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जोर पर 'तानाशाही'

कोविड-19 वाइरस ने जब तक भारत में अपना खास जोर दिखाया भी नहीं था, उस समय भी मोदी सरकार सीएए/एनआरसीविरोधी आवाजों को कुचलने में  जुटी हुई थी।

कोविड-19 की महामारी ने, मोदी सरकार द्वारा कायम किए गए तानाशाही के निजाम को और धारदार तथा पुख्ता कर दिया है। तानाशाहाना रंग वैसे तो 2014 की मई में मोदी सरकार के सत्ता में आने के साथ ही दिखाई देने लगे थे। बहरहाल, 2019 की मई में मोदी के दोबारा सत्ता में लौटने से यह रुझान और पुख्ता हो गया है। और अब, मोदी की सत्ता में वापसी के एक साल बाद स्थिति यह है कि कोविड-19 से पैदा हुई असाधारण परिस्थिति का, तानाशाहीपूर्ण निजाम को पुख्ता करने के लिए पूरा-पूरा इस्तेमाल किया जा रहा है।

इस वाइरस ने जब तक भारत में अपना खास जोर दिखाया भी नहीं था, उस समय भी मोदी सरकार सीएए/एनआरसीविरोधी आवाजों को कुचलने में  जुटी हुई थी। और लॉकडाउन थोपे जाने के बाद से, जनतांत्रिक अधिकारों पर हमलों, क्रूर कानूनों का सहारा लिए जाने और अल्पसंख्यक समुदाय, मीडिया तथा विपक्षी आवाजों को दबाने के सिलसिले में, कई गुना तेजी आ गयी है।

अमित शाह के देश का गृहमंत्री रहते हुए, दिल्ली में जो कुछ हो रहा है, एक सबक सिखाने वाला और क्रूर सबक है। सबसे पहले तो पूर्वी दिल्ली की सांप्रदायिक हिंसा के लिए दिल्ली पुलिस ने बहुत से मुस्लिम नौजवानों को पकड़ कर जेल में ठूंस दिया और उनके लिए कानून से राहत मिलने के सारे रास्ते बंद कर दिए। दूसरी ओर, कपिल मिश्रा समेत, इस हिंसा के जाने-पहचाने उकसावेबाजों के खिलाफ कोई कार्रवाई ही नहीं की गयी। बाद में, और भी कुटिलता से पुलिस ने सीएएविरोधी छात्र प्रदर्शनकारियों को निशाना बनाया, जबकि उनका उत्तर-पूर्वी दिल्ली की हिंसा से कुछ लेना-देना था ही नहीं। इस तरह गिरफ्तार किए जाने वालों में, जामिया विश्वविद्यालय की 27 वर्षीया पीएचडी की छात्रा, सफूरा जरगर भी हैं। उन्हें यूएपीए की धाराओं के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया है और गर्भवती होते हुए भी जेल में डाल दिया गया है। गिरफ्तार किए गए दूसरे लोगों में जामिया तथा जेएनयू के पूर्व-छात्र तथा शोधार्थी शामिल हैं।

यहां तक कि कोरोना वाइरस को लेकर छेड़े गए मुस्लिमविरोधी अभियान का विरोध करने वालों को भी इस दमनचक्र का निशाना बनाया जा रहा है और उनके खिलाफ क्रूर कानूनों का हथियार चलाया जा रहा है। मिसाल के तौर पर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष, जफरुल इस्लाम खान पर, एक ट्वीट के लिए, जो भाजपा को पसंद नहीं आया है, राजद्रोह की धाराओं (जाब्ता फौजदारी की दफा 124ए) के अंतर्गत मुकद्दमा ठोक दिया गया है।

यूएपीए का आनंद तेलतुम्बड़े तथा गौतम नवलखा जैसे जाने-माने बुद्घिजीवियों तथा कार्यकर्ताओं को जेल में ठूंसने के लिए भी इस्तेमाल किया गया है। उन्हें भीमा-कोरेगांव प्रकरण में हिंसा भड़काने के झूठे आरोपों में गिरफ्तार किया गया है। उस समय जबकि जेलों में भीड़ कम करने के लिए आम कैदियों को छोड़ा जा रहा है, मौजूदा शासन का कोप झेल रहे राजनीतिक तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं को, ऐसी कोई छूट नहीं मिलने वाली है।

राजनीतिक विरोधियों से हिसाब चुकता करने के लिए राजद्रोह की धाराओं का इस्तेमाल, कोरोना महामारी के आने से पहले भी काफी व्यापक पैमाने पर किया जाने लगा था, लेकिन अब तो अंधाधुंध इसका इस्तेमाल हो रहा है। राजनीतिक कार्यकर्ता, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, किसी को भी बख्शा नहीं जा रहा है।

मीडिया को अपना पालतू बनाना, इस तानाशाहाना निजाम का एक प्रमुख लक्ष्य रहा है। लॉकडाउन की घोषणा से सिर्फ कुछ ही घंटे पहले प्रधानमंत्री ने मीडिया मालिकान तथा संपादकों के साथ बैठक की थी, जिसमें उनसे कोई नकारात्मकता की तथा अफवाहों की काट करने के लिए नहीं बल्कि सरकार के लिए सकारात्मक यानी उसके पक्ष में सामग्री छापने के लिए कहा गया था। उक्त निर्देश के बाद से, मीडिया का मुंह बंद किए जाने को, संपादकों के खिलाफ एफआइआर दायर कराए जाने (जैसाकि द वायर के संपादक के मामले में हुआ है) और एक गुजराती न्यूज पोर्टल, धवल पटेल के खिलाफ राजद्रोह का मामला थोपे जाने तक, आगे ले जाया जा चुका है। धवल पटेल का कसूर सिर्फ इतना था कि उनके समाचार पोर्टल ने इस आशय की खबर छापी थी कि गुजरात में कोविड महामारी को संभालनेे में विफलता के लिए सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नेता गुजरात के मुख्यमंत्री, रूपानी से अप्रसन्न हैं और मुख्यमंत्री को बदला जा सकता है। कश्मीर में पिछले महीने ही दो पत्रकारों पर यूएपीए के केस थोपे गए थे।

यहां तक कि लॉकडाउन को जिस तरह से लागू किया जा रहा है, उसकी हर तरह की आलोचना को भी अपराध बना दिया गया है। असम में गोलाघाट जिले में दो पत्रकारों को, पीडीएस के अंतर्गत चावल घोटाले को बेनकाब करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें दो साल पुराने एक पूरी तरह से असंबद्घ मामले में पकड़ कर जेल में ठूंस दिया गया है।

तानाशाही का मोदी ब्रांड, सारी स्वतंत्र संस्थाओं को और संस्थागत रोक-टोक की सारी व्यवस्थाओं को खत्म ही करने पर तुला हुआ है। इस मामले में उसकी सबसे डराने वाली कामयाबी का संबंध, उच्चतर न्यायपालिका से है। न्यायपालिका, कार्यपालिका के इशारों पर ज्यादा से ज्यादा नाचने के लिए तैयार होती जा रही है। कश्मीर को 4-जी प्रौद्योगिकी से वंचित रखेे जाने पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला, इसी की मिसाल है। अब जबकि सुप्रीम कोर्ट खुद ही नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हक में आवाज उठाने के लिए तैयार नहीं है, मोदी सरकार आराम से अपनी अन्यायपूर्ण से अन्यायपूर्ण नीतियों पर, वैधता का आवरण डालती जा रही है।

महामारी ने तानाशाही के एक और विकराल पक्ष को उभारकर सामने ला दिया है। यह पक्ष है, हमारे संविधान में मौजूद संघात्मक सिद्घांत के ध्वंस और उसकी जगह पर शासन की एक अति-केंद्रीकृत-नौकरशाहाना व्यवस्था थोपे जाने का। केंद्र सरकार ने सुनियोजित तरीके से राज्यों के सारे बचे-खुचे अधिकारों को पांवों तले रौंदा है और अपने फरमानों तथा वित्तीय रूप से दीवालिया बनाए जाने के जरिए, उन्हें अपने सामने घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है। मुख्यमंत्रियों के साथ पांच-पांच बहुप्रचारित वीडियो कान्फ्रेंसों के बावजूद, प्रधानमंत्री मोदी ने मुख्यमंत्रियों के बार-बार दुहराए गए अनुरोधों को सुनने से इंकार कर दिया है कि राज्यों को कोई वित्तीय पैकेज दिया जाए, जिसमें उनके बकायों का भुगतान तो शामिल हो ही, उनकी ऋण सीमा बढ़ाकर, उनके लिए सस्ते ऋणों का इंतजाम भी शामिल हो। केंद्र सरकार तो यही चाहती है कि राज्य, इसके रहमो-करम पर निर्भर रहें। इस महामारी से निपटने के मामले में भी, जोकि एक स्वास्थ्य संबंधी विषय है तथा स्पष्टï रूप से राज्यों का विषय है, आपदा प्रबंधन कानून का सहारा लेकर केंद्र सरकार ने, असंवैधानिक तरीके से, राज्यों पर अपनी मनमर्जी थोपी है।

यह तानाशाहीपूर्ण निजाम जैसे अमानवीय तरीके से करोड़ों प्रवासी मजदूरों की जिंदगियों के साथ पेश आया है, जिस तरह से केंद्र सरकार ने कुछ राज्य सरकारों को श्रम कानूनों को ध्वस्त करने वाले अध्यादेश जारी करने के लिए बढ़ावा दिया है, जिस तरह इस महामारी के बहाने देश में एक अपारदर्शी तथा गैर-जवाबदेह निगरानी व्यवस्था की स्थापना को आगे बढ़ाया गया है और जिस तरह से तथाकथित ''अवांछित" तत्वों का हांका किया जा रहा है; ये सब आने वाले दिन भारतीय जनता के लिए खतरों से भरे होने के ही इशारे हैं।

पिछले अनुभव से हम जानते हैं कि कोविड महामारी के पीछे छूट जाने के बाद भी, इन अलोकतांत्रिक और जनविरोधी कदमों में से किसी को भी पीछे नहीं खींचा जाएगा। यह तो तानाशाहीपूर्ण निजामों का स्वभाव ही होता है कि आपात स्थितियों में उठाए गए ऐसे कदमों को हड़प लें और उन्हें और आगे ले जाने की कोशिश करें। राष्ट्र के नाम अपने ताजातरीन संबोधन में, मोदी ने 21वीं सदी को भारत की सदी बनाने और भारत को आत्मनिर्भर बनाने की जो लफ्फाजी की है, इस सरकार का वास्तविक आचरण उससे ठीक उल्टा है। बातें तो भारत को आत्मनिर्भर बनाने की बनायी जा रही हैं, लेकिन यथार्थ यह है कि देश की सबसे बड़ी तेल कंपनियों में से एक, बीपीसीएल को एक विदेशी कंपनी के हाथों बेचा जा रहा है और भारत को अमरीका का अधीनस्थ सहयोगी बनाकर छोड़ दिया गया है।

जो भी लोग हिंदुत्ववादी तानाशाही के इस रथ को इस देश को गुलाम बनाने से रोकना चाहते हैं, उनके सामने काम पूरी तरह से स्पष्ट है। उन्हें जनता की रोजी-रोटी, उसके जनतांत्रिक अधिकारों, संघीय ढांचे तथा धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र के खिलाफ हमलों के विरुद्घ समझौताहीन युद्घ चलाना होगा। कोविड संकट के पीछे खिसकने के साथ, करोड़ों राजद्रोहात्मक बगावतों को फूट पडऩे दो!                                        


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प्रकाश करात

लेखक-सी.पी .आई.(एम) पोलिट ब्यूरो सदस्य है

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