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व्यंग्य कफन की दुनिया

रजनीश ने कहा है कि जब भी किसी की मृत्यु की बात होती है तो आदमी गम्भीर हो जाता है। उसके दहशत में आ जाने का कारण यह होता है कि उसे अपनी मौत याद आ जाती है।


दर्शक
रजनीश ने कहा है कि जब भी किसी की मृत्यु की बात होती है तो आदमी गम्भीर हो जाता है। उसके दहशत में आ जाने का कारण यह होता है कि उसे अपनी मौत याद आ जाती है। बकलम कृष्ण बिहारी नूर वह जानता है-
मौत ही जिन्दगी की मंजिल है / दूसरा कोई रास्ता ही नहीं
पर चचा गालिब पहले ही इस बैचैनी को भाँप गये थे और उन्होंने सवाल कर दिया था-
मौत का एक दिन मुअइन है / नींद क्यों रात भर नहीं आती


बहरहाल मौत की संवेदनशीलता का लाभ लेते हुए कवियों शायरों ने खूब बाजार सजाये हैं। नीरज का मृत्युगीत ऐसा ही था जिसने कठोर से कठोर व्यक्ति को द्रवित कर दिया था। वही नीरज व्यक्ति की धन लिप्सा पर कठोर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि-


सोने का ये रंग छूट जाना है
हर किसी का संग छूट जाना है
और जो रखा हुआ तिजोरी में
वो भी तेरे संग नहीं जाना है
आखिरी सफर के इंतजाम के लिए
जेब इक कफन में भी लगाना चाहिए


कफन की यही जेब अब राजनेताओं की धनलिप्सा पर टिप्पणी करते हुए कही जाये तो गलत नहीं होगी, पर यदि यह वस्तुगत [आब्जेक्टिव] से विषयगत [सब्जेक्टिव] हो जाती है तो फिर विवाद बन जाती है। फिर यह हमारी जेब तुम्हारी जेब बन जाती है। तुम्हारी जेब हमारी जेब से बड़ी क्यों? नितीश ने भाजपा से गलबहियां करने की शर्मिंदगी से बचने के लिए लालू प्रसाद एंड फेमिली की धनलिप्सा पर कहा कि कफन में जेब नहीं होती। इसके जबाब में हाजिर जबाब और चुटीली टिप्पणियों के लिए मशहूर लालू प्रसाद ने कहा कि नितीश के कफन में तो झोला है। यह जाट के सिर पर खाट और तेली के सिर पर कोल्हू वाली कहानी हो गई। तुक मिले न मिले पर बोझ तो लगेगा।


जेब से याद आया कि भारत देश में सिले हुए कपड़े पहिनने का चलन मुगल काल से प्रारम्भ हुआ। इससे पहले तो लपेटे जाने वाले कपड़ों का चलन था। कफन भी उसी काल का प्रोडक्ट है। मुहरों या सिक्कों की पोटली होती थी जिसे टेंट में खोंसा जाता था। महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार नहीं था इसलिए उनके जो कपड़े बनाये गये उनमें जेब नहीं होती थी। कभी किसी सिक्के को सुरक्षित रखने के लिए उसे धोती की गांठ में बांधना पड़ता था।


लालू की जेब-तलाशी तो सीबीआई ने लेकर सबको बता दी, पर पता नहीं उन्होंने नितीश का झोला कहाँ से देख लिया। वैसे अपने झोले का पता तो नरेन्द्र मोदी ने बता दिया था, और कहा था वे तो फकीर आदमी हैं, जब जी चाहेगा, झोला उठा कर चल देंगे। यह फकीराना अन्दाज भी अजीब है, जो सब कुछ छोड़ सकता है, पर झोला नहीं छोड़ सकता। इस झोले में क्या है, और यह कहाँ तक जायेगा? युधिष्ठर तो अपने कुत्ते को स्वर्ग में साथ ले गये थे, अब हो सकता है कि कुत्ते की जगह झोला आ गया हो।


कफन में जेब नहीं हो सकती, पर जेब में कफन हो सकता है। यह तो पता नहीं कि जो लोग सिर पर कफन बाँध कर किसी पवित्र लक्ष्य को लेकर निकलते थे, उनका कफन पगड़ी ही बना रहा या कभी काम में भी आया। समाज के लिए काम करने वाले शायद यह अपेक्षा भी नहीं रखते थे इसलिए अपना कफन पहले से ही तैयार रखते थे। कुछ दशक पूर्व तक तो ऐसे कफनों में जेब नहीं होती थी पर भविष्य में तो अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसी कम्पनियां तरह तरह के डिजायन वाले कफन आन लाइन उपलब्ध कराने लगें, आदमी मरने से पहले आर्डर कर सकते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग तो कफन के सौन्दर्य पर इतने मुग्ध हो जायें कि मरने का पैकेज तलाशने लगें।

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