जटायु के ज़ख़्मी होने पर लंका से विजयी अट्टहासों का गूंजना समझ आता है मगर किष्किन्धा में भी खिलखिलाहट और किलकिलारियां - टू से द लीस्ट- असामान्य है ।
● त्रिपुरा सामयिक भारतीय राजनीति का जटायु है । उसका दोष यह है कि उसने पाश्विक धनलिप्सा के दिनोदिन महाकाय और आदमखोर होते जा रहे दानव द्वारा लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता को हमेशा के लिए अपहृत करके ले जाने का मूकदर्शक बनने से इनकार कर दिया । दूसरी तरफ निगाह फेर लेने या अपने खेल के लिए शकुनि के पांसों को उपयोग में लाने की चतुराई या प्रैगमेटिज्म नहीं दिखाया । क्या इस इस दोष के लिए कठघरे में जटायु को होना चाहिये ?
● जिन बातों ; घोर अवसरवाद की बजाय सैध्दांतिक राजनीति ; भ्रष्टाचार और कमाई का पर्याय बने नेताओं के मुकाबले में उदाहरणीय ईमानदार और निष्कलंक आचरण और ; प्रदेश को मुट्ठीभर अरबपति कुकुरमुत्तों का टेरेस गार्डेन सजाने की बजाय समूची आबादी के सर्वांग विकास की चहुँओर हरीतिमा की समतल चादर, उसे खादपानी; अकेले दम पर सीमापार से फ़ैलाये आतंक का जड़मूल से नाश कर सातों पूर्वोत्तर राज्यों में अकेले शांतिपूर्ण प्रदेश का गौरव बनाने : आदिवासी आबादी के विकास में विश्वस्तरीय मानक कायम करने जैसी ठीक उन्ही बातों के लिए जटायु कठघरे में हैं, जिनके लिए उसका गौरवगान होना चाहिए था।
इट्स अनफेयर, इजन्ट इट ?
● देशी-विदेशी पूंजीराक्षसों की हर तरह की तिकड़म के मुकाबले बहादुरी से लड़े और इस दौरान अपनी 45 फीसदी ताकत को अक्षुण्ण बचाये रखने के जटायु के शानदार शौर्य का अभिवादन करने की बजाय मनुष्यता विरोधी कारपोरेटी पूँजी-नरसंहारी फासी साम्प्रदायिकता और राष्ट्रविरोधी आतंकियों केआपराधिक त्रिशूल के "चातुर्यपूर्ण प्रबंधन" पर लंका ही नहीं किष्किन्धा भी बलिहारी हुयी हुयी जारही है ।
● इस पोस्ट से शुरू किये जा रहे संवाद का मकसद भावुकता बटोरना या संवेदनायें जगाना नहीं है । राजनीति, खासकर परिवर्तनकामी राजनीति, उद्वेगों और आवेगों से नही चलती । किन्तु वह "कुछ तो हुआ होगा" झाडूमार, निराधार आशंकाओं पर भी नहीं चलती । चलताऊ निष्कर्ष ऐसी सरपट फिसलन पर जाकर खड़े कर देते हैं जहां जो "गलतियां" हुयीं तक नहीं उनपर सारी ऊर्जा खर्च कर दी जाती है और चुनाव के बाद से त्रिपुरा में जारी वीभत्स, नृशंस हिंसा की भर्त्सना करने के लिए शब्द नहीं बचते ।
● यह समय इस तरह की लापरवाही का नहीं है । दांव पर वाम नहीं है, देश और अवाम है ।
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