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प्रिंस चार्मिंग शशि कपूर को जाना

शशि कपूर के आमतौर पर मेन स्ट्रीम सिनेमा का रोमेंटिक हीरो की तरह जाना पहचाना जाता है। इसी व्यावसायिक सिनेमा ने उन्हें ‘रोमांस ऑफ स्क्रीन आयकन’ की तरह परोसा।


रामप्रकाश त्रिपाठी


शशि कपूर के आमतौर पर मेन स्ट्रीम सिनेमा का रोमेंटिक हीरो की तरह जाना पहचाना जाता है। इसी व्यावसायिक सिनेमा ने उन्हें ‘रोमांस ऑफ स्क्रीन आयकन’ की तरह परोसा। उनकी दिलकश खूबसूरती, मारक मुस्कान और चॉकलेटी अदाओं ने उनसे एक दिन में तीन-तीन शिफ्टों में काम करवाया। उनके खाते में इस तरह 116 फिल्में आईं। इसमें बतौर बाल अभिनेता ‘आग और आवारा’ जैसी फिल्में भी शामिल हैं। उनकी कई फिल्में फ्लॉप भी हुईं। जिनमें पहली ही बहुत अच्छी फिल्म ‘धर्म पुत्र’ (1961) भी शामिल है जो सामाजिक समरसता का संदेश देने वाली बीआर चौपड़ा की बेशकीमती फिल्म थी।


शशि कपूर की तमाम विशेषताओं में प्रमुख यह थी कि वे $गम-खुशी, सफलता-असफलता, हानि-लाभ को समभाव से लेते थे। देवानंद की एक फिल्म का गाना है ‘$गम और खुशी में $फर्क न महसूस हो जहां, मैं $खुद को उस मुकाम पे लाता चला गया’ गीत की इस पंक्ति पर शशि कपूर के चरित्र और स्वभाव को जाना, परखा जा सकता है। उनके हिस्से में जब-जब फूल खिले-1965, वक़्त-64, अभिनेत्री-70, दीवार-75, त्रिशूल, हसीना मान जाएगी-68 के अलावा सत्यम शिवम  सुंदरम तथा नई दिल्ली टाइम्स जैसी फिल्में हैं। जिनसे उनके $कद, शख्सियत और कमाई का अंदाजा लगाया जा सकता है।


बावजूद व्यावसायिक सफलताओं के उन्होंने बतौर निर्माता जुनून-1978, कलयुग-80, 36चौरंगीलेन-81, विजेता-82, उत्सव-84, अजूबा-91 जैसी फिल्में बनाईं जो कमोबेश घाटे का सौदा ही रहीं। प्रश्न है यह घाटा बार-बार क्यों उठाया गया? इसका जवाब सार्थक फिल्मों के प्रति उनकी और उनकी पत्नी जेनिफर की प्रतिबद्धता, मुंबई में पृथ्वी थियेटर की परंपरा और उसका संचालन, ये सब सिद्धांत के मामले हैं, सौदे के नहीं।

फिल्वक्त पृथ्वी थियेटर का काम बेटी संजना देख रही है। इस संदर्भ में मुझे याद आता है कि जनवादी लेखक संघ के  भोपाल में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन करने  विख्यात रंगकर्मी और सिने अभिनेता उत्पल दत्त आए थे। उनसे मैंने पूछा था- आपने बहुत सी चालू किस्म की फिल्में भी की हैं। ऐसा क्यों किया आपने? उनका जवाब था कि फिल्में मैं पैसा कमाने के लिए करता हूं ताकि  उसे थियेटर करके गवाँ सकूँ। यह बात सटीक थी और उनके कार्य व्यवहार के अनुसार भी।


इसी प्रेरणा पर मैंने किसी फिल्मी पत्रिका में शशि कपूर को इंटरव्यू में कहते हुए देखा कि ‘मैं शान जैसी फिल्मों से कमाता हूं और कलयुग जैसी फिल्मों में गवां देता हूं।’ यह पारदर्शी साफगोई थी जो एक कठोर सच्चाई को ही  अनावृत्त करती थी। इसके पीछे भी पिता पृथ्वीराज कपूर का रंगमंच के प्रति लगाव और उसकी सार्थकता के प्रति समर्पण, देश पे्रम और सेक्युलर मूल्यों के प्रति निष्ठा की पृष्ठभूमि तो थी ही, धर्म सत्ता, राजनीति से ऊपर प्रेम की प्रतिष्ठा करने का जज्बा भी था, जो  एक तरह से स्वतंत्रता संग्राम के द्वारा ही पुन: परिभाषित किया गया था।


पिता के पृथ्वी थियेटर के अलावा उनके अपने ससुर ज्य़ॉफी कैंडल की नाटक मंडली की प्रेरणा भी थी। उन्हें ‘मर्चेंट आइवरी’ के जरिए ही अंतरराष्ट्रीय रंग जगत की स्वीकृति भी मिली। वैश्विक सिने फलक पर वह पहचान बनाने वाले हिंदी के पहले अभिनेता थे। इस शुरुआत का श्रेय 1961 की फिल्म ‘द हाउस होल्डर’ को जाता है, जो रूथ प्रवार झाववाला के उपन्यास पर आधारित थी। इसी के साथ विश्वविख्यात सिने कंपनी मर्चेंट आइवरी की स्थापना की गई थी।  जिसने कई आस्कर विजेता फिल्मों का निर्माण किया था। इसकी स्थापना में भी शशि कपूर का बुनियादी योगदान था। उन्होंने इस कंपनी की कई फिल्मों में काम किया। उनके द्वारा इस श्रृंखला में की गई अंतिम फिल्म इस्माइल मर्चेंट द्वारा निर्देशित ‘इन कस्टडी’ थी, जिसमें शशि कपूर को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था।


दिलचस्प है कि शशि को जीवन संगिनी भी थियेटर ने दी थी। कोलकाता में (यदि मेरी स्मृति ठीक है) तो पृथ्वी थियेटर के किसान नाटक की कई प्रस्तुतियां हुईं। जिनमें हर दिन एक सुंदर लडक़ी आगे की किसी सीट पर  आकर बैठ जाती थी। कोलकाता नाटक देखने को उमड़ता और तालियां बजाता रहता। किंतु शशि कपूर का मन उस सुमुखी पर अटका रहता। आँखे उसी का टकटक निहारती रहतीं। यह नाट्य प्रेमी जेनिफर कैंडल थी, जो इस सुंदर कलाकार की सहधर्मिणी बनी।


शशि कपूर ने  1978 में जुनून का निर्माण किया था। रस्किन बॉण्ड के  अंग्रेजी उपन्यास ए फ्लाइट ऑफ पिजन्स पर आधारित और श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित थी। इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म, गोविंद नेहलानी को सर्वश्रेष्ठ सिनेमेटोग्राफी, हितेंद्र घोष को सर्वश्रेष्ठ ऑडियोग्राफी के राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। इसके अलावा इस फिल्म ने कई फिल्मफेयर अवॉर्ड भी जीते। हमारे अग्रज व्यंग्यकार शरद जोशी ने ‘उत्सव’ के संवाद लिखे थे।

वे  शशि कपूर के मित्रों में शुमार हो गए थे। शरद जी शशि कपूर के आलस्य, समर्पण, मित्रवत्सलता, समयबद्धता और कठिन श्रमशीलता के एकसाथ प्रसंसक थे। वे बताते थे कि शशि किसी भी कीमत पर रविवार को काम करने के लिए तैयार नहीं होते थे।  यह पूरा दिन परिवार के लिए रिजर्व रहता था। रविवासरीय छुट्टी को लेकर शशि कपूर के अनेक निर्देशकों- निर्माताओं से पंगे हुए।  यहां तक कि बड़े भाई राजकपूर की फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ तक को उन्होंने रविवार की शूटिंग के लिए मना किया जिससे राजकपूर साहब बहुत समय तक खफा रहे।

जब शशि कपूर को पद्मभूषण (2011) और दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड  (2015) दिया गया तब व्यावसायिक फिल्मों के दर्शकों को आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्हें तो सुपर स्टार राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन जैसे परफार्मर ही बड़े कलाकार लगते थे। उन्हें शशि कपूर के पर्दे के पीछे के योगदान की कतई जानकारी नहीं थी। जबकि सिने समीक्षकों और बड़ी फिल्मी हस्तियों ने  उनके सर्वोच्च सम्मानों को न्याय संगत, तार्किक और उचित ठहराया था। अमिताभ ने जरूर खुद को अवॉर्ड न दिए जाने के लिए सदा की तरह हैरानी जताई थी।


बहरहाल भारतीय शीर्ष स्थानीय सिने परिवार के लडक़े शशि कपूर ने कभी बड़े घराने के अहसास को सिर पर नहीं लादा। परिवार की उज्जवल और रचनात्मक विरासत को बेशक आगे बढ़ाया, किंतु जड़ परंपराओं से विद्रोह भी किया। कपूर खानदान की लड़कियों और बहुओं को फिल्मों में काम नहीं करने दिया जाता था। शशि कपूर ने इस पाबंदी को तोड़ा और संजना को अवसर देकर अपना विद्रोह प्रदर्शित किया। घर में ‘हैंडसम कपूर’ कहे जाने वाले शशि के साथ कपूर खानदान की या कहें पृथ्वीराज कपूर के योग्य पुत्रों की वृहत्रयी का अंतिम स्तंभ भी स्मृति शेष हो गया। उनकी सुरीली मगर समाज और समय सापेक्ष यादें फिल्मों में और फिल्मों के इतिहास में हमेशा दर्ज रहेंगी।

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