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कलाओं पर लग गया जी एस टी..

अब नृत्य , नाटक , संगीत याने सभी प्रदर्शनकारी कलाएँ जी एस टी की जद में हैं । एक समय था जब नाटक या संगीत आदि कलाओं के कार्यक्रमों पर 25 प्रतिशत मनोरंजन कर लगता था।

.              राजेश जोशी@इसलिए


अब नृत्य , नाटक , संगीत याने सभी प्रदर्शनकारी कलाएँ जी एस टी की जद में हैं । एक समय था जब नाटक या संगीत आदि कलाओं के कार्यक्रमों पर 25 प्रतिशत मनोरंजन कर लगता था। उस समय के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल से संस्कृतिकर्मियों ने मांग की कि शास्त्रीय कलाओं और रंगकर्म के कार्यक्रमों पर से मनोरंजन कर को समाप्त किया जाये, मुख्यमंत्री ने इस मांग को मान लिया और वह कर समाप्त हो गया। 1 जुलाई से पहले तक प्रदर्शनकारी कलाओं के कार्यक्रम मनोरंजन कर की जद से बाहर थे । पर अब ऐसा नहीं है । अब इन पर 28 प्रतिशत जी एस टी लगेगा। 

मनोरंजन कर के युग की बात है कि वासुदेव गोस्वामी नामके एक प्रतिष्ठित हास्य कवि ने करों के बारे में एक कविता लिखी थी। उस कविता की एक पंक्ति बहुत ही मारक थी -मनहूसियत मुआफ़ , मनोरंजन पे कर है। इस पंक्ति को जब वासुदेव गोस्वामी ने पढ़ा तो जिसे कहते हैं, पूरा कवि सम्मेलन लूट लिया। एक बार फिर हम मोदी-जेटली युग में वहीं आ गये हैं जहाँ- मनहूसियत टेस्टी है और शास्त्रीय कलाओं पे जी एस टी है। विकास के इस महा-महोत्सव में हम तीन प्रतिशत आगे आ गये हैं । आखिरकार देश आगे बढ़ रहा है ।

इस नये जी एस टी में मुझे बताया गया कि नाटकों के तीन सौ रूपये के टिकिट पर यह कर लगेगा । मझौले शहरों में तो ज्यादा से ज्यादा पाँच , दस या पचास , सौ का टिकिट होता है। लेकिन पृथ्वी थिएटर जैसे महानगरों के थिएटरों को सोचना होगा जहाँ पाँच सौ का और अधिक का भी टिकिट होता है । शास्त्रीय गायन और नृत्य के कार्यक्रमों में भी कई जगह टिकिट अधिक होता है ।


एक अजीब सी विडम्बना है कि कहा जा रहा कि देश आगे बढ़ रहा है पर लग रहा है कि हम पीछे लौट रहे हैं । कभी कभी लगता है कि वापस विक्टोरिया के राज में पहुँच गये हैं। एक बार फिर मध्यप्रदेश में नाटक करने के लिये आप से नाटक की स्क्रिप्ट मांगी जा रही है। यह तो बहुत पहले मध्यप्रदेश में बंद हो गया था। अंग्रेजों के जमाने में तो ऐसा सुना जाता है कि नाटक करने से पहले नाटक की स्क्रिप्ट जमा करनी होती थी। तो हम वापस अंग्रेजों के जमाने में लौट रहे हैं।


संघ वालों की एक बड़ी दिक्कत यह है कि वो आजादी की लड़ाई में कभी शामिल नहीं हुए।  कोई गलती से शामिल हो गया तो गिरफ्तार होते ही उसने माफी मांगी और बाहर आ गया। और फिर मुखबिरी में लग गया। संघ वाले तो तब भी नहीं चाहते थे कि अंग्रेज जायें। पर भारत की जनता के सामने अंग्रेजों की एक न चली। बिचारों को जाना पड़ा । अब वो युग तो बीत गया। मोदी सरकार एक बार फिर उस युग को जीना चाहती है। तो हम वापस ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शासन काल में लौट रहे हैं। यूँ भी संघ और भाजपा को हमेशा हमारा अतीत ही प्यारा लगता है। रह रह कर बिचारे पीछे लौटना चाहते हैं। उनका बस चले तो आदिकाल में लौट जायें।


मोदी सरकार की एक दिक्कत यह भी है कि उसे लगता है कि संघ की बाँझ विचारधारा से किसी रचनाकार या कलाकार का पैदा होना तो संभव नहीं। बुद्धिजीवी के पैदा होने का तो खैर सवाल ही नहीं उठता। वह करे तो क्या करे? कितना रोके इन कलाकारों को, साहित्यकारों को, बुद्धिजीवियों को और कहाँ कहाँ तक रोके? सम्मान रोके, पुरस्कार रोके पर कब तक रोके?


इस बीच लेकिन भक्तों ने गालियाँ बकने में महारत हासिल कर ली हैं। भारतीय संस्कृति और गालियों का क्या रिश्ता है इस पर किसी मोदी भक्त को शोध करना चाहिये ।

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