फिल्म की शुरुआत ही उस जनगीत से होती है जिसे कई दफा प्रीति के साथ मिल कर गाया है जो मैथली पूर्वांचल भाषा में है इस गीत के बोल है -
कहब त लग जाई धक से ...
यह गीत अपील करता है उस जनता से उस जनता के लिए, जो आज भी संविधान के अनुच्छेद 15 (समानता का अधिकार) के बाद भी दमन, शोषण और अत्याचार का शिकार है, जिसके शोषण का शिकार बहुमत हिस्सा दलित, आदिवासी है।
फिल्म की कहानी है उन दलितों की जो सुअर पालते है, गटर, नाली साफ करते है, मैला उठाते हैं, जिनकी पीड़ा ब्राह्मणों, ठाकुरों को तो छोड़ ही दीजिए, शायद जाटवों, कोरियों, ओबीसी को भी समझ नहीं आती है। यही है ब्राह्मणवाद, जो हमें अपने अंदर भी समय-समय पर टटोलना होता है ।
मजदूरी में मात्र तीन रूपये बढ़ाने के कारण तीन नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार कर, दो की हत्या करके लाश को गांव के बाहर पेड़ से लटकाकर इसलिए छोड़ा जाता है ताकि पूरे समाज को उसकी औकात याद रहे। दलित आवाज नहीं उठाते, हक नही माँगते, बल्कि खुद से सेवा करते है, जो इस बात से समझना चाहिए जिसे फिल्म की शुरूआत में पुलिस ऑफिसर को रामायण की कहानी सुनाई जाती है जिसमें राम के वनवास से लौटने पर गांव के लोग अपने गांव में दिए जलाते है लेकिन हवा से कुछ दिए बुझ जाते है। राम जब ये देखते हैं कि इस गांव में अंधेरा है तो वे इस अंधेरे का कारण पूछते हैं। गांव वाले बताते हैं कि गांव में अँधेरा होने से महल ज्यादा जगमगा रहा है इसलिए महल की चमक के लिए खुद के घरों में अँधेरा ही रखते है। आखिर, कौन रहे होंगे ? ये लोग जिन्होंने खुद के घरों में अँधेरे को स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया।
फिल्म के बीच में एक व्यक्ति का गटर में घुसकर गंदगी निकालना फिर गटर में चले जाना उस समाज की भयावह स्थिति को दर्शाता है जो आज भी काम के लिए गटर में घुसने को मजबूर है और सरकार मुकदर्शक बनी हुई है।
इस फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण किरदार वह दलित नौजवान नेता निषाद ( मोहम्मद जीशान अय्यूब) है, जो नीला गमछा डाले दलितों के अधिकारों के लिया हड़ताल करता है, लड़ता है और मारा भी जाता है मगर सवाल भी उठाता है कि ‘हम कभी हरिजन हो जाते है, कभी बहुजन हो जाते है बस जन नही बन पाते हैं।’ वह युवक बताता है उस दलित लडक़ी की पीड़ा को, जो उसकी प्रेमिका गौरा (सयानी गुप्ता) होती है, मगर मिड डे मील में नौकरी लगने पर बच्चे उसके हाथ का बना खाना खाने से मना कर देते हैं। कि कैसे मंदिर में जाने पर दलितों की हड्डी तोड़ दी जाती है।
फिल्म का वह दृश्य बहुत कुछ कह जाता है जब पुलिस से बचते बचाते वह अपनी प्रेमिका से मिलता है और एक इंसान के नाते अपनी पीड़ा को आंसुओं के जरिये व्यक्त करता है। मगर यह उसकी हार या डर नहीं था यह अगले ही सीन में सामने आ जाता है जब फर्जी एनकाउंटर में मारे जाने से ठीक पहले वह अपने घबराते हुए साथी से कहता है कि; हम आखिरी थोड़े ही हैं।
इस फिल्म के नायक अयान रंजन बने आयुष्मान खुराना का अभिनय शानदार है। पूजा की बहन व महिला डॉक्टर, डॉ. मालती राम (रंजनी चक्रबर्ती ) ने इस फिल्म में जबर्दस्त छाप छोड़ी है। दलित पुलिसकर्मी जो पहले झाडू लगाने का काम करते थे बाद में एस आई जाटव (कुमुद मिश्रा) हो गए थे, कैसे खुद को सामाजिक उत्पीडऩ से अलग होने का ढ़ोंग करने लगे थे, लेकिन अंत में ब्राहमण टी आई ब्रह्मदत्त (मनोज पाहवा ने शानदार तरह से निबाहा है ) को मारा थप्पड़ वर्षों तक झेली जिल्लत का वो गुबार था जो फट पड़ा ।
इस फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी लगी पूरी समस्या का समाधान व्यक्ति केंद्रित कर देना। सारे हल आयुष्मान खुराना के इर्द गिर्द घूमते हैं। दलितों द्वारा काम की हड़ताल को जो दिखाया गया है ,उसको मुख्य भूमिका में लाकर न्याय के लिए एकजुटता के लिए संगठित करते तो ज्यादा अच्छा था।
बहुत सारे लोगों का, दलितों का दर्द व गुस्सा फूट पड़ेगा,यह फिल्म देखकर, लेकिन यही गुस्सा अलग रूप ले लेगा, अगर आपकी बेटी,बेटा किसी वाल्मीकि समाज के लडक़े का हाथ थामने के लिए कहे भर दे, तब जो गुस्सा आए, तो,याद जरूर कीजिएगा संविधान के अनुच्छेद15 को।और गौर से देखेंगे तो जरूर नजर आएगा, बिना जाति के ब्राह्मण हुए भी, कहां,कहां घुसा है ब्राह्मणवाद!
सिनेमा जगत जो हमेशा सजी धजी फिल्में,चकाचौंध कर देने वाली रोशनी, हीरोइनों के जीरो फिगर पर आकर टिक जाता है , अच्छा लगा पर्दे पर, जो हमारे समाज की, और हमारी जिंदगी की हकीकत है, उस कीचड़ व मल को दिखाया गया। याद दिलाया गया कि जितने लोग सीमा पर शहीद होते है ,उससे ज्यादा देश की गटर में घुस कर, दम घुटने से, अपनी जान देने पर मजबूर है। और अगर सच कहें तो यह गटर सिर्फ सीवर की नहीं है - समाज में जो गैरबराबरी की, कीचड़, दलदल है वह भी इससे कम सड़ांध वाली - कम जानलेवा नहीं है। उसे भी हम सबको उस में उतर कर ही साफ करना होगा, तब जाकर कागजों में लिखा आर्टीकल 15 समाज में लहलहाता नजर आएगा।
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