाहित हो रहा है। इसीलिए, अचरज की बात नहीं है कि हरियाणा के पुलिस महानिदेशक  के उक्त निर्देश वास्तव में केंद्र सरकार के कैबिनेट सचिव तथा गृह सचिव द्वारा पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात तथा दिल्ली के मुख्य सचिवों तथा पुलिस महानिर्देशकों के साथ 29 मार्च को ही की गयी वीडियो कान्फ्रेंसिंग बैठक के फौरन बाद आए थे। इस बैठक में केंद्र सरकार के शीर्षस्थ अधिकारियों ने बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों के पैदल ही सडक़ों पर लंबे सफर तय करने और विशाल संख्या में खासतौर पर दिल्ली महानगर के आनंद विहार बस टर्मिनल पर जमा हो जाने पर, भारी चिंता तथा नाखुशी जतायी। वास्तव में बैठक में यह भी दर्ज किया गया कि इन भारी भीड़ों को वहां से हटाने के लिए ही 27 तथा 28 मार्च की शामों को बड़ी संख्या में बसें मुहैया करानी पड़ी थीं। इसी बैठक में केंद्र के कैबिनेट सचिव ने यह स्पष्ट निर्देश दिया था कि राज्य सरकारें, लॉकडॉउन के दिशा-निर्देशों के खिलाफ लोगों के ऐसे बड़ी संख्या में आने-जाने को रोकने के लिए 'बाध्य' हैं। पुन: उन्होंने यह निर्देश भी दिया था कि, 'जिला मजिस्टे्रट तथा एसपी यह सुनिश्चित करें कि सडक़ों पर लोगों की कोई आवाजाही नहीं हो' हरियाणा के डीजी पुलिस का उक्त निर्देश, केंद्र सरकार के उक्त 'स्पष्ट निर्देशों' का ही पालन करता है।

तो कहीं यह अपनी कुख्यात असंवेदनशीलता के चलते नौकरशाही के ही 'अति-उत्साह' में, केंद्र सरकार की मंशा के भी खिलाफ चले जाने का मामला तो नहीं है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, इस बार की अपनी 'मन की बात' में एक बार से ज्यादा, लॉकडॉउन से खासतौर पर गरीबों को हो रही तकलीफों के लिए माफी मांगने की 'अतिरिक्त संवेदनशीलता' का प्रदर्शन नहीं किया था? वास्तव में खुद प्रधानमंत्री ने तो 24 मार्च की देर शाम के अपने देशव्यापी लॉकडॉउन की घोषणा के संबोधन में भी बार-बार हाथ जोडकऱ लोगों से 21 दिन घर में ही रहने प्रार्थना भी की थी। लेकिन क्या यह महज संयोग ही था कि प्रधानमंत्री की उक्त प्रार्थना को स्वीकार कराने के लिए, अगली सुबह से ही पुलिस के देश के बड़े हिस्से में खासतौर पर गरीब-गुरबा पर डंडों की मार और वर्दी के आतंक का खुलकर सहारा लेने के वीडियो सोशल मीडिया पर तथा अंतत: खबरिया टीवी पर भी, वाइरल होने लगेे थी।

और क्या यह भी संयोग हो सकता है कि गरीब-गुरबा से प्रधानमंत्री ने लॉकडॉउन की तकलीफों के लिए 'माफी' जरूर मांगी, लेकिन अपने प्रशासन को सार्वजनिक रूप से इसका कोई निर्देश तक देने की जरूरत नहीं समझी कि मेहनत-मजदूरी करने वाले गरीबों के साथ अपराधियों जैसा सलूक करना बंद करें। प्रधानमंत्री ने तो इस बार भी सिर्फ अपने मन की बात की और उन दसियों हजार लोगों के मन की बात सुनी तक नहीं, जो उसी समय ऐन उनकी नाक के नीचे, राजधानी में आनंद विहार बस अड्डïे पर दसियों घंटों से जमा थे और सौ-सौ किलोमीटर या उससे ज्यादा पैदल चलकर, हरियाणा व अन्य राज्यों तक से यहां पहुंचे थे, जबकि दूसरे हजारों लोग पैदल ही, भूखे-प्यासे, परिवारों के साथ तथा अपनी संक्षिप्त गृहस्थी सिर पर लादे हुए, अपने घरों के लिए सैकड़ों किलोमीटर की यात्राओं पर निकल चुके थे। और यह सोशल मीडिया में ही नहीं, टेलीवीजन चैलनों पर भी छाया हुआ था। इसीलिए, अचरज की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री के गरीब-गुरबा से लॉकडाउन की तकलीफों के लिए माफी मांगने के फौरन बाद, उनकी ही सरकार के शीर्षस्थ अधिकारियों ने, खासतौर पर उन राज्यों के शीर्षस्थ अधिकारियों को, जहां से बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर निकलकर अपने घर पहुंचने की कोशिश कर रहे थे, इसके स्पष्टï निर्देश दे दिए कि जरूरत हो तो जेल में बंद कर दो, पर कोई भी बंदा सड़क पर नहीं दिखाए दे!

कहने की जरूरत नहीं है कि उसके बाद से, प्रवासी मजदूरों की बड़ी संख्या को वापस बाड़ों में या जेलों में बंद कर दिया गया है। और जो मजदूर प्रधानमंत्री की 'माफी' में से निकली नयी 'सख्ती' से पहले ही पैदल या बसों से या किसी अन्य साधन से निकल जाने में कामयाब भी हो गए हैं, उनके प्रति तो शासन का रवैया और भी शत्रुतापूर्ण हो गया लगता है। उत्तर प्रदेश तथा बिहार जैसे राज्यों ने, जहां से प्रवासी मजदूरों की सबसे बड़ी संख्या निकली है, मर-खप कर किसी तरह से पहुंचने वाले इन गरीबों को 14 दिनों तक कथित क्वेरेंटीन में रखने का ही एलान नहीं किया है, उनके साथ शासन के अमानवीयता की सारी हदें पार करने वाले बर्ताव की खबरें भी लगातार आ रही हैं। ऐसी ही एक खबर, उत्तर प्रदेश में बरेली में प्रशासन द्वारा ऐसे ही सैकड़ों प्रवासी मजदूरों पर, स्त्री-बच्चों समेत, मैदान में बैठाकर पाइप से किसी कीटनाशक की बारिश कराए जाने की है, जिससे फौरन बड़े पैमाने पर मजदूरों की आंखों में तकलीफ हुई बताते हैैं। एक दूसरी खबर, बुंदेलखंड में पुलिस के बाहर से लौटे प्रवासी मजदूरों के माथे पर कलम से यह लिख देने की है कि, 'मुझसे दूर रहें, मुझसे कोरोना फैल सकता है।
इसलिए, अचरज की बात नहीं है कि लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूरों की, सारी पाबंदियों के बावजूद और जरूरी साधनों के बिना ही, इस संकट के बीच अपने घर पहुंचने की कोशिशें, अनेक मामलों में जानलेवा तक साबित हो रही हैं। इस तरह का एक विशेष रूप से हृदय विदारक प्रकरण, दिल्ली में पुलिस वालों के लिए एक भोजनालय का खाना पहुंचाने का काम करने वाले, 39 वर्षीय रणवीर सिंह की मौत की है। काम बंद होने और आगे की अनिश्चिताओं को देखते हुए, अन्य दसियों हजार प्रवासी मजदूरों की तरह रणवीर सिंह, दिल्ली से पैदल ही अपने घर मुरैना के लिए चल पड़े थे। पुलिस से छूटते, बचते हुए और भूखे-प्यासे, उन्होंने किसी तरह से 200 किलोमीटर की दूरी तय भी कर ली थी। लेकिन, आगरा में उनकी तबियत बिगड़ी और उन्होंने दम तोड़ दिया, जबकि उनका घर सिर्फ अस्सी किलोमीटर दूर रह गया था। कौैरोना से लडऩे के लिए, लॉकडॉउन ने एक मजदूर परिवार को पूरी तरह से उजाड़ दिया। और जाहिर है यह अकेला मामला नहीं है। वास्तव में, 29 मार्च को प्रधानमंत्री के परेशानियों के लिए गरीबों से माफी मांगने और उनके आधीन केंद्र सरकार द्वारा प्रवासी मजदूरों को जेल में डालकर रोक ने के आदेश देने के दिन तक, जहां कोरोना ने भारत में कुल 23 जानें ली थीं, लॉकडॉउन अलग-अलग गणनाओं के अनुसार, 17 से 21 तक जानेें ले चुका था। और लॉकडॉउन में जान गंवाने वाले सब के सब मेहनत-मजदूरी करने वाले गरीब और खासतौर पर प्रवासी मजदूर थे।

बेशक, इससे भारत को समाज के स्तर पर कोरोना वाइरस के संक्रमण यानी कोविड-19 के तीसरे चरण से बचाने के उपाय के रूप में, लॉकडॉउन की उपयोगिता पर भी सवाल उठ खड़े हुए हैं। लेकिन, जिस तरह बिना-पूर्व तैयारियों के, जिनमें मेहनतकशों की उस विशाल संख्या पर पडऩे वाली मार की चुनौतियों का सामना करने की तैयारियां शामिल थीं, जिसकी आजीविका के नाजुक ताने-बाने इस कदम से छिन्न-भिन्न हो जाने वाले थे और वास्तव में जिसके प्राणों पर ही बन आने वाली थी, इस फैसले का एलान पहले किया गया और उसके परिणामों को संभालने के इंतजामों पर बाद में सोचा गया, उससे इस कदम की सफलता को तो संदिग्ध हो ही जाना था। लेकिन, यह किसी नौकरशाहीपूर्ण अकुशलता का मामला नहीं है। बिना पहले तैयारियों तथा आवश्यक मशविरों के बिना के इस तरह के फैसले लेना और नेता की निर्णायकता के दंभ के साथ ऐसे फैसले लेना, जिनमें गरीब-गुरबा तथा खासतौर पर मेहनतकशों का चिंता की ही नहीं जाती है, किसी अकुशलता का नहीं, शासक वर्गीय अंधेपन का नतीजा है। बेशक, स्वतंत्र भारत में हमेशा से ही शासकीय नीतियां संपन्न वर्ग के पक्ष में झुकी रही हैं। लेकिन, जहां अस्सी के दशक तक इस पर गरीबों की पक्षधरता का आवरण डालना जरूरी समझा जाता था, नवउदारतावाद के दौर में इसकी जगह संपन्नों की खुली पक्षधरता ने ले ली। और हिंदुत्व के दौर मेें इसने मेहनत-मजदूरी करने वालों तथा अन्य वंचितों के प्रति, खुली शत्रुता का ही रूप ले लिया है। तभी तो जो सरकार इसी कोरोना संकट के बीच विदेश में फंसे भारतीयों को विमानों से उड़ाकर स्वदेश लाने की अपनी सफलता का ढोल पीटती नहीं थकती है, उसी सरकार ने न सिर्फ अपने देश के मजदूरों से इसी संकट के बीच अपने घर लौटने के सारे साधन छीन लिए हैं बल्कि चेहरे पर कोई शिकन तक लाए बिना उन्हें जेल में बंद करके भी रोकने पर बजिद है। यह कोरोना के खिलाफ युद्घ की आड़ में, मेहनतकशों के खिलाफ युद्घ तेज करना नहीं तो और क्या है?                    
 


About Author

राजेन्द्र शर्मा

लेखक - लोकलहर के संपादक है

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