चाहे वह 89 में चंबल नदी का पानी ग्वालियर लाने के लिए निकाली गई चंबल जल यात्रा हो या फिर भिण्ड जिले के मौ कस्बे में 90 में सांप्रदायिक हिंसा भडक़ने के बाद वहां अमन चैन व सौहार्द का पैगाम देने निकाली सदभाव यात्रा हो अथवा कुतवार, पड़ावली, मितावली जैसे उपेक्षित ऐतिहासिक स्थलों को राष्ट्रीय पटल पर प्रतिष्ठा दिलाने के मकसद से हर महीने लोकयात्रा करने का अभियान हो। ऐसे हरेक लोकजतन की आधार भूमिका तैयार करने से लेकर अगुवाई तक की जिम्मेदारी राम विद्रोही ही निभाते थे। जनांदोलन में संघर्ष करते हुए स्व. गणेश मरैया जैसे युवा क्रांतिकारी जब सबलगढ़ जेल में बंद कर दिए जाते थे तो उनकी हौंसला अफजाई के लिए विद्रोही जी अपने साधन से वहां तक पहुंच जाते थे।
यह उस दौर के वाकये हैं जब मैं उनके सानिध्य में आचरण में ही काम कर रहा था। जनसरोकार और जनपक्ष की पत्रकारिता के गुर सिखाने वाला उनसे बेहतर शिक्षक दूसरा नहीं हो सकता। मुझे ताज्जुब होता था कि सुबह 11 से रात के 11 तक अखबारी कर्म में व्यस्त रहने वाला व्यक्ति अपनी इतर सामाजिक प्रतिबद्धताओं के निर्वाह के लिए कैसे वक़्त निकाल लेता है। जब अभी कुछ महीने पहले नरेंद्र सिंह तोमर ने चंबल का पानी ग्वालियर तक लाने के लिए प्रोजेक्ट बनाकर केंद्र को भेजने का एलान किया तो तीस साल पहले विद्रोही जी द्वारा निकाली गई चंबल जलयात्रा की याद बरबश ही जहन में ताजा हो गई। मैंने उन्हें फोन कर बधाई देते हुए कहा कि आपका सपना पूरा हो रहा है। उनका जवाब था कि यह वह प्रोजेक्ट नहीं है, जैसा हम चाहते थे। चंबल का पानी तिघरा में नहीं बल्कि मोतीझील में डालिए, 20 किमी दूरी कम हो जाएगी। उन्होंने इस योजना के सर्वे पर ही ढाई-तीनसौ करोड़ खर्च करने पर नाराजगी जताते हुए कहा कि इतने करोड़ में तो चंबल से मोतीझील तक पानी ही आ जाएगा। काश सत्ताधीश उनकी दूरगामी सोच व तजुर्बे का लाभ उठाते।
पत्रकारिता के साठ साल के सफर में अपने सिद्धांतों की रक्षा और जनपक्ष की प्रतिबद्धता पर टिके रहने के लिए उन्होंने खूब सजाएं भुगतीं हैं, कुर्बानियां दी हैं। अखबार में सच उजागर करने एवं जनअभियानों के नेतृत्व का अंजाम उन्हें कई बार जेल तक ले गया लेकिन वे झुके नहीं, डिगे नहीं और टूटे नहीं बल्कि सत्ताप्रायोजित ऐसी हर यंत्रणा के बाद वे और अधिक मजबूत बनकर उभरे। सन 67 में जब ग्वालियर से भास्कर का प्रकाशन शुरू हुआ तो विद्रोही जी को इसकी संस्थापक एडीटोरियल टीम में शामिल किया गया लेकिन जब जून 75 में देश में इमरजेंसी लगी तो विद्रोही जी को एक ही झटके में अखबार से बाहर कर दिया गया, वजह यह कि इमरजेंसी की खुली मुखालफत करने वाले पत्रकारों में विद्रोही भी शामिल थे। उस समय देश के सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल मप्र के ही थे, वे एक-एक पत्रकार से वाकिफ थे। कहते हैं कि उन्होंने ही नौकरी से दफा किए जाने वाले पत्रकारों की फेहरिस्त बनाई थी, विद्रोहीजी द्वारा सत्ता प्रतिष्ठानों के खिलाफ चलाई जाने वाली कलम और उनके समाजवादी तेवरों से ग्वालियर के लगभग सभी अखबार मालिक वाकिफ हो चुके थे और इमरजेंसी के पूरे 22 महीने उन्होंने बेरोजगारी झेली, हालांकि जेल में बंद जम्हूरियत के पैरोकारों की रिहाई के संघर्ष को धार देते रहे।
इमरजेंसी हटी तो उनके सामने दो विकल्प थे। चुनावी राजनीति में प्रवेश या फिर नए सिरे से अखबारनवीशी। टिकट के ऑफर उन्होंने नजरन्दाज कर दिए। वे पत्रकारिता के लिए ही बने थे और अपने इसी प्रिय कर्म में लौट आए। पहले उदयपुर के इकलौते दैनिक जय राजस्थान और फिर पांच वर्ष तक पत्रिका समूह में। 84 में आचरण के संपादक बनकर ग्वालियर लौटे। तब से अब तक यहीं। यह उनकी कलम की महारथ, टीम वर्क तथा संपादकीय कला-कौशल का ही दम था कि नवें दशक के आखिर तक उन्होंने इस अखबार को ग्वालियर में नम्बर वन की दहलीज पर खड़ा कर दिया। और फिर वह दिन भी आया, इमरजेंसी में जिस अखबार से रुखसत किए गए थे, वही अखबार उन्हें अपने यहां संपादक बनाकर लाया। पहले पेज पर फूलमालाओं से लदा उनका फोटो इस हैडिंग के साथ छपा 'राम विद्रोही अब हमारे संपादक बने'। लेकिन एक दिन वहां संपादक रहने के बाद दूसरे रोज ही वे पुराने अखबार में लौट आए। दोनों ओर के अखबार संचालकों के आग्रहपूर्ण दवाब के बीच विद्रोहीजी ने उस अखबार को चुना जहां उन्होंने काम की ज्यादा आजादी महसूस की।
मैं डॉ. राम विद्रोही को डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी के बाद ग्वालियर का सबसे बड़ा इतिहासकार मानता हूँ। यूं तो विद्रोही जी ने सात-आठ किताबें लिखी हैं लेकिन मैंने दो ही किताबें पढ़ी हैं, नागरगाथा और नई सुबह। नागरगाथा में उन्होंने ग्वालियर के 2000 साल के इतिहास को बड़े सलीके से उकेरा है तो नई सुबह पुस्तक में ग्वालियर वालों का इतिहास है। इसी किताब से भगतसिंह और आजाद के ग्वालियर से जुड़ाव के बारे में पता चला, यह भी पहली बार मालूम हुआ कि सांडर्स वध की योजना ग्वालियर में बनी। जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द के साहित्य पर उनके शोधग्रंथ में भारतीय चिंतन की परंपरा के नवआयामों का विश्लेषण है।
उम्र के इस पड़ाव पर जब पत्रकार शासन से श्रद्धानिधि ग्रहण कर खुद को वानप्रस्थी मानकर घर बैठ जाते हैं। आदरणीय विद्रोही जी की कलम अभी भी बिना रुके, बिना थके अविरल चल रही है। लोकहित के प्रति उनका चिंतन व लेखन जारी है। उन्हें कोटिश: शुभकामनाएं।
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