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अंधेरे में उम्मीद

भारतीयता के मायने बदल दिये गये हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जैसे उदात्त मूल्य को भी नष्ट कर दिया गया है। समाज में भले लोग अन्याय का शिकार हो रहे हैं।

18 जुलाई को एक और कलाकार ने अपने अंतर्मन की सुनी। कन्नड़  के  सुख्यातरंग-निदेशक, नाट्य लेखक और कवि एस.रघुनंदन ने संगीत नाटक अकादमी का प्रतिष्ठित अवार्ड अस्वीकार कर दिया। एक दिन पहले ही अकादमी ने अपने प्रतिष्ठित सम्मानों की घोषणा की थी। नाट्य-निर्देशन, अभिनय, नाट्य-लेखन आदि में सम्मान हेतु नौ लोगों के नाम घोषित किये गये थे। रघुनंदन उनमें से एक थे। अपने वक्तव्य में उन्होंने सम्मान अस्वीकार करने के कारण बताये हैं। जो ठीक-ठीक वे ही हैं, जो सिनेमा, साहित्य, इतिहास, विज्ञान आदि क्षेत्रों में अनेक विद्धानों के द्वारा नामी अवार्ड वापस करते समय गिनाये गये थे।

रघुनंदन ने सम्मान के लिए उनके चयन हेतु अकादमी का आभार जताया है। अकादमी की स्वायत्तता के प्रति सम्मान जताया है। पूर्व में जिन लोगों को अकादमी सम्मानित कर चुकी है, उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त करते हुए यह भी रेखांकित किया कि देश में भगवान और धर्म के नाम पर फैलायी जा रही हिंसा की स्थिति में वे सम्मान नहीं स्वीकार सकतें। अपने निर्णय को वे विद्रोही-भावना नहीं बल्कि असहाय होने की हताशा से उपजा पाते है। उन्होंने इस बात पर चिंता जतायी कि सत्ता-तंत्र प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ही इंटरनेट सहित सारे माध्यमों का उपयोग नफरत फैलाने में कर रहा है। लोगों को भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार डालने की घटनाएं आये दिन हो रही हैं। यहां तक कि खान-पान को लेकर भी लोगों पर अमानवीय हिंसा की जा रही है। शिक्षा-व्यवस्था के तमाम स्तरों पर घृणा के पाठ पढ़ाये जा रहे हैं।

भारतीयता के मायने बदल दिये गये हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जैसे उदात्त मूल्य को भी नष्ट कर दिया गया है। समाज में भले लोग अन्याय का शिकार हो रहे हैं। सच्ची आवाजों को दबाया जा रहा है। सामाजिक-कार्यकर्ताओं के साथ किये जा रहे बुरे सलूक पर भी उन्होंने अपनी चिंता जतायी है। जो लोग वंचितों, प्रताडि़तों की आवाज बनते थे, उन पर बेजा मुकदमें लाद देने और कईयों को गिरफ्तार कर लेने पर भी रघुनंदन ने नाखुशी जतायी है। कन्हैया कुमार जैसे जागरुक और होनहार युवकों के साथ सरकार के रवैये पर भी उन्होंने क्षोभ जताया है। देशद्रोह के आरोप चस्पां कर जिन्हें  परेशान किया जा रहा है।

रघुनंदन के इस फैसले का व्यापक स्वागत हुआ है। उल्लेखनीय है कि देश में व्याप्त असहिष्णुता, तर्कवादियों और विवेक-सम्मत बातें करने वाले लेखकों, पत्रकारो आदि की हत्याओं के मुखालिफ अपना विरोध दर्ज कराने के लिए अनेक विद्धानों ने दो-तीन बरस पहले अपने-अपने अवार्ड लौटा दिये थे। देश की जनसंख्या के हिसाब से सम्मान लौटा देने वाले बुद्धिजीवियों की संख्या नगण्य ही मानी जानी चाहिये। सरकार की चापलूसी करते समाचार-माध्यमों ने हालांकि उस अभियान की खिल्ली ही उड़ायी थी, किंतु बौद्धिक जमात के उस फैसले से दुनिया भर में मोदी-सरकार की किरकिरी हुई थी। पिछले बरसों में मॉब-लीचिंग की घटनाएं बढ़ती ही गयी हैं। जातीय-हिंसा भी बढ़ रही है। हाल-हाल में उत्तरप्रदेश के सोनभद्र में आदिवासी परिवार डरावनी हिंसा का शिकार हुए हैं। 

मजहब के नाम पर शुरू हुई। हिंसा अब दलितों-आदिवासियों की हत्याओं तक जा पंहुची है। विराट बहुमत से जीती  हुई सरकारें हालात पर काबू पा सकने में ना कामयाब रही हैं। इस विफलता का कारण शायद यह है कि सत्ता-तंत्र की शह पर ही ऐसी हिंसा को अंजाम दिया जा रहा है। नफरत फैलाने वाले हिंसक संगठनों को छूट दी जार ही है। आतंकी कार्रवाइयों के संदिग्धों को महिमा-मंडित किया जा रहा है। आजादी-आंदोलन के महानायकों के विरुद्ध दुष्प्रचार किया जा रहा है।चाटूकार - मीडिया प्रधानमंत्री की ऐसी जादुई छवि बनाने में व्यस्त है, जो अकेले ही  दुश्मनों के छक्के छुड़ा सकता है। जिसके पास हर समस्या का हल है। मगर, वास्तविकता में देश के हालात दिनों दिन बिगड़ते जा रहे हैं। आर्थिक मोर्चे पर संकट ही संकट हैं। जिन्हें सरकार चाहे छिपा रही है, लेकिन कारगर हल नहीं ढूंढे गये तो देश जल्द ही डरावनी मंदी के दौर में जा सकता है। बेरोजगारी और गरीबी को दूर करने के उपायों की बजाय देश के संसाधन चंद अमीरों के हवाले कर देने की योजनाएं लागू की जा रही हैं। सामाजिक वैमनस्य दूसरा संकट है। धर्म, जाति, भाषा, खान-पान के आधार पर मतभेद पैदा किये जा रहे हैं।

ऐसे मुश्किल वक्तों में संस्कृति ही इंसानियत की अंतिम-शरण होती है। जो, जीवन के उदात्त मूल्यों को पुर्नस्थापित करने का जोखिम उठा सकती है। एस.रघुनंदन जैसे कलाकार उम्मीद जगाते हैं।


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मनोज कुलकर्णी

लेखक - देश के जाने माने साहित्यकार और जनवादी लेखक संघ मध्यप्रदेश के राज्य महासचिव है

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