(जसविंदर सिंह)
हाल ही में केन्द्र सरकार ने अपना आम बजट लोकसभा में प्रस्तुत किया है। मोदी सरकार का यह अंतिम पूर्ण बजट है। अगले साल मई माह में इस सरकार का कार्यकाल खत्म होने वाला है। इस दृष्टि से इस सरकार के पास जनता से किये गए वादों को पूरा करने का यह अंतिम अवसर था। मगर भाजपा द्वारा अपने चुनाव घोषणापत्र में किये गए वादों और प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के चुनावी भाषणों में किए गए आश्वासनों की तरह यह बजट जुमलों की भरमार के साथ प्रस्तुत किया गया है।
संयोग से इसी समय केरल की वामपंथी जनवादी मोर्चे की सरकार ने भी अपना आम बजट विधान सभा में प्रस्तुत किया है। यह वही केरल है, जिसे लेकर भाजपा और आरएसएस न जाने क्या क्या दुष्प्रचार करते हैं। केरल की साम्प्रदायिक सौहार्द की परंपराओं को तोडऩे के लिए संघ प्रमुख बार बार केरल का दौरा कर रहे हैं। खैर वो अलग बात है, यूपी और मध्यप्रदेश सहित भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी केरल में जाकर कई सभायें वामपंथी जनवादी मोर्चे की सरकार के खिलाफ कर चुके हैं। मगर दोनों सरकारों द्वारा प्रस्तुत बजट से दोनों सरकारों का अंतर साफ हो गया है। सही मायनों में यह अंतर दो सरकारों का ही नहीं, बल्कि इन सरकारों को संचालित करने वाले विचारों का भी है।
केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपना बजट प्रस्तुत करते हुए जुमलों की ऐसी बरसात की है कि जनता और मेहनतकश तबकों को तो फिर तन ढकने के लिए वादे लपेटने पड़ेंगे। पेट भरने के लिए जुमलों का ही जायका लेना होगा, क्योंकि बजट की दिशा तो उन्हीं कारपोरेट घरानों और देश के एक प्रतिशत अमीरी की तरफ है, पिछले एक साल में देश की कुल आय का 73 प्रतिशत जिसकी तिजोरियों में पहुंचा है। बाकी के 99 प्रतिशत को केवल 27 प्रतिशत से सब्र करना पड़ा है।
मोदी सरकार ने कारपोरेट घरानों के पर्याप्त छूट दी है। इन पर लगने वाले प्रत्यक्ष करों में कटोती की है। प्रत्यक्ष करों से मिलने वाली आय को 51.6 प्रतिशत से घट कर 50.6 प्रतिशतज पर आ गई है। जब प्रत्यक्ष करों में कमी कर अमीरों को राहत दी है, तब आम आदमी पर लगने वाले अप्रत्यक्ष करों में वृद्वि कर उस पर और बोझ डाल दिया है। सरकार ने कारपोरेट घरानों को इस बजट में सात हजार करोड़ रुपए की और छूट दी है। इतना ही नहीं, छोटे उद्योगों को जिनका वार्षिक टर्नओवर 250 करोड़ से कम है, को टेक्स में 25 प्रतिशत की अधिक छूट दी है। सरकार के पास इस टर्नओवर को आंकने के कोई तर्कसंगत पैमाना भी नहीं है, जाहिर है कि इसका फायदा भी बड़े कारपोरेट घराने ही उठाने वाले हैं।
केरल और केन्द्र सरकार के बजटों की तुलना करें तो केरल की वाम जन मोर्चे की सरकार के पास संसाधनों की कमी होने के उस सरकार ने अपने बजट की धार जन्नोमुखी बनाई है। दोनों बजट के कुछ खास पहलुओं की चर्चा इस प्रकार की जा सकती है।
केन्द्रीय वित्त मंत्री ने अपने बजट को किसान और ग्रामीण उत्थान का बजट कहा है। अपने भाषण में वित्त मंत्री ने दावा किया है कि उनकी सरकार ने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप किसानों को फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम देने का वादा पूरा कर दिया है। सरकार ग्रामीण विकास के लिए प्रतिबद्ध है। मगर वित्तमंत्री ने यह बताने की कोशिश नहीं की है कि यदि किसानों को लागत का डेढ़ गुना दाम मिल रहा है, तो फिर कृषि और किसान संकट में क्यों हैं? यदि कृषि के संकट का समाधान हो गया है तो फिर कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? क्यों मोदी सरकार के आने के बाद आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में वृद्धि हुई है?
अगर गेहूं के बारे में देखा जाये तो सीएसीपी के अनुसार ही गेहूं की लागत 2408 रुपए प्रति क्ंिवटल है, जबकि सरकार ने 1735 रुपए प्रति क्ंिवटल न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया है। सही मायनों में सरकार ने प्रत्येक फसल की लागत बहुत कम करके आंकी है। मगर कम आंकी गई लागत के अनुसार भी एमएसपी लागत की डेढ़ गुना के बराबर घोषित नहीं की है। उदाहरण के लिए सरकार का मानना है कि गेहूं पर प्रति क्ंिवटल लागत 1256 रुपए प्रति क्ंिवटल आती है। इसके अनुसार की एमएसपी 1884 रुपए प्रति क्ंिवटल होनी चाहिए। जौ की सरकार ने ही लागत 1190 रुपये प्रति क्ंिवटल आंकी है, इसके अनुसार इसकी कीमत 1785 रुपए प्रति क्ंिवटल होना चाहिये मगर सरकार ने 1410 रुपए घोषित की है। चने की लागत 3526 रुपए का अनुमान लगाया गया है, इस तरह इसकी एमएसपी 5289 रुपए प्रति क्ंिवटल होना चाहिये जबकि सरकार ने 4400 रुपए का ऐलान किया है। इसी प्रकार मसूर की लागत भी 3727 रुपए है,एमएसपी 5590 होना चाहिये, किंतु 5425 रुपए ही घोषित की गई है। सरसों की लागत भी 3086 रुपए है, इस तरह एमएसपी 4629 होना चाहिये किंतु सरकार ने चार हजार रुपए घोषित की है। सूर्यमुखी की भी लागत 3979 है, इस तरह कीमत 5968 होनी चाहिये, मगर सरकार ने 5425 रुपए ही घोषित की है। जाहिर है कि देश भर के किसान जिन दो मांगों को लेकर संघर्षरत हैं और 20 और 21 नवंबर को संसद में जिन दो कानूनों को पारित कर किसानों को कर्ज मुक्त करने और फसल के वाजिब दाम देने के लिए जो दो कानून बनाये थे, उनके संबंध में चुपी साध कर सरकार ने किसानों के साथ धोखा दिया है। सच बात तो यह है कि सरकार ने किसानों की खाद पर मिलने वाली सब्सिडी भी 3500 करोड़ से घटाकर 1400 करोड़ कर दी है। सरकार ने यह भी सुनिश्चित नहीं किया है कि उसके द्वारा घोषित एमएसपी किसानों को मंडियों में मिलेगी ही, क्योंकि अब तक के अनुभव यह बताते हैं कि किसानों को मंडियों में किसानों की लूट होती है। मंदसौर के किसानों का आंदोलन भी अचानक मंडियों में उनकी फसल के दाम पिछले साल की तुलना में 80 प्रतिशत तक गिर जाने के कारण हुआ था।
जब केन्द्र सरकार ने किसानों के साथ धोखा किया है, तब केरल की वामपंथी जनवादी मोर्चे की सरकार ने किसानों को कर्ज मुक्त करने के लिए एक एक आयोग का गठन किया है, जिसके तहत किसानों के केवल बैंकों के कर्ज ही नहीं बल्कि महाजनों और साहूकारों और सूदखोरों के कर्ज से भी किसानों को मुक्त करने का प्रवाधान किया है। यही वजह है कि केरल में वाममोर्चा सरकार के गठन के बाद एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है। केन्द्र सरकार जब धान उत्पादक किसानों को सात रुपए सब्सिडी देती है, तब केरल की सरकार 14 रुपये सब्सिडी दे रही है। पिछली साल जब धान की एमएसपी 1550 रुपए थी, तब देश भर के किसानों को अपना धान हजार से 1100 रुपए तक में बेचना पड़ा था, तब केरल की सरकार ने किसानों का धान 2300 रुपए प्रति क्ंिवटल की दर से खरीदा था। केरल सरकार के बजट ने अभी भी इस प्रतिबद्वता को दोहराया है।
सर्वोच्च न्यायालय के कहने पर भी सरकार ने उन सौ कारपोरेट घरानों की सूची को सार्वजनिक नहीं किया है, जिन पर बैंकों का सबसे अधिक बकाया है। बैंकों का 11 लाख करोड़ रुपए, जो इन कारपोरेट घरानों की वजह से डूबत खाते में है, जिसे बैंकों की भाषा में एनपीए, नान परफोरमिंग एस्सेट्स कहते हैं, को वसूलने के संबंध में वित्त मंत्री ने चुपी ही साध ली है। हां जिस एक फीसद आबादी ने 73 प्रतिशत आय पर कब्जा किया है, उनकी लूट को और बढ़ाने के लिए उन पर लगने वाले टैक्स को 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत कर दिया है। साफ है कि इसकी बरपाई के लिए गरीबों और आम जनता पर और अधिक बोझ डाला गया है।
वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में शिक्षा के विस्तार की बात करते हुए कहा है कि सरकार अगले एक साल में एक लाख करोड़ शिक्षा पर व्यय करेगी। पहली बात तो यह है कि सरकार का जब कार्यकाल ही एक साल का बचा है तो वह चार साल का ठेका कैसे ले सकती है। फिर चार साल में एक लाख करोड़ व्यय करने का अर्थ है कि एक साल में 25 हजार करोड़ रुपये खर्च किये जायेंगे। यह शिक्षा के बजट में कटौती है, जबकि इससे पूर्व यह राशि 45 हजार करोड़ थी। पहले जीडीपी का 0.49 प्रतिशत शिक्षा पर व्यय होता था जो अब घट कर 0.45 प्रतिशत ही रह गया है। वे शिक्षा पर बजट का कम कर शिक्षा का विस्तार करना चाहते हैं। देश भर में स्कूलों शिक्षकों की 6 लाख से अधिक पोस्ट खाली पड़ी हुई हैं। उनको भरने की कोई कोशिश ही सरकार नहीं कर रही है।
इसके उलट यदि केरल की वामपंथी जनवादी मोर्चे की सरकार को देखा जाये, तो पिछले साल अपने बजट में केरल सरकार ने दस हजार करोड़ रुपए सरकारी स्कूलों के आधुनिकीकरण के लिए रखे थे ताकि इन स्कूलों की गुणवत्ता को सुधारा जा सके और निजी शिक्षण संस्थाओं के बच्चों को सरकारी स्कूलों की ओर आकर्षिक किया जा सके। सरकार को इसमें सफलता भी मिली है। पिछले एक साल में 1 लाख 40 हजार छात्र निजी शिक्षण संस्थाओं से टीसी कटवाकर सरकारी स्कूलों में दाखिल हुए हैं। यह तब है जब मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार 1 लाख 10 हजार और राजस्थान की सरकार 22 हजार स्कूलों को बंद कर, गरीब बच्चों के शिक्षा के दरवाजे बंद कर रही है, या फिर उन्हें प्राईवेट स्कूलों में लुटने के लिए मजबूर कर रही है, तब केरल की सरकार ने निजी स्कूलों से सरकारी स्कूलों की ओर बच्चों को आकर्षित कर विकल्प पेश किया है। इस बार के बजट में 45 हजार कक्षाओं को हाईटैक करने का लक्ष्य केरल सरकार ने लिया है।
स्वास्थ्य को लेकर भी वित्त मंत्री ने जुमलेबाजी कर जनता के स्वास्थ्य के साथ ही खिलवाड़ किया है। वित्त मंत्री के झूठ की बानगी देखिए। उन्होने घोषणा की है कि दस करोड़ परिवारों के लिए पांच लाख तक का बीमा करवाया जायेगा। इसके लिए बजट में केवल 1600 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। यदि यह मान भी लिया जाये कि यह सारा पैसा ईमानदारी से व्यय किया जायेगा तो भी इस राशि से केवल 10 लाख परिवारों का बीमा हो सकता है, 10 करोड़ परिवारों का नहीं।
वैसे बीमा के जन्नत की हकीकत हम फसल बीमा योजना में देख चुके हैं। जो किसानों के लिए बल्कि बीमा कंपनियों के हित की योजना साबित हुई है। ऊंचे दावों के बीच सरकार ने स्वास्थ्य पर व्यय होने वाली राशि में कटौती की है। यह राशि पूर्व में जीडीपी का 0.32 प्रतिशत था, जो अब घट कर 0.29 प्रतिशत रह गया है। अरुण जेटली ने अपने बजट में नेशनल हैल्थ मिशन के बजट में 671.95 करोड़ रुपए की कटौती की है। महिला स्वास्थ्य की अनदेखी करते हुए जेंडर बजट भी 157.77 करोड़ कम किया गया है।
अब जरा केरल की वाम मोर्चा सरकार से इसकी तुलना की जाये, तो यह अचानक ही नहीं है कि स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में केरल देश में पहले स्थान पर है। केन्द्र सरकार ने देश की 125 करोड़ जनता के स्वास्थ्य के लिए 2 हजार करोड़ के बजट की व्यवस्था की है। इसका अर्थ है कि सरकार प्रत्येक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर सिर्फ 16 रुपए व्यय करेगी। जबकि केरल की वाम मोर्चा सरकार ने अपने तीन करोड़ नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए 1700 करोड़ की व्यवस्था की है। इसका अर्थ यह है कि केरल अपने प्रत्येक नागरिक पर 566 रुपए व्यय करेगी , जो केन्द्र सरकार की तुलना में 35 गुना अधिक है।
भाजपा शासित राज्यों में सार्वजनिक अस्पातलों की हालत जगजाहिर है जहां आक्सीजन की कमी के कारण की सैंकड़ों बच्चों की मौत हो जाती है। सरकारी अस्पातलों में दवाओं और डाक्टरों की कमी के चलते अस्पताल बूचडख़ाने बन गए हैं। जबकि केरल सरकार ने अस्पातलों की व्यवस्था को सुधाराने के लिए पिछले एक साल में 558 डाक्टरों, 1385 नर्सों और 876 पैरा मेडिकल स्टाफ के नए पद सर्जित किये हैं। इसलिए यह संयोग ही नहीं है कि केरल में औसत आयु देश में सबसे अधिक 76 वर्ष है।
सत्ता में आने से पहले नरेन्द्र मोदी ने हर वर्ष दो करोड़ रोजगार पैदा करने का वादा किया था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही नोटबंदी और जीएसटी के बाद असंगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर कम हुए हैं। बजट में दावा किया गया है कि सरकार ने 80 लाख रोजगार के अवसर पैदा किये हैं, मगर जमीन पर संगठित क्षेत्र में रोजगार में छटनी हुई है। असंगठित क्षेत्र में रोजगार में भारी कटौती हुई है। आईटी सेक्टर में भी रोजगार का ंसकट पैदा हुआ है।
ग्रामीण क्षेत्रों में पलायन को रोकने और कृषि संकट के प्रभाव को कम करने का केवल एक ही रामबाण है-मनरेगा। मनरेगा में सौ दिन का रोजगार देने के लिए एक लाख 60 हजार करोड़ रुपए की आवश्यकता है, किंतु सरकार ने 55 हजार करोड़ की व्यवस्था की है। इसमें भी 4800 करोड़ रुपए तो पिछले वर्ष का भुगतान ही बाकी है। जिससे साफ है कि मनरेगा में भी बजट में वृद्धि करने की बजाय वास्तविक रूप में इसमें कटौती ही होने वाली है। इसके उलट केरल में इस योजना को पूरी गंभीरता से अमल में लाया जा रहा है। वहां असंगठित क्षेत्र में मजदूरी भी देश भर में सबसे अधिक 600 रुपये प्रतिदिन है।
केन्द्र सरकार के पास एक ही दृष्टि है कि कैसे सार्वजनिक क्षेत्र को खतम किया जाये। इस बजट में भी सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र को बेच कर 80 हजार करोड़ रुपए की व्यवस्था करने का प्रावधान रखा है। जबकि केरल की वाममोर्चा सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों को पुनर्जीवित करने की कारगर योजना पर अमल शुरू किया है। पिछले एक साल में घाटे में चल रही सार्वजनिक क्षेत्र की 40 इकाईयों में से 12 अब मुनाफा कमा रही है। जबकि बाकी की 28 इकाईयों का घाटा कम हुआ है। वामपंथी जनवादी सरकार और भाजपा की संघी सरकार की दृष्टि में यही अंतर है, यहां भाजपा सरकार सार्वजनिक और सहकारी क्षेत्र को विकास में सबसे बड़ी बाधा मान रही है, वहीं वामपंथी जनवादी सरकार सहकारी और सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत कर बाजार पर कारपोरेट घरानों के नियंत्रण को चुनौती दे रही है।
संघ की मनुवादी सोच को लागू करने के लिए केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार के मंत्री केवल संविधान या आरक्षण के खिलाफ बयानबाजी ही नहीं करते हैं, बल्कि अपनी नीतियों के जरिये भी भाजपा दलितों, आदिवासियों और महिलाओं पर हमले करती है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने सब प्लान बजट को खतम कर दिया है। इसके तहत प्रत्येक विभाग में किसी क्षेत्र विशेेष व्यय की जानी राशि का उस क्षेत्र की दलित या आदिवासी अनुपात के अनुसार दलितों और आदिवासियों पर व्यय किया जाना अनिवार्य है। पूर्व में सब प्लान के आधार पर बजट में व्यवस्था तो जाती थी, मगर उसे या तो खर्च नहीं किया जाता था या किसी दूसरी मद में खर्च कर दिया जाता था। इससे सरकार को आलोचना का शिकार भी होना पड़ता था। नरेन्द्र मोदी सरकार ने बांसुरी ही नहीं बांस ही तोड़ डाला है। सब प्लान को खतम कर दिया गया है। अब किसी क्षेत्र विशेष में आदिवासी या दलित आबादी की जनसंख्या के अनुपात अनुसार बजट का हिस्सा दलितों या आदिवासियों पर व्यय किया जाना आवश्यक नहीं है। वैसे भी अगर देखा जाये तो केन्द्र सरकार के आम बजट में दलितों के कल्याण के लिए आरक्षित बजट उनकी जनसंख्या की तुलना में 2.32 प्रतिशत और आदिवासियों की जनसंख्या के अनुपात की तुलना में 1.6 प्रतिशत कम है।
महिलाओं के प्रति भी सरकार का यही रवैया है। जिस उज्जवला योजना का प्रधानमंत्री जगह जगह विज्ञापन कर रहे हैं और उसका विस्तार करने का बजट में दावा किया जा रहा है, हकीकत यह है कि बजट में उज्जवला योजना के लिए केवल 3 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। यही बेटी पढ़ाओ अभियान के साथ हुआ है। इस बजट में 64.1 करोड़ रुपए की कटौती की गई है। स्वच्छ भारत मिशन पिछले साल की तुलना में 1655.77 करोड़ रुपए की कटौती की गई है।
इसके विपरीत यदि केरल के बजट को देखा जाये तो केरल में दलित जनसंख्या कुल जनसंख्या का 9.1 प्रतिशत और आदिवासी जनसंख्या कुल जनसंख्या का 1.45 प्रतिशत है। मगर वामपंथी जनवादी मोर्चे की सरकार ने इन समुदायों के विकास के लिए आवंटित राशि में वृद्धि की है। केरल में दलित सब प्लान का बजट 2599 करोड़ से बढ़ाकर 2859 करोड़ कर दिया गया है और आदिवासी सब प्लान का बजट 751 करोड़ से बढ़ाकर 826 करोड़ किया गया है।
महिलाओं के विकास पर भी केरल सरकार ने पर्याप्त ध्यान दिया है और जेंडर बजट पिछले साल के 760 करोड़ से बढ़ाकर 912 करोड़ कर दिया गया है। अविवाहित महिलाओं के लिए भी सरकार ने 1000 से 2000 रुपए प्रतिमाह सहायता देने की योजना बनाई है।
सामाजिक सुरक्षा की इस बजट में जितनी चर्चा की गई है, सही मायने में उतनी ही अनदेखी की गई है। सामाजिक सुरक्षा बजट में कटौती की गई है। दूसरी ओर केरल की वामपथी जनवादी मोर्चे की सरकार ने सामाजिक सुरक्षा बजट को बढ़ाकर छह हजार करोड़ रुपए तक पहुंचा दिया है। उल्लेखनीय है कि दो साल पहले यूडीएफ की सरकार के समय सामाजिक सुरक्षा बजट 1680 करोड़ रुपए था।
केन्द्र सरकार ने स्कीम वर्कर्स आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, आशा, ऊषा के नियमितकीकरण की मांग को भी पूरा नहीं किया है। अधिकांश राज्यों में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता तीन से पांच हजार रुपए में काम कर रही हैं, जबकि केरल में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को दस हजार रुपए मानदेय मिल रहा है।
कुल मिलाकर दोनों सरकारों के बजटों में दोनों सरकारों के दृष्टिकोण स्पष्ट होते हैं। नरेन्द्र मोदी सरकार का बजट नोटबंदी और जीएसटी की मार के बाद आया है, जो जनता के संकट को और बढ़ा रहा है। दूसरी ओर केरल की वामपंथी जनवादी मोर्चा सरकार का बजट समुन्द्री तूफान ओखी के प्राकृतिक आपदा की पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, जो इस प्राकृतिक आपदा से प्रभावित नागरिकों को फिर से अपने पैरों पर खड़े होने में मदद करने के साथ साथ प्रदेश में आम जन के विकास पर केन्द्रित है। यह अंतर दो सरकारों का नहीं दो विचारों का भी है।
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