एकलव्य का अपराध इस बार संगीन था । जो सीखा अपनी दम पर सीखा, न द्रोण से कुछ लिया - न अंगूठा दिया । खुद को हस्तिनापुर माने बैठों ने ज्यादा थानेदारी दिखाई तो अंगूठा दिखा जरूर दिया ।
● त्रिपुरा के अलावा उत्तरपूर्व के आदिवासियों का 90 फीसदी तक हिस्सा समय समय पर ईसाई मिशनरियों के संसर्ग में आकर क्रिश्चियन बन गया । देश के अन्य इलाकों के आदिवासियों पर तो दोनों ही तरफ के दबाब रहे। कोई उन्हें ईसाई बनाने में तो कोई उन्हें वर्णाश्रम में कोई जगह तक न होने के बाद भी हिन्दू बनाने पर आमादा रहा । दोनों के बीच पिसा आदिवासी ही । किन्तु त्रिपुरा में ऐसा नहीं हुआ । उसने दोनों को अंगूठा दिखाया और ठसक के साथ अपने एकलव्यपन को कायम रखा ।
● यह इसलिये मुमकिन हुआ क्योंकि 1930 के अन्त और 40 की शुरूआत से ही उनकी लड़ाईयों के अगुआ कम्युनिस्ट रहे । लाल झण्डा थामने के नतीजे निकले : त्रिपुरा की जनजातियों की आदिवासी संस्कृति और अस्मिता सलामत रही : पड़ोसी राज्यों की तरह मिज़ो-नागा-बोडो-उल्फा आदि इत्यादि कबीलो के आपसी झगड़ों का खूनी अखाड़ा नहीं बना : यह एकता और आगे तक गयी और जैसा और कहीं नहीं हुआ त्रिपुरा में हुआ, आदिवासी-गैरआदिवासी (मुख्यतः बंगाली) त्रिपुरा जनों की मजबूत एकता तक विकसित हुयी ।
● यह सब डण्डे के जोर पर नहीं हुआ । किंवदंती नायक दशरथ देव और लोकप्रिय जननायक नृपेन चक्रबर्ती की अगुआई में भूमि और जीवन के लिए लड़ाईयां लड़ी गयीं । गाँव गाँव पढ़ाई के केंद्र स्थापित हुये । वाम सरकार के आते ही आदिवासी इलाकों को स्वयं शासनाधिकार और स्वायत्तशासी निकाय मिले । नतीजे में त्रिपुरा की जनजातियों का चहुमुंखी विकास देश ही नहीं विश्व मानकों पर दर्ज होने लायक हुआ ।
● त्रिपुरा सीमावर्ती राज्य है । यहाँ भी सीमापार ट्रेनिंग और सहायता प्राप्त आतंकी संगठन तैयार किये गये । उनसे सिर्फ बन्दूक से नहीं निबटा गया । तेज विकास और राष्ट्रीय एकता के पक्ष में खुद नेताओं द्वारा गाँव- टोलों में बैठ कर राजनीतिक-वैचारिक अभियान से उसे अलगथलग किया गया । यह जोखिम का काम था । ऐसे ही एक संवाद में हमारे दोस्त और सीटू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, सरकार में मंत्री बिमल सिन्हा सहित करीब एक सैकडां कामरेड्स शहीद भी हुये, मगर अंततः एकलव्य ने खुद अपनी दम पर त्रिपुरा को आतंकविहीन कर उन्हें उनके बांग्लादेश में स्थित हैड क्वार्टर तक खदेड़ ही दिया । ये वही हैं जिन्हें चुनाव जीतने के लिए भाजपा और आरएसएस सादर बुलाकर लाई है और उनके 6-8% वोटों से मिली राष्ट्रविरोधी जीत को "राष्ट्रवाद" बता रही है ।
● त्रिपुरा के विकास की इबारत बाकी देश से अधिक चमकीली है । मनरेगा में देश से दोगुना काम, सवा लाख आदिवासी परिवारों को करीब साढ़े चार लाख एकड़ जंगल की जमीन का वनाधिकार, सिर्फ 6 वर्ष में गरीबी में 62% की कमी इसके कुछ आंकड़े भर हैं ।
● जनजातियों की संस्कृति मनुष्य समाज की प्राचीनतम और समृद्ध संस्कृति है । उनकी भाषायें ही सबसे प्राचीन है । इधर गोंडी, हलवी, उरांव, भीली यहां तक कि निमाड़ी तक विलुप्ति के कगार पर हैं उधर त्रिपुरा में मुख्य जनजातीय भाषा काकबोराक को लिपि दी गयी । उसमे हर स्तर की शिक्षा देना शुरू किया गया । साहित्य छपना शुरू हुआ । दोयम नहीं बराबरी के दर्जे की भाषा बनाया गया ।
● दो साल पहले एक बैठक के सिलसिले में जब जाना हुआ तो एकदम बदले हुये अगरतला को देखकर अचरज में पड़ गए थे । साबुन-पेस्ट खरीदते हुये एक दुकानदार से जब यह आश्चर्य साझा किया तो उसने कहा ; गाँव जाकर देखिये बाबू, असली विकास तो वहां हुआ है । हमने माणिक दा (कामरेड माणिक सरकार ) से कहा था कि हम मध्यप्रदेश के आदिवासी कामरेड्स को लाना चाहते हैं ताकि वे संगठित होना सीखें । माणिक दा ने कहा था ; जरूर लाइए, यहाँ के आदिवासियों को भी अपनी उपलब्धियों का कुछ अहसास होगा ।
● वर्णाश्रमी मानसिकता से ग्रस्त संघ और भाजपा और सत्ता के हस्तिनापुर को एकलव्य की खुद्दारी और बहबूदी खटकती है । इसलिये सारे शकुनियों और मारीचो को झोंककर वह उसकी खुशी छीन लेना चाहता है । मगर एक बार जो अवाम आज़ादी चख लेता है उसे दोबारा गुलाम बनाना असंभव है ।
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