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लेकिन किन्तु परन्तु अगर मगर फिर भी से परे है मोरोना वायरस

बीते बुधवार को इंदौर की टाटपट्टी बाखल में कोरोना संभावित बुजुर्ग को जांच के लिए लेने गयी डॉ ज़ाकिया सैयद और नर्सेज, पैरा मेडिकल स्टाफ के साथ जिस तरह की बेहूदगी और बदतमीजी हुयी उसकी सिर्फ निंदा, भर्त्सना और मज़म्मत ही की जा सकती है।...

बीते बुधवार को इंदौर की टाटपट्टी बाखल में कोरोना संभावित बुजुर्ग को जांच के लिए लेने गयी डॉ ज़ाकिया सैयद और नर्सेज, पैरा मेडिकल स्टाफ के साथ जिस तरह की बेहूदगी और बदतमीजी हुयी उसकी सिर्फ निंदा, भर्त्सना और मज़म्मत ही की जा सकती है। उसे लेकर किसी भी लेकिन, किन्तु, परन्तु, अगर, मगर, फिर भी जैसी पतली गली तलाशना किसी मुकाम पर नहीं पहुंचाता। ऐसा करने वाले, कुछ जाने में और काफी कुछ अनजाने में, उन्ही मूर्ख शोहदों की जमात में खड़े होते हैं जिन्होंने इस मेडिकल टीम पर पत्थर फेंके, कहते हैं कि उन पर थूका, उन्हें अपनी बाखल से खदेड़ बाहर किया । उनमे और इन किन्तुआरियों - परंतुकारियों - लेकिनधारियों में अंतर सिर्फ इतना है कि उनके हाथ में गालियां और पत्थर थे इनके हाथ में शब्द और कुतर्क हैं। वरना दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुयी।

बात शुरू करने से पहले यह दोहराना जरूरी है कि टाटपट्टी बाखल में हुयी बेहूदगी की देश भर में निंदा हुयी है और किसी ने भी इसे जायज ठहराया हो ऐसा - अभी तक - नजर नहीं आया। इस मूर्खता के प्रकट होने वाली रात को ही मशहूर शायर राहत इंदौरी साहब ने इंदौर के इन जाहिलों की सख्त मजम्मत, कड़ी भर्त्सना की थी । उनकी आवाज में अपनी और अपने जैसों की आवाज मिलाते हुए सिर्फ इतना और जोड़ना चाहेंगे कि कानूनी धाराओं में लिखी गयी सजा के अलावा इसमें लिप्त मूर्खों को कम से कम तीन महीने की तालीम अलग से दी जानी चाहिये जिसमे इन्हे बैक्टीरिया , वायरस और हाईजीन की न्यूनतम शिक्षा दी जाये।

इंदौर में जो हुआ वह मोरोना वायरस का प्रकोप था

अंग्रेजी में मोरोन शब्द मूर्खता का समानार्थी होता है। चूंकि यह समय कपड़ों से लोगों की पहचान करने का समय है इसलिए इन दिनों भाषाओं के भी धर्म तय कर दिए गए हैं। शब्दों के भी मजहब हो गए हैं। मोरोना का यह वायरस जब टाटपट्टी बाखल में संक्रमित हुआ तो इसने टोपी पहन ली और यह जहालत का वायरस हो गया - जबकि कायदे से इसे इंदौर की मीठी मालवी में बेन्डेपन का वायरस कहना ज्यादा सही और समझ में आने लायक होता। बहरहाल भाषा या वर्तनी बदलने के बावजूद मूर्खता, मूर्खता ही रहती है, समझदारी नहीं बन जाती । मूर्खता या जहालत जो भी कह लें, उनका डीएनए एक है । उसकी खासियत यह है कि वह पूरी तरह सेक्युलर और धर्मनिरपेक्ष - सही शब्द होगा सर्वधर्म समभावी - होती है। इसलिए इनमे अक्सर यह साबित करने के लिए जंग छिड़ी रहती है कि मेरी जहालत तेरी मूरखता से ज्यादा पाक और पावन है। खालिस और अपौरुषेय है। प्राचीन और सनातन है। क्योंकि जैसा कि अनेक विद्वानों ने कहा और वरिष्ठ कवि कुमार अम्बुज ने दोहराया है तमाम मूर्खताओं, जहालतों में धार्मिक मूर्खतायें सर्वश्रेष्ठ होती हैं। हालांकि इनमे कितनों ने धर्म की किताबें पढ़ी होती हैं इसके बारे में कहना मुश्किल है।

यही जहालत का वायरस था जो मरकज के किसी मौलाना की तक़रीर में कोरोना से बचने के लिए कुछ ख़ास आयतों को पढ़ना काफी बताते हुए, संक्रमितों की संख्या में दर्जन डेढ़ दर्जन की तादाद जोड़ने के साथ अपनी मूर्खता (सॉरी, जहालत) से कुछ लोगो को इस विषाणु का मजहब तय करने की सहूलियत और मीडिया को अपनी पुरानी कहानी दोहराने के लिए नयी घनगरज दे गया। मित्र पत्रकार, पूर्व सम्पादक नसीर कुरेशी ने बताया कि हदीस में लिखा है कि " अगर आपको यह पता लगता है कि किसी जगह प्लेग फैला है तो वहां नहीं जाएं। अगर जहां आप हैं, वहां प्लेग फैल गया है, तो वहां से कहीं नहीं जाएं।" तब्लीगी मरकज के मौलाना ने हदीस नहीं पढ़ी होगी यह मानने की कोई वजह नहीं है ।

इतिहास का एक सबक है - जिसे पता नहीं विज्ञान और चिकित्सा बिरादरी मानेगी या नहीं - और वो यह है कि कोरोना सहित दुनिया के किसी भी जानलेवा वायरस से ज्यादा खतरनाक होता है जहालत और मूर्खता वाला मोरोना वायरस। इसके संक्रमण की रफ़्तार ध्वनि और आवाज की गति से भी तेज होती है और नतीजे में होने वाली मौतों की संख्या भी बहुत ज्यादा होती है। इसके संक्रमण से होने वाली मौतों के दो और खतरनाक आयाम हैं। एक ये कि व्यक्ति की देह ज़िंदा दिखती है, उसका दिल दिमाग और मनुष्य मर जाता है। दूसरी यह कि यह सिर्फ मानवताओं का ही संहार नहीं करता सभ्यताओं का भी सर्वनाश कर देता है।

हर बैक्टीरिया - वायरस की तरह इस वायरस का भी मौलिक और प्रमाण समर्थित एक ख़ास गुण है। जिसमे यह पलता और जिसके जरिये यह फैलता है अपने उस कैरियर को यह कतई नुक्सान नहीं पहुंचाता । दुनिया के अनुभव गवाह है कि अंधविश्वास और टोने टोटकों और झाड़फूंक और घण्टा घंटरियों को मुफीद इलाज और मुर्गे मुर्गियों की बलि को अचूक समाधान बताने वाले खुद अपने ऊपर कभी इस तरह के प्रयोग नहीं करते। वे सीधे किसी फाइव स्टार नर्सिंग होम में जाते हैं, अपनी हैसियत के मुताबिक़ दुनिया का सबसे बेहतरीन डॉक्टर ढूंढते हैं।

बाकियों को अंधविश्वास में रखना एक जाँची परखी आजमाई विधा है। राज चलाने और शासन करने की विधा। दार्शनिक विचारक ग्राम्शी के शब्दों में कहें तो "शासन करने वाले सिर्फ सत्ता के दिखाई देने वाले उपकरणों के जरिये ही राज नहीं करते। वे एक वर्चस्व - हेजेमोनी - कायम करते हैं। दिमाग पर कब्जा करते हैं। इसके लिए वे एक पूरक सत्ता - सप्लीमेंटरी स्टेट - का सहारा लेते हैं।" नॉम चोम्स्की ने इसे "मैन्युफैक्चरिंग कन्सेंट" का नाम दिया। यही बात ग्राम्शी और चोम्स्की से कोई 2200 वर्ष पहले चाणक्य अपनी मार्गदर्शिका कौटिल्य के अर्थशास्त्र में लिख गए थे कि "राजा को चाहिये कि वह अपनी प्रजा को ईश्वर से डरा कर रखे अन्यथा उसका राज चलना कठिन हो जाएगा। राजा को चाहिए कि वह स्वयं ईश्वर से कदापि भयभीत नहीं हो, वरना उसके लिए राज चलाना कठिन हो जाएगा। "

अंधविश्वास और अवैज्ञानिकता के थोक और खेरीज सप्लायर्स इसी तरह की पूरक सत्ता हैं। असफल और जनविरोधी शासको के लिए अवैज्ञानिकता और अंधविश्वासों की जकड में फंसी जनता हमेशा उपयोगी रहती है। यही वजह है कि मोरोना वायरस महाद्वीपों को लांघता, भाषाओं, धर्मों की सीमाएं तोड़ता अमरीका से लेकर इटली और पड़ोसी पाकिस्तान से लेकर ईरान और दूरस्थ ऑस्ट्रेलिया तक समान रूप से विचरण करता हुआ पाया जाता है । इन सभी देशों के हुक्मरान और उनकी पूरक सत्ताएं - हर तरह के मठ और मठाधीश बजाय इसका खण्डन करने के इसे महिमामण्डित करते हुए पाए जा रहे हैं।

क्या यह वायरस सिर्फ टाटपट्टी बाखल या निज़ामुद्दीन के मरकज तक महदूद है ? नहीं। यहां जहालत के बरक्स मूर्खता के वायरस के इस तरह के बाकी उदाहरण गिनाकर "पोलिटिकली करेक्ट" होने या "संतुलित" दिखने की कोई इच्छा नहीं। उन्हें इसलिए नहीं लिखा क्योंकि कोई भी - लेकिन, किन्तु, परन्तु, अगर, मगर, फिर भी - से बचना है और इस बार मूर्खता की नहीं जहालत भर की मज़म्मत करना है। ऐसा है तो चलिए ऐसा ही सही। हालांकि इस तरह की शाकाहारी शर्त उन्ही को शोभा देती हैं जो मूर्खता और जहालत में फर्क न करते/करती हों। जो वैष्णो देवी में "फँसे" तीर्थयात्रियों और मरकज़ में "छुपे" जमातियों की खबर में इस्तेमाल शब्दों के पीछे की धूर्तता समझती हो। खैर कुछ तो मजबूरियाँ रहती होंगी, यूं कोई चुनिंदा नहीं होता।

बस एक बात और कि कोरोना हाथ मिलाने से फैलता है - मोरोना, जहालत का हो या मूर्खता का, हाथ मिलाने से ठीक होता है। गले मिलने से हमेशा के लिए बचाव की प्रतिरोधक क्षमता वाला टीका लगा जाता है।

पत्थर खाने और अपमानित होने के अगले ही दिन ठीक उसी जगह दोबारा पहुंचकर डॉ ज़ाकिया सैयद और उनकी टीम ठीक यही काम कर थीं। उन्हें सादर प्रणाम ।


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Badal Saroj

लेखक लोकजतन के संपादक एवं अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं.

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