Sidebar Menu

50 वर्ष की सीटू - जिसने मजदूर आंदोलन की दशा और दिशा बदल दी

अगर भारत के मजदूर आन्दोलन के एक असंबध्द छात्र के रूप में भी देखें तो साफ़ दिखाई देता है कि सीटू - सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियन्स - भारत की ट्रेड यूनियनों का केंद्र - आंदोलन, संगठन और मकसद के जुड़ाव का एक कॉपी बुक डेमोंस्ट्रेशन है - शास्त्रीय प्रमाण है - एक ऐसी मिसाल है जिसके आधार पर मजदूर आंदोलन कैसे संगठित किया जाना चाहिए इसकी पाठ्य पुस्तक लिखी जा सकती है।

अगर भारत के मजदूर आन्दोलन के एक असंबध्द छात्र के रूप में भी देखें तो साफ़ दिखाई देता है कि सीटू - सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियन्स - भारत की ट्रेड यूनियनों का केंद्र - आंदोलन, संगठन और मकसद के जुड़ाव का एक कॉपी बुक डेमोंस्ट्रेशन है - शास्त्रीय प्रमाण है - एक ऐसी मिसाल है जिसके आधार पर मजदूर आंदोलन कैसे संगठित किया जाना चाहिए इसकी पाठ्य पुस्तक लिखी जा सकती है।

सबसे अच्छी शुरुआत वह होती है जो सबसे ज्यादा असुविधाजनक और टेढ़े सवाल के साथ की जाए - वही से करते हैं। दुनिया के मजदूरों एक हो का नारा लगाते हैं और एक यूनियन में साथ नहीं रह सकते, उससे अलग होकर सीटू बनाते हैं - ये क्या है??

क्या ये अलग पार्टी बनने की वजह से हुआ? नहीं - पार्टी तो 1964 में ही बन गयी थी। क्या नेताओं का झगड़ा था? नहीं - क्योंकि सीटू बनाने पर दमन के अलावा मिलना क्या था? कबीर जैसी हालत होनी थी - लिए लकुटिया हाथ - जो घर फूंके अपना चले हमारे साथ।

सीटू इस बात की जीती जागती मिसाल है कि कई बार अलग होना ज्यादा बेहत्तर तरीके से एकजुट होने के लिए अनिवार्य और जरूरी हो जाता है; 1970 में अगर सीटू नहीं बनाई गयी होती तो बहुत मुमकिन है कि देश का श्रमिक आंदोलन अपनी धार ही नहीं अस्तित्व भी खो बैठता।

क्या हाल थे साठ और सत्तर के दशक में? जिस केंद्रीय संगठन से अलग होकर सीटू बनाई गयी उसका तबका नेतृत्व मानने लगा था कि लड़ाई- वडाई - आंदोलन संघर्ष वगैरा की जरूरत नहीं। रार तकरार की आवश्यकता नहीं - समझौतों से काम चलाया जाना चाहिए। ये समझौते वे समझौते नहीं थे जो मजदूर संघर्षों के बाद मालिकों और सरकारों को झुकाकर हासिल करता है - ये समझौते वह समझौतावाद था जो संघर्षों को शुरू ही नहीं देना चाहता। यह एक गलत राजनीतिक समझ का नतीजा था - आज के हालात, बदली हुयी चुनौतियां और बड़ी हुयी एकता ज्यादा विस्तार में जाने से रोकती है - वैसे भी जिनका पोस्टमार्टम रिकॉर्ड किया जा चुका हो उन गड़े मुर्दों को खोदकर नहीं निकालना चाहिए।

मगर फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि उस दौर में एटक के एक बड़े नेता थे डांगे - जिनका मानना था कि समाजवाद बबुआ पूंजीवाद की कार में बैठकर आयी - इस गलत समझ ने मजदूर की लड़ाईयां रोक दी थीं। अब इंसान कितना भी सद्भावना से काम क्यों न ले - भेड़िये कभी शाकाहारी नहीं होते। इधर मजदूरों पर हमले दर हमले थे - उधर डांगे की जकड में फंसी एटक आन्दोलनों संघर्षों से परहेज कर रही थी।

इस पर कहीं कोई यूनियन हड़ताल या संघर्ष का फैसला ले ले और लड़ाई में उतर जाए तो मालिक और पुलिस बाद में आती थी उससे पहले डांगे नमूदार होते थे और भले 99 फीसद मजदूर यूनियन के साथ हों उस यूनियन को भंग करके अपने बन्दे बिठा देते थे - यूनियन की बैठक में बोलने तक नहीं देते थे - हालत ये थी कि एटक में फैज़ साहब की नज़्म में कहें तो चली ये रस्म कि कोई न सर उठाके चले, चलने लगी थी। एटक के राष्ट्रीय सचिवों में एक थे कामरेड एम के पंधे जिनसे दफ्तर में कोई बात तक नहीं करता था - कोई डाक उनके टेबल पर नहीं आती थी।

इस घुटन से बाहर न आते तो कहाँ होता मजदूर आंदोलन?? इस घुटन से बाहर आने का एक ही तरीक था; नया संगठन बनाना ताकि ताजी सांस ली जा सके।

ज्यादा विस्तार में न जाते हुये सार रूप में इतना कि 9-10 अप्रैल 1970 को गोआ के वास्को ड गामा शहर में एटक की जनरल कौंसिल के वे सारे सदस्य इकट्ठा हुये जिन्हें उनकी बात न सुने जाने पर गुंटूर में हुयी एटक की जनरल कौन्सिल से बाहर आने के लिए मजबूर होना पड़ा था। उनके साथ राज्य समितियों के भी कई सदस्य इस कन्वेंशन में पहुंचे और तय पाया कि यदि देश के मजदूर आंदोलन को जिंदा रखना है, वर्ग संघर्ष को जारी रखना है तो अब उसके लायक नया संगठन बनाने के अलावा और कोई दूसरा चारा नहीं है। इस कन्वेंशन ने 28 से 31 मई 1970 में कलकत्ता में एक नए ट्रेड यूनियन सेंटर का सम्मेलन करने का निर्णय लिया और 30 मई को भारत के ट्रेड यूनियन आंदोलन में सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियन्स (सीटू) की आमद हो गयी।

मगर बनते ही पहले ही सम्मेलन में उसने तुरंत मजदूर एकता के पक्ष में अभियान छेड़ा तथा #एकता_और_संघर्ष का नारा व्यवहार में लाना शुरू किया। संघर्ष के लिए एकता - एकता के लिए संघर्ष। यह बड़ी बात थी . इसी सम्मेलन ने 16 सूत्री मांगों को लेकर देशव्यापी संयुक्त आंदोलन का आव्हान किया।

सीटू की स्थापना ही एक यूनियन से टूट कर हो रही थी। टूटन और अलगाव के अपने कलुष और आफ्टर इफेक्ट्स होते हैं। उस पर उस दौरान कितनी कड़वाहट थी, जिन्होंने उसे देखा नहीं है वे अंदाजा भी नहीं लगा सकते। इतना भर समझ लें कि बंगाल, केरल, आंध्र, तामिलनाडु यहां तक कि मध्यप्रदेश में भी सीटू बनाने वाली धारा के कामरेड्स जिन हाथों से मारे जा रहे थे, सीटू उन्ही के साथ साझे मुद्दों पर एकता की दृढ संकल्पित अपील कर रही थी। स्थापना सम्मेलन में गए प्रतिनिधियों का एक तिहाई इन्ही के हाथों द्वारा नौकरी से डिसमिस और उत्पीड़ित कराये गए मजदूर नेताओं का था। मगर इसके बाद भी एकता की पुरजोर अपील की गयी। जिस नेता ( कामरेड बी टी रणदिवे) के विरुद्ध संकीर्णता और विभाजन का घृणिततम दुष्प्रचार था, वे ही संघर्ष के लिए एकता का प्रस्ताव रखते हुये अपने कामरेडों को सचेत कर रहे थे - कह रहे थे कि : "भावनाओं में नहीं बहना है। लौटकर जाने के बाद हमारे प्रचार की धार किसी की निंदा या भर्त्सना करके तल्खी बढ़ाने पर नहीं मजदूर की मांगों पर सबकी एकता पर केंद्रित होनी चाहिए।"

यह चेतावनी पूर्व के साथियों भर के बारे में नहीं थी। बंगाल में अर्धफासिस्ट आतंक कायम कर रही इंटक और धुर दक्षिण पंथी आरएसएस की भुजा बीएमएस के लिए भी थी।

मगर आसान नहीं थी मजदूर वर्ग की एकता एक आग का दरिया था और डूबके जाना था।

सीटू के लिए एकता का मतलब बाकी यूनियनों के नेताओं की शक्ल और चालढाल या उनकी वैचारिक संबध्दता देखना नहीं है, एकता का मतलब उनके पीछे चलने वाले मजदूर हैं, जिन्हें शामिल किये बिना समूचे मजदूर वर्ग की एकता कायम नहीं की जा सकती। सीटू को पक्का विश्वास था कि :

"अब हवाएँ ही करेंगी रौशनी का फ़ैसला
जिस दिए में जान होगी वो दिया रह जाएगा"

सीटू की तब की पीढ़ी को पता था कि "चिंता क्यों करते हो गलतबयानी पर बूढ़ी दुनिया की/ न्याययाधीश समय निर्णय कर देगा अपने आप दिन/ अगर तुम्हारी फसल रही निर्दोष, बादलों का विरोध क्या/ सागर खुद क्यारी क्यारी भर देगा, अपने आप एक दिन।"

प्राणियों में, सिर्फ भेड़ें ही नाक की सीध में चलती हैं और जिबह होने के लिए सीधे मक़तल में पहुँचती है। मजदूर आंदोलन जरूरत के हिसाब से कार्यनीति तय करता है। मंजिल को ध्यान में रखता है उस तक पहुँचने के रास्ते तय करता है। ये रास्ते सुविधाजनक नहीं होते, कभीकभार मनोनुकूल भी नहीं होते, अक़्सर टेढ़े मेढ़े होते हैं। मगर वे होते हैं, उनके होने को निगाह में रखकर ही आपकी यात्रा योजना बनती है, इसका उलटा नहीं होता। सीटू ने अपने मकसद को, उद्देश्य को कभी आँखों से ओझल नहीं होने दिया - कार्यनीति को इसी हिसाब से लागू किया। छुआछूत नहीं की - जनता पार्टी की सरकार के समय एक भूतलिंगम आयोग बना था - इस के खिलाफ सीटू ने उस इंटक को इसरार के साथ शामिल किया जो कुछ महीने पहले तक इमरजेंसी के कहर की अगुआ थी। बीएमएस को लाने की कोशिशें नहीं छोड़ीं।

ईगो, अहंकार - इंडिविजुअल ईगो हो या इंस्टिट्यूशनल ईगो- मूलतः ओछापन है। व्यक्तियों में भी बुरा है संगठन और क्रांतिकारी संघर्षों में तो और भी हानिकारक है। इस बीमारी से जो बचते हैं वे ही बच पाते हैं - जो नहीं बच पाते वे इतिहास में मिलते हैं लेकिन कूड़ेदान में; सीटू इससे बची रही तो बढ़ती रही। संयुक्त आन्दोलनों को बढ़ाती रही।

आज देश के सारे मजदूर कर्मचारी तक एक साथ हड़ताल पर चले जाते हैं- आज यह बहुत सहज सी बात समझी जाती है। मगर इतना आसान नहीं था इसे हासिल करना। युवा साथियों को यह जानकर ताज्जुब होगा कि सीटू के बनने के पहले भारत में संयुक्त आन्दोलनों का कोई रिवाज ही नहीं था - साझी लड़ाइयां तो छोड़िये, यूनियनों के बीच बोलचाल भी कम ही थी। इस एकता को बनाने में सीटू का मुख्य योगदान है। कितने धीरज के साथ यह विकसित होते होते यहां तक पहुंची कि शासकवर्ग की विचारधारा वाली इंटक तथा बीएमएस भी इसका हिस्सा बन गयीं, इसे समझा जा सकता है।

सीटू बनते ही पहला साझा मंच यूनाइटेड काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियन्स के रूप मेें बना। 1974 में रेल हड़ताल की अगुआई करने वालीं एन सी सी आर एस बनी। 1981 में वह नेशनल कैंपेन कमेटी (एनसीसी) 1985 में पब्लिक सैक्टर के साझे मंच सीपीएसटीयू से होते हुए यह एकता नवउदार नीतियों के दौर में स्पांसरिंग कमेटी ऑफ ट्रेड यूनियन्स तक विकसित हुई।

यह था एकता और संघर्ष की नीति का पालन : एकता संघर्ष के लिए, संघर्ष और बड़ी एकता के लिए।

17 राष्ट्रीय हड़तालों के बाद, आज अखिल भारतीय संघर्ष और संयुक्त आव्हान की देशव्यापी हड़तालें जितने आसान समझे जाते हैं, यह सीटू की नीति का नतीजा है।

इसके नए नए रूप, जैसे उद्योग आधारित फेडरेशन, इसी दिशा में कदम था। इसके पहले स्टील के कारखानों की अलग अलग यूनियन थीं, कोयले में कंपनी और एरिया की यूनियन थी - बीड़ी और निर्माण में जिलों के संगठन थे - सीटू ने पहली बार इन्हे फेडरेशन में पिरोया। देश के मजदूर आंदोलन की सेक्टर वाइज एकता को फौलादी बना दिया।

एकता की यह मुहिम यही तक नहीं रुकी - सीटू की पहल पर एकता मजदूरों से भी ऊपर उठी, एक समय जनसंगठनों के राष्ट्रीय मंच -एनपीएमओ- तक गयी, जो अब जनएकता - जनअधिकार आंदोलन जेजा की शक्ल में और आगे बढ़ गयी है - जिसकी ताकत का एक सबूत इसी 8 जनवरी 2020 को मजदूर किसानों की साझी लड़ाई में 25 करोड़ के उठ खड़े होने के रूप में दुनिया ने देखा।

सीटू सिद्धांतत: देश भर के सारे मजदूरों की एक यूनियन होने की हामी है। मालिक वर्ग का संगठन एकजुट है, उसका राज उसके वर्गीय हितों की रक्षा करने के लिए तैनात है तो मजदूर भी एक वर्ग है इसलिए समूचे मजदूर वर्ग का संगठन भी एक होना चाहिए। सीटू आज भी एक उद्योग एक यूनियन की पक्षधर हैं; बस दो बातों की गारंटी होनी चाहिए एक तो ये कि उसमें मजदूरों के लिये पूरा और हर तरह का लोकतंत्र हो और दूसरा यह कि वह वर्ग संघर्ष में विश्वास रखता हो, वर्ग सहयोग या समर्पण में नहीं। यह थोड़ा आगे की बात है। कुछ समय लगेगा, इसलिए इस तक पहुंचने के लिए सीटू ने 1979 से कन्फैडरेशन (महासंघ) बनाने का आह्वान किया हुआ है। सहमति की मांगों पर एक महासंघ। बाकी मांगों पर अलग रहो।

एकता बनाने और उसे कायम रखने के अलावा इसकी अनेक खासियतों में से एक यह है कि यह नेता की नहीं मजदूर की अपनी यूनियन है।

"यूनियन को नेता की नहीं मजदूर की अपनी यूनियन, मजदूर का अपना घर अपना किला बनाने" का नारा बी टी रणदिवे ने स्थापना सम्मेलन में ही पूरी वैचारिक पृष्ठभूमि के साथ रखा था। उन्होंने कहा था कि "यूनियनें नेताओं के नाम से जानी जाती हैं। नेता भी उसे "अपनी यूनियन" मानकर चलाते हैं। मगर सबसे ख़राब बात यह है कि मजदूर भी बड़े सहज भाव से उसे "नेता की यूनियन" मान लेता ही।" बी टी आर ने इस स्थिति को बदलने के लिए कामकाज की जनवादी सांगठनिक कार्यशैली पर जोर दिया।

क्यों होता है ऐसा? इस बात को और ठीक समझने के लिए भारत के मजदूर वर्ग की अप्राकृतिक पैदाईश को ध्यान में रखना होगा। भारत का पूंजीवाद सतमासा है तो मजदूर वर्ग पचमासा है। यहां यूरोप की तरह सामन्तवाद के खात्मे के बाद कुशल कारीगरों और आर्टिजन्स के कौशल को नवोदित औद्योगिक उत्पादन में लगाकर पूँजीवाद का विकास नहीं हुआ। हमारा सर्वहारा बर्बाद किसान, दरिद्र बेदखल ग्रामीण थे। जो अकुशल मजदूर ही नहीं थे, गाँवो में उनका मानस था/है, उनकी चेतना में गाँव थे/हैं। भारत के मजदूर के उद्भव और विकास पर तनिक विस्तार से बाद में कभी बात करेंगे अभी इतना भर कि किसी नेता को सर्वस्व मान लेना, कुछ लोगों को द्विज मानकर चलना उनकी परवरिश का हिस्सा था।

सीटू की सांगठनिक कार्यप्रणाली ने इस दोष के निर्मूलन का रास्ता बनाया। सीटू ने उसे हमेशा अपनी समझ और व्यवहार का हिस्सा बनाया, लागू करने की जिद की। नतीजा उत्साहवर्धक रहा, मजदूरो के बीच से हर स्तर के नेता निकले।

हाल तक इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष ए के पद्मनाभन एक कारखाने के मशीनिस्ट थे। महासचिव तपन सेन इस्पात उद्योग के मजदूर हैं। एक पूर्व अध्यक्ष ई बालानंदन इलेक्ट्रीशियन रहे थे। एक पूर्व महासचिव थे मोहम्मद अमीन जूट कारखाने के बाल मजदूर से यहां तक पहुंचे। दीपंकर मुख़र्जी इलेक्ट्रिकल इंजीनियर थे। आज के जे एस मजूमदार सहित कई राष्ट्रीय सचिव, उपाध्यक्ष, कोषाध्यक्ष मेडिकल रेप्रेजेंटेटिव, रेल, कोयला, जूट, कपड़ा आदि इत्यादि के मजदूर रहे। ज्यादातर राज्यो और जिलों का नेतृत्व भी आज मजदूरों के हाथों में है।

जिद के साथ मजदूरो को नेतृत्व तक लाना, उनके नेतृत्व को निखारना सीटू में इनबिल्ट है। उसकी बनावट का हिस्सा है। यहाँ हर समझौते या फैसले नेता नही करता। उसकी भी ऐसी प्रक्रिया है कि आम मजदूर - गैर सदस्य भी- उसका हिस्सा बनता है। मजदूरों में भी युवतर नेतृत्व पर जोर रहा - हरियाणा सीटू इस मामले में हमारा प्रिय मॉडल है - अध्यक्षा भी युवा हैं महासचिव भी युवा हैं। बधाई।

जिस मजदूर को दुनिया पर राज करना है वह अपनी यूनियन भी चलाने की क्षमता रखता है। सीटू ने इसे साबित किया। यूनियन की लोकतांत्रिकता के मामले में तो सीटू का कोई मुकाबला ही नहीं - इसका संविधान कहता है कि कमेटियों में प्रतिनिधित्व सानुपातिक प्रणाली से देना चाहिए ताकि सारी धाराओं और रुझानों को प्रतिनिधित्व मिल सके। इससे एकता मजबूत ही होती है।

इन दो बड़े योगदानो के अलावा सीटू के अनेक अनूठे योगदान रहे इन 50 वर्षों में - ऐसे योगदान जिन्हे सीटू ही दे सकती थी। इनमे से कुछ को ही देख लेते हैं;

सीटू वह पहला केंद्रीय श्रम संगठन था जिसने #महिला_प्रश्न को सीधे सींग से पकड़ा। महिलाओं को लड़ाई की भीड़ से नेतृत्व तक पहुंचाने के लिए समझ और व्यवहार की जड़ताओं को तोड़ा। जिन्होंने कामरेड बी टी रणदिवे को देखा सुना है वे जानते हैं कि किस तरह वे महिला प्रश्न पर प्रहार करके दिमागी जड़ता तोड़ते थे। कामरेड विमल रणदिवे की अगुआई में बनी कामकाजी महिला समन्वय समिति ने उस काम को बढ़ाया और आज गर्व की बात है कि कामरेड हेमलता सीटू की प्रेसिडेंट हैं - सीटू की सदस्यता और लामबन्दियों और नेतृत्व में महिलायें खूब हैं। सीटू हरियाणा की प्रेसीडेंट भी एक युवती हैं तो कर्नाटक की महासचिव एक महिला हैं। नीचे तक अभी काफी कुछ करना बाकी है - मगर बहुत जरूरी है क्योंकि महिला जब नेतृत्व में होती है तो काम और विस्तार की भाषा और व्याकरण अलग ही होता है।

दूसरा सवाल था #असंगठित_क्षेत्र मजदूरों को संगठित करना - इसने ट्रेड यूनियन आंदोलन की वर्तनी ही बदल कर रख दी है। इसने श्रमिक आंदोलन के गाँवों और इस तरह वहां के किसानो के साथ रिश्तो की डोर मजबूत की है। एक ऐसा रिश्ता जोड़ा है जो अगर ठीक तरह से काम कर गया तो देश की राजनीति और समाज का गुणधर्म बदल कर रख देगा।

तीसरा बड़ा काम सीटू ने #बेरोजगार लोगों के लिए किया - उन्हें ऐसा मजदूर माना जिसे पूँजीवाद ने अपने मुनाफे के लिए रिज़र्व मजदूर बनाकर रखा है। सीटू ने कहा बेरोजगार युवा वे श्रमिक हैं जिन्हे काम नहीं मिला। यह नई और सही समझदारी है - यह सीटू की यूनियनो पर बड़ी जिम्मेदारी है।

चौथा बड़ा योगदान भारतीय सन्दर्भ में मजदूर वर्ग के #प्रोफाइल को समझना और उसके अनुकूल कदम उठाना है। देश के 10 बड़े पूंजीपतियों में से 7 का वैश्य और बाकी 3 का व्यवसायी या कथित श्रेष्ठतम द्विज होना, सवा सौ डॉलर अरबपतियों में एक भी दलित या आदिवासी न होना और असंगठित मजूरों - खेत मजूरों में 85 से 90 प्रतिशत उन मजदूरों का होना जिन्हे #मनु की जघन्य किताब शूद्र - कोई संयोग नहीं है। सीटू ने इस पहेली को समझा है और अपनी लड़ाईयों को आर्थिक मांगो के संघर्ष के साथ सामाजिक उत्पीड़न के आयामों से भी जोड़ा है। यह समझा है कि जिस तरह पूँजीवाद के भेड़िये को खदेड़ने के लिए एकजुट हुंकारा जरूरी है उसी तरह जाति श्रेष्ठता के भौंडे विश्वास के सांड़ को भी सींग से पकड़ना होता है। क्योंकि पूंजीवाद इसका कारगर इस्तेमाल कर रहा है।

पांचवां योगदान मजदूर आंदोलन को नतीजों से ही नहीं #नीतियों से भी लड़ने के मुकाम तक पहुंचाना है। यह काम भी सरल नहीं था - 1991 में जब सीटू ने साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के त्रिशूल - विश्व बैंक, मुद्रा कोष, डब्लू टी ओ के खिलाफ आवाज उठाई तब ज्यादातर ट्रेड यूनियन ने कहा कि यह राजनीतिक मांगे हैं - हमें यह नहीं उठानी चाहिए। हम अपने मजदूरों की मांग करें - आज वे ही सब सीटू की राय के साथ है और नीतियां बदलवाने की लड़ाई लड़ रही हैं।

विज्ञान और तकनीकी के समझने में भी सीटू पीछे नहीं रही - वह पहली यूनियन थी जिसने #आई_टी_कर्मचारियों को संगठित करने की मुहिम हाथ में ली। विज्ञान क्या है? दिमागी और शरीरी काम मेहनतकशों की खोज और सृजन ही तो है। वर्गविभाजित समाज में तकनीक शोषक वर्ग अपने कब्जे में ले लेते हैं। शोषण बढ़ाने का जरिया बना लेते हैं। इससे लड़ना भी है और इस विज्ञान और तकनीक का उपयोग अपने संघर्षों के विस्तार और निखार के लिए भी करना है। सीटू यही सब कर रही है - हरियाणा सीटू का यह फेसबुक लाइव इसी का उदाहरण है।

ऐसी सीटू की 50 वी सालगिरह पर आपको शुभकामनाये आखिर में 30 मई 1970 में अध्यक्ष चुने जाने के बाद दिए समापनभाषण में बी टी आर ने जो कहा था उसे याद दिलाते हुए। उन्होंने कहा था;

"नया संगठन बना तो लिया, मगर कार्यशैली वही पुरानी वाली रही तो यह एक ऐसा अवास्तविक और अगम्भीर संघर्ष होगा जिसे शुरू ही नहीं होना चाहिए था।"

उन्होंने सचेत किया था कि; " संघर्ष विरोधी संशोधनवाद के साथ 'होली' खेलेंगे तो समझौतापरस्ती का रंग तुम्हारे कपड़े और शरीर से चिपकेगा ही।"

उन्होंने कहा था "नया संगठन नयी लाइन के साथ है। हरेक को अपनी चेतना बदलनी होगी, पुरानी चेतना जिद करके छोड़नी होगी। संघर्ष तभी आगे बढ़ेगा।"

सीटू इस बात को लेकर सजग है। इस लायक संगठन बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। 1992 में भुवनेश्वर प्रस्ताव और हाल में कोजीकोड की जनरल कौंसिल में संगठन दुरुस्ती का नया अद्यतन प्रस्ताव लेकर आयी है। सीमाओं, चूकों, छूट रहे कामों के प्रति सजग होना उन्हें आधा सुधार लेने के बराबर होता है।

सीटू की इन सफलताओं, उसकी प्रतिष्ठा में सैंकड़ों कार्यकर्ताओं-नेताओं की कुर्बानी का, अपनी जान तक गंवाकर भी लाल झण्डा उठाये रखने का योगदान है। यह झण्डा उनका है। वे अपनी फौरी मांगों के साथ साथ शोषण की पूर्ण समाप्ति और समाजवाद की कायमी के लिए भी लड़े थे जो उनके और सीटू दोनों के लक्ष्यों में है। यह लड़ाई कुछ अतिरिक्त काम और अत्यधिक परिश्रम की मांग करती है।

50 वी सालगिरह पर देश के मजदूरों के सबसे भरोसेमन्द और जुझारू संगठन सीटू को उसके #एक_कार्यकर्ता रहे #एक्टिविस्ट_की_क्रांतिकारी_शुभकामनाये।


About Author

Badal Saroj

लेखक लोकजतन के संपादक एवं अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं.

Leave a Comment