पत्रकार और लेखक डॉ राम विद्रोही पर लिखना आसान काम नहीं है। लगभग आधी सदी से श्री राम विद्रोही को जानता हूँ। उन दिनों वे डाक्टर नहीं थे। डाक्टर नहीं थे लेकिन समाज के सरोकारों पर उनकी नब्ज उस समय भी एक सधे हुए डाक्टर की तरह रहती थी। बात 1974 -75 के आसपास की है, तब दैनिक आचरण में डॉ राम विद्रोही का एक स्तम्भ ‘एक तारा बोले’आता था। विद्रोही जी का ये स्तम्भ व्यंग्य,आलोचना, हास्य और सरोकारों का गुलदस्ता था।
विचारों और निजी आचरण से समाजवादी विद्रोही समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया के कायल थे। संभाग के सभी समाजवादी नेताओं से उनके जीवंत संबंध थे और उनकी रिपोर्टिंग पर उसकी छाप साफ दिखती थी। मैं विद्रोही जी से मिलता इससे पहले ही परिस्थितवश वे ग्वालियर छोडक़र राजस्थान चले गए। अनेक स्थानीय अखबारों से होते हुए वे राजस्थान पत्रिका के होकर रह गए। एक दशक बाद दैनिक आचरण के प्रधान सम्पादक श्री ऐ एच कुरैशी, डॉ विद्रोही को फिर आचरण में वापस लाने में कामयाब हुए। उन दिनों मै दैनिक आचरण में पीर,बावर्ची और खर की भूमिकाएं एक साथ निभाता था।
विद्रोही जी ने आते ही दैनिक आचरणं का कायाकल्प आरम्भ कर दिया। वे नए लेखकों को जोडऩे के साथ ही अखबार की साज-सज्जा के प्रति बेहद सतर्क थे, नयी तकनीक सीखकर आये थे, हमारे लिए वे द्रोणाचार्य बन गए। लिखना-पढऩा सिखाया सो सिखाया खान-पान में भी समाजवादी बना दिया। उनके साथ काम करते हुए कभी घुटन अनुभव नहीं हुई। एक तो विद्रोही जी लेखन में पूर्ण स्वातंत्र्य के हामी ऊपर से खुद चलती-फिरती किताब थे,जहाँ गाड़ी अटकती विद्रोही जी धक्का लगा देते। एक पत्रकार के रूप में वे महात्वाकांक्षी बिलकुल नहीं रहे, न यश की चाह न धन की लिप्सा, शायद इसीलिए न वे कभी बाइक और न कोई उनकी कीमत लगाने का दु:साहस कर सका।
ग्वालियर में पत्रकारिता में स्वाध्याय और अख्खड़पन का प्रकाश स्तम्भ डॉ विद्रोही ही हैं। आज 75 साल की उम्र में भी न उनकी ऊर्जा का क्षरण हुआ है और न स्वभाव में कोई तब्दीली आई है। वे पत्रकारिता से कब का सन्यास ले चुके होते लेकिन आचरण ने ऐसा होने नहीं दिया। वे आज भी नियमित अखबार के दफ्तर आते हैं, लिखते हैं और चले जाते हैं, लेकिन उनके जूनून की कोई सीमा नहीं। पीएचडी करना थी सो कर दिखाई जबकि उनके साथ रहकर भी मै अपनी एलएलबी आज तक पूरी नहीं कर पाया । इतिहास उनका प्रिय विषय है और इस विषय में सतत शोधकर लिखने में उनका कोई सानी नहीं। खुद लिखा, खुद छापा और खुद बेचा भी, किसी प्रकाशक के आगे-पीछे नहीं घूमे। आज के युग में ये सब अकल्पनीय है।
बहुत कम लोग जानते होंगे कि विद्रोही केवल पत्रकार ही नहीं बल्कि एक सक्रिय ‘एक्टिविष्ट’ भी रहे हैं। बस वे जेल नहीं गए लेकिन छात्र जीवन से लेकर अभी तक लगातार सक्रिय रहे। ग्वालियर को चंबल का पानी पिलाने की बात चली तो मीलों लम्बी पदयात्रा में शामिल हो गए। अंचल के लोकजीवन को समझने-समझाने के लिए उन्होंने एक जमाने में ‘लोकयात्रा’ का आयोजन किया। इसमें पत्रकार, साहित्यकार, वकील कलाकार सभी शामिल होते थे। वे प्रेरणापुंज हैं, कभी किसी को हतोत्साहित नहीं किया, सबको ‘पुश’ किया। इसीलिए वे आज पत्रकारों की चार पीढिय़ों में सर्वाधिक सम्मानित पत्रकार है।
असहमति का सम्मान और सहमति के साथ संकोच डॉ विद्रोही की विशेषता है। विद्रोही जी को ग्वालियर में जानने वाले लोगों की कमी नहीं है लेकिन मेरा भरम है कि मंै उन्हें एक पत्रकार के रूप में,एक लेखक के रूप में और एक मित्र के रूप में दूसरों से कहीं ज्यादा जानता हूँ । अपने निजी और सार्वजनिक जीवन में उन्होंने कोई पर्दादारी नहीं रखी, जो है, सो है और जो नहीं है सो नहीं है। वे दोस्तों के दोस्त तो हैं लेकिन दुश्मनों के दुश्मन बिलकुल नहीं। बेहतर वक्ता हैं सो अलग। उन्हें प्रथम लोकजतन सम्मान के लिए चयनित कर लोकजतन ने एक सही निर्णय लिया है में डॉ विद्रोही को बधाई देते हुए लोकजतन की इस पहल के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
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