हालांकि यह सही तरीका नहीं है। मगर कहानी यहीं से शुरू हो रही है। बात तब की है जब हम कश्मीर में थे। 1990 आतंकवाद का सबसे खतरनाक दौर। श्रीनगर से दूरदर्शन की न्यूज प्रसारित होना बंद हो गईं थी। उस समय दूरदर्शन पर आने का मतलब सीधे आतंकवादियों के निशाने पर आना था। जो टीवी डिबेट आज अपने सबसे घटिया स्वरूप में आ गई हैं वे उस समय आतंकवादियों के लिए सीधे चुनौति के रूप में हुआ करती थी। उस दौरान दूरदर्शन पर हम खूब आते थे। करीब करीब आतंकवाद विरोधी हर कार्यक्रम में। तो उन दिनों दूरदर्शन में अच्छे लोग भी हुआ करते थे। रिटर्न थैंक्स के तौर पर या बंदा कहीं निपट जाए तो निशानी के तौर पर उन्होंने हम पर एक व्यक्ति चलचित्र (डाक्यूमेंटरी) बनवाने का फैसला किया। पढ़ते हुए, लिखते हुए! पत्नी बच्चों से हमारा इंट्रोगेशन! सब शूट करते हुए हमारे इंटरव्यू। उसमें एक सवाल पूछा कि आप किस संपादक से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं?
असली कहानी यहीं से शुरू होती है। हमने जब राम विद्रोही जी का नाम लिया तो साक्षात्कार लेने वालों ने कहा ये कहां के संपादक हैं। हमने बताया कि इन दिनों ग्वालियर में आचरण के संपादक हैं। और कहां रहे? हमने बताया राजस्थान पत्रिका में। क्यों प्रभावित हैं? जिसे आजकल की भाषा में ज्ञान देना या भाषण देना कहा जाता है वह हमने शुरू कर दिया। वे शूट करते करते गए। फिर बड़ी देर बाद हमारा क्रम तोड़ते हुए बोले अब हम एक और संपादक के बारे में आपसे पूछते हैं। हमने कहा ठीक है। लेकिन उनके प्रोड्यूसर ने कहा कि हमारी फिल्म तो आधा घंटे की थी यह तो एक घंटे की बन गई। मगर विद्रोही जी के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा। प्रोड्यूसर जो खुद भी पहले पत्रकार रह चुका था बोला इतने प्रेरणादायी संपादक हों तो आप जैसे पत्रकार निकलेंगे ही। यह हमारे लिए शायद सबसे बड़ा सर्टिफिकेट था। जो हमेशा हम अपने दिल में संभाल कर रखते हैं। तो ऐसे हैं हमारे विद्रोही जी। खुद के बारे में जो कुछ भी नहीं बताएंगे लेकिन उनके बारे में बताने को इतना है कि उसे समय और शब्दों की सीमा में बांधना बहुत मुश्किल है। हमने इसे एक लेख समझकर लिखना शुरू किया तो संपादक जी बादल सरोज का मैसेज दिखा जिसमें वे कड़े संपादक की तरह शब्द सीमा बांध रहे हैं। उन विद्रोही जी के बारे में लिखने के लिए जिन्होंने खुद कभी किसी भी तरह के लिखने के लिए कोई सीमा नहीं बांधी। मगर कामरेड बादल ने और उनकी टीम ने पहले लोकजतन सम्मान के लिए विद्रोही जी का जो शानदार चयन किया है और उस मौके पर निकाले जा रहे अखबार में हमें भी गुरु दक्षिणा देने का अवसर दिया उसके बाद फिलहाल तो उनसे शिकायत करने या लडऩे का कोई सवाल ही नहीं उठता। बस धन्यवाद, जिन्दाबाद, लोकजतन को करो और आबाद ही कहना बनता है। क्योंकि कामरेड बादल भी ग्वालियर के वर्तमान की उसी उम्मीद को जगाते हैं जिसकी पिछली पीढ़ी के प्रतिनिधि के तौर विद्रोही जी को सम्मानित किया जा रहा है।
यह वही पिछली पीढ़ी है जिसने मध्य प्रदेश और खासतौर से ग्वालियर के युवाओं में विचार की एक प्रतिबद्धता पैदा की और पढऩे लिखने को प्रेरित किया। इसे एक त्रयी कहा जा सकता है। जिसमें आदरणीय प्रकाश दीक्षित जी, स्वर्गीय मुकुट बिहारी सरोज और डा राम विद्रोही आते हैं। इस त्रिमूर्ती के कार्यों और व्यपाक प्रभाव पर अलग से किसी के काम करने की जरूरत है। लेकिन आज भी ग्वालियर के साहित्यिक माहौल और पत्रकारिता पर इन तीन प्रतिबद्ध शख्सियतों का असर बना हुआ है।
एक पत्रकार, संपादक, लेखक अपने लिखने के अलावा और क्या करता है हमारे ख्याल में जाने या अनजाने वह पत्रकारों की पीढ़ी दर पीढ़ी तराश करता है जो मुल्यों के प्रति अस्था रखती हैं। आचरण में विद्रोही जी के साथ करते हुए और उसके करीब 35 साल बाद भी उन्होंने कभी सर कहने की इजाजत नहीं दी। सिर्फ भाईसाहब। इसके अलावा आदरणीय श्रेद्धय कुछ नहीं। हमेशा काम करने की पूरी आजादी और नए प्रयोगों के लिए प्रेरणा। खासतौर पर कमजोर की गरीब की दर्द की कहानी उसका फालोअप और उसे न्याय मिलने तक आवाज को उठाते रहने देने को समर्थन। आज के पत्रकारों को जिस घुटन भरे माहौल में काम करना पड़ता है या उस समय भी कई अखबारों में बंधन और नियंत्रण होते थे, विद्रोही जी के रहते हुए आचरण में इसकी कोई आशंका नहीं थी। अखबार छोड़ कर ( मतलब छापकर) भी पार्टी होती थी और कभी अखबार निकलाते हुए भी हो जाती थी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि काम में कुछ कमी रह जाए। क्वालिटी और परफेक्शन में विद्रोही जी ने कभी समझौता नहीं किया।
लेकिन प्रकाश जी, सरोज जी की तरह ही विद्रोही जी की प्रतिभा की रोशनी भी हिन्दी जगत में उस तरह नहीं फैल पाई जैसी उनकी योग्यता के अनुरुप फैलना चाहिए थी। प्रकाश जी की तरह ही विद्रोही जी भी ग्वालियर से बाहर नहीं गए।
कई मौके मिले मगर- उधो मोसे ग्वालियर छूटत नाहीं। केवल कुछ समय के लिए राजस्थान में पत्रिका के संपादक के तौर पर रहे।
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