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पुनरावलोकन : हिंसक समय में गांधी 

गांधी को समझना है तो उन्हें भी उस समय की परिस्थितियों के साथ जोडक़र देखना होगा। गांधी की एक मुश्किल यह है कि उन्हें समग्रता में ही समझा जा सकता है। टुकड़ों में देखने का एक झंझट उसके एकांगी हो जाने का है। ऐसा करने से हरेक अपनी पसंद या नापसंद के गांधी तो ढूंढ सकता है - मगर गांधी को नहीं समझ सकता। 

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती के अवसर पर गत माह भोपाल के गांधी भवन में एक व्याख्यान आयाजित किया गया। जिसका विषय ‘पुनरावलोकन-हिंसक समय में गांधी’ इस व्याख्यान में बोलते हुए अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय सह सचिव बादल सरोज ने कहा कि गांधी जी को समाग्रता  में ही समझा जा सकता है।  हमें उम्मीद है यह व्याख्यान वर्तमान समय पर गांधी जी को समझने में सहायक होगा। 
एक 
गांधी की एक मुश्किल यह है कि उन्हें समग्रता में ही समझा जा सकता है। टुकड़ों में देखने का एक झंझट उसके एकांगी हो जाने का है। ऐसा करने से हरेक अपनी पसंद या नापसंद के गांधी तो ढूंढ सकता है - मगर गांधी को नहीं समझ सकता। किसी भी व्यक्ति या विचार का मूल्यांकन करने का सही तरीका उसे उसके देश-काल में बांधकर समझना है; गांधी को समझना है तो उन्हें भी उस समय की परिस्थितियों के साथ जोडक़र देखना होगा।
दो 
सामाजिक विकास की प्रत्येक अवस्था एक युगांतरकारी उथलपुथल का नतीजा होती है। ऐसी हर उथलपुथल और संक्रमणकारी प्रक्रिया / इतिहास के चरणों को बदलने के संघर्ष अपने अपने नायकों को जन्म देते हैं और प्रकारांतर में वे नायक उस युग के प्रतिनिधि-आइकॉन-बन जाते हैं। भारतीय ऐतिहासिक अवस्था के ऐसे दो निर्णायक प्रस्थान/परिवर्तन बिंदु हैं।  एक वह समय है जब खेती परिपक्व और समृद्द हुयी।  राज करने की नयी, पहले से विकसित,  प्रणाली आयी।  मौर्य साम्राज्य सहित कोई दर्जन भर नए राज्य - बड़े और प्रभुता संपन्न राज्य - अस्तित्व में आये।  आधार (बेस) बदला तो अधोसंरचना (सुपर स्ट्रक्चर) में भी परिवर्तन आये। राजनीतिक आर्थिक परिवर्तनों ने नए सामाजिक संगठनों को आकार दिया।  अलग अलग तरह की धार्मिक और दार्शनिक धाराओं का जन्म हुआ और उनका विकास हुआ। पिछली सहस्राब्दी के मध्य तक हुए इन परिवर्तनों  के प्रतीक व्यक्तित्व -आइकॉन- शाक्य मुनि गौतम बुद्ध है।  
तीन 
बदलाव इसके बाद भी हुए ; कुछ आतंरिक तो कुछ बाहरी कारणों से हुए।  मगर यह एक तरह से एक गति बनकर ही सीमित रहे ।  इनकी  मात्रात्मक तो थी, सभ्यता बदलने लायक गुणात्मकता नहीं थी ।  सभ्यतायें - सिविलाइजेशन्स -  एक ऐसा बड़ा मानव समाज होती हैं जिसकी सामान आर्थिक, वैचारिक भावनायें हों, जिसका अपना आंतरिक जीवन हो। जिसका बाकी मानव समाज के साथ रचनात्मक तादात्म्य और संवाद हो।  मोटे तौर पर इसके तीन फीचर्स होते हैं ; 
1- सामाजिक उत्पादन का और उसमे पैदा की गयी भौतिक संपत्ति के वितरण का तरीका क्या है ।  
2- वह अपने को राजनीतिक सामाजिक रूप से किस तरह संगठित करती है और 3 - इस जीवन और इसके बाद के जीवन के बारे में उसके धार्मिक और दार्शनिक विमर्श का रूप क्या है।  
यह कहा जा सकता है कि करीब डेढ़ सहस्राब्दी तक कमोबेश स्थिरता रही, नवोन्मेष नहीं हुए।  विकास का अगला चरण नहीं आया।  इसके अनेक कारण हैं जिन पर चर्चा करना विषयान्तर होगा।  इस स्थिरता को तोडऩे के लिए समाज के अगले चरण में - आधुनिकता, बूज्र्वा मॉडर्निटी के चरण में - जाने की आवश्यकता थी। यह युगांतरकारी, नया युग लाने वाला बदलाव 19 वी और 20 वी सदी में ही आकर हुआ। इसके अनेक नायक हैं किन्तु  मोटे तौर पर गांधी इसके प्रतिनिधि हैं। जनता की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति और उसके प्रतीक । राजनीतिक परिभाषा में बदलाव के इस चरण को बूज्र्वा मॉडर्निटी - पूंजीवादी आधुनिकता - की स्थापना का चरण कहा जा सकता है।  गांधी इसके आइकॉन  थे।   
चार 
भारतीय समाज के सामंतवाद से अगली अवस्था - पूंजीवाद - में संक्रमण के व्यवधान आतंरिक और बाहरी दोनों थे; जड़ता और ध्वंस - ये दोनों अनजाने में ही एक दूसरे के पूरक बने। 
कई हजार साल के भारतीय सभ्यता के इतिहास में संक्रमण और समावेश तथा एक दूसरे से सीखते सीखते ब्लेंडिंग की अद्भुत मिसालें है। शक, हूण, कुषाण, गुर्जर, यवन, तुर्क, मंगोल, आर्य, मुग़ल  सहित  दुनिया भर के लोग अलग अलग समय में यहां  आये।  दुनिया के सारे धर्म आये भी और कुछ  देशज धर्म बाहर भी गए। ये जितने भी नस्ल समूह आये वे सभी यहीं बस कर रह गये-लौटकर नहीं गए।   इन सबने मिलकर  भारत की सभ्यता की सिर्फ ब्लेंडिंग ही नहीं की बल्कि उत्पादन शक्ति बढ़ाई और तकनीक में भी परिवर्तन लाये।  मुगलों के आखिऱी दौर में विश्व जीडीपी में भारत का हिस्सा , व्यापार का विकास काफी उच्च स्तर  तक पहुँच चुका था। उत्पादकता को विकास की उस अवस्था तक पहुंचाया जा चुका था जब उसे अगले चरण  में ले जाया जा सकता था। अंग्रेजों का आगमन (सिर्फ अंग्रेज ही हैं जो आये, लूटा और चले गए) वह प्रमुख कारण था जिसने सारी संभावनाएं  मटियामेट कर  दीं।   
पांच 
अंग्रेजो ने भारत की उत्पादन शक्ति का ध्वंस जिस परिमाण में किया है हाल के इतिहास में ऐसी मिसालें कम ही मिलती हैं।  पूर्व में माक्र्स, दादा भाई नौरोजी, रजनी पाम दत्त और उनके बाद डॉ  रामविलास शर्मा सहित अनेक ने इस बारे में विशद अध्ययन किया है।  नौरोजी के मुताबिक़ गजऩी का महमूद  18 बार में जितनी सम्पत्ति लूटकर नहीं ले जा सका उससे अधिक संपत्ति अंग्रेज हर साल लूटते रहे। कंपनी और अंग्रेजी सरकार के रिकाड्र्स की पड़ताल करके माक्र्स कहते हैं कि अंग्रेजों की सालाना लूट 6 करोड़ खेतमजदूरों की सालाना कमाई से भी अधिक होती थी।  अंग्रेजों ने अपने उद्योगों का माल खपाने के लिए भारतीय उत्पादन प्रणाली की रीढ़ ही तोडक़र रख दी।  मेंचेस्टर की मिलों के कपडे के भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार को बनाने के लिए ढाका का कपड़ा उद्योग तबाह किया गया।  वहां की आबादी जो 1880 में 2 लाख थी, 1890  में करीब एक तिहाई 79 हजार रह गयी।  देश की कुल शहरी आबादी 18 वीं सदी में करीब 50 प्रतिशत थी जो 19 वीं सदी के अंत तक मात्र 15 प्रतिशत रह गयी।  अंग्रेजों ने हस्तशिल्पियों के माल की बिक्री के लिए  अलाभकारी कीमतें तय करके उन्हें भी बर्बाद कर दिया।  खेती को भी तबाह किया  गया जिसके नतीजे में दो दो महा अकाल देखने पड़े। इन अकालों के बीच ही एक अरब पौंड से ज्यादा रकम ब्रिटिश बैंकों में जमा हुयी। उपनिवेशवाद के दौर में ध्वंस की भयानकता को उजागर करने के लिए यही तथ्य काफी हैं, फिलहाल और विस्तार की आवश्यकता नहीं। 
दूसरा कारण आतंरिक था जिसका आधार जाति की संरचना और उसे धर्मान्धता से जोड़ दिया जाना था।  इसने भारत के बौध्दिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास में जड़ता ला दी। अनुसन्धान तथा उत्पादक शक्तियों  के विकास के पांवों में बेडिय़ाँ डाल कर रख दीं।  
छह   
ये वे परिस्थितियां थीं जिनमे 19 और  20वी सदी में  आधुनिकता को लाने के संघर्ष हुए ; गांधी उसके प्रतीक व्यक्तित्व हैं।  एक बार फिर दोहराने में हर्ज नहीं कि उनके कामकाज की समीक्षा इन हालात की सीमा में रखकर ही की जा सकती है।  यहां एक और पहलू ध्यान में रखना आवश्यक है और वह यह कि रासायनिक क्रिया की तरह ही सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया भी अनेक ऐसे आयामों को खोल देती है जो जरूरी नहीं कि आपके चाहने के मुताबिक ही हो  -  सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया के गति आयाम वह सब भी करा देते हैं जो इच्छा के बाहर किन्तु जरूरी होता है।  इस दौरान ऐसा भी बहुत कुछ हो जाता है जिसे बहुत संभव है कि आप न चाहते हों।  गांधी भी इसी तरह सामाजिक उथलपुथल के उदाहरण हैं। वे बहुत कुछ सायास कर रहे हैं तो काफी कुछ अनायास भी कर रहे हैं।  जैसे गांधी की असली भारत की कल्पना ‘हिन्द स्वराज’ (1909) की किताब में हैं।  इसमें उनके राजनीतिक लक्ष्य स्पष्ट नहीं हैं, जो हैं वे काफी दुरूह और जटिल हैं।  वे इस परिकल्पना से कभी असंबध्द नहीं हुए, मगर उसे पकड़ कर नहीं बैठे रहे; समयानुकूल निर्णय लेते रहे।  यही गांधी को व्यावहारिक बनाता है। 
सात 
इन परिस्थितियों में गांधी को (अ) आजादी हासिल करनी थी (ब) उसके लिए भारत को जोडऩा था।  सैकड़ों स्वतंत्र-अर्ध स्वततन्त्र- स्वायत्त रियासतों वाले देश में साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद से अलग किस्म के राष्ट्रवाद की,  समावेशी राष्ट्रवाद  (इन्क्लूसिव नॅशनलिज़्म) की चेतना विकसित करनी थी। (स) आधुनिकता लानी थी और सबसे बढक़र यह सुनिश्चित करना था कि यह उथलपुथल सिर्फ संक्रमण तक ही सीमित रहे, क्रान्ति में नहीं बदल जाए ।  गाँधी की इस चिंता के पीछे सोवियत रूस में हुयी क्रांति और उसका विश्वव्यापी असर था।  उनकी सारी कार्यनीतियां, अभियान की अनूठी पद्वत्तियाँ और  नूतन विधाएँ, जो यकीनन नई और मौलिक थीं, इन्ही लक्ष्यों को ध्यान में रखकर बनी। गांधी को समग्रता में समझना है तो इन सब आयामों और वस्तुगत  परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही समझा जा सकता है।  
गांधी को इन छह रूपों में समझना आसान होगा 
1 - प्रैग्मैटिक गांधी  गांधी बेहद व्यावहारिक थे।  हिन्द स्वराज  उनकी पक्की धारणा और विजऩ दस्तावेज था मगर इसी के साथ वे उससे ठीक उलट कराची प्रस्ताव  (1931) के भी साथ थे।  गांधी इंग्लैंड के औद्योगिक विकास के सामाजिक परिणामो, मेहनतकशों के सामाजिक, आर्थिक, नैतिक अलगाव को देखकर आये थे इसलिए वे श्रम सघन उद्योगों की बात करते हैं जिनमे आर्टीजन, हस्तशिल्प को प्रोत्साहन मिले।  वे भारतीय समाज की असाधारण विविधता की बात करते हैं।  समुदायों, सम्प्रदायों के बीच आपस में गतिशीलता, संवाद और तादात्म्य की बातें करते हैं, इस तरह  जड़ता तोड़ते हैं। बुध्द की तरह गाँधी की भी सीमा हैं।  वे भी पीड़ा और वेदना को उजागर करते हैं किन्तु उनका तर्कसंगत कारण या हल, निदान और समाधान प्रस्तुत नहीं करते। इस मामले में वे अस्पष्ट बने रहना ही चुनते हैं।  यह गांधी की कमजोरी भी है और उनकी ताकत भी।  उनकी यह स्थिति उनकी स्वीकार्यता को नयी ऊंचाई देती है।  यह उनके दक्षिण अफ्रीकी अनुभव (जहां उन्होंने भारतीयों के साथ भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी किन्तु काले अफ्रीकियों के साथ हो रहे रंगभेद पर चुप्पी साधे  रखी)  का विस्तार था।  लड़ाई वहीँ तक लड़ी जाए जहां तक उसे बनाये रखते हुए आगे बढ़ाया जा सके।  गांधी जनता की चेतना से बहुत ज्यादा आगे नहीं चलते थे।  प्रैग्मेटिक गांधी का सूत्र वाक्य था ; दबे को जगाओ, दबाने वाले को मनाओ !!
2- सत्याग्रही गांधी - निस्संदेह सत्याग्रह एक अनूठा प्रयोग था।  मगर वह अनायास नहीं था।  प्रैग्मैटिक गांधी के लक्ष्यों और सूत्रवाक्य की संगति  में था। सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के इंजन माने जाने वाले सामाजिक उत्पादन के संगठन - वर्गीय संगठन - उस समय शैशव में थे।  अखिल भारतीय स्तर पर ट्रेड यूनियन 1920 में बनी, किसान सभा 1936 में।  ऐसे में अपने आंदोलन से समाज के बड़े हिस्सों को जोडऩा था जिसके लिए पढ़े लिखे व्यक्तियों पर निर्भरता मजबूरी थी। इसी के साथ परस्पर कटे यहाँ तक कि द्वेषभावी रिश्तों वाले समुदायों में निकटता और संपर्क कायम करनी था।  सत्याग्रह यह सब जरूरतें पूरी करता था।  सत्याग्रह एक तरह की जुझारू अहिंसा - मिलिटेंट नॉन-वायलेंस - थी। 
3- लगातार विकसित और इवॉल्व होते गांधी - कट्टर धार्मिक, सनातनी और वर्णाश्रमी गांधी का उल्लेखनीय योगदान यह है कि उन्होंने महिलाओं, दलित मुक्ति, छुआछूत को उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का हिस्सा बनाया। यह सब तब किया जब तिलक, मालवीय सहित ब्राह्मणवाद की हिमायती और हिन्दूसभाई सोच की नामवर हस्तियां कांग्रेस का स्थापित नेतृत्व थीं। किन्तु स्वयं गांधी शुरू से ऐसे नहीं थे - वे इवॉल्व होते होते यहां तक पहुंचे थे।  वर्णाश्रम को वे भारतीय समाज का आधार मानते थे।  काठियावाड़ में 1924 में हुए राजपूतों के सम्मेलन में वे भारत की अवनति की वजह ‘वर्णो द्वारा अपने लिए निर्धारित काम न करना’ बताते हैं।  वे ठोंक कर अंतर्जातीय विवाहों का विरोध करते हैं। जाति के अस्तित्व और जाति के भीतर ही वैवाहिक संबंधों की वकालत करते है। शूद्रों को अधिकार दिए जाने की मांग को लगभग धिक्कारते हुए इसी दौर में वे कहते हैं कि ‘जो इस तरह की मांग उठाते हैं वे भारत के विकास के बारे में कुछ भी नहीं जानते समझते।’ वे ही गांधी विकसित होते हुए खुद अपने आश्रम में दलित युवक और ब्राह्मण लडक़ी की शादी कराते हैं।  पूना पैक्ट को लेकर कितनी भी बातें - ज्यादातर सही बातें - क्यों न की जाएँ, वे यही गांधी थे जो यरवदा जेल के अपने अनशन से एक तरफ अलग निर्वाचक मंडल का विरोध करते हैं वहीँ दूसरी तरफ छुआछूत के खिलाफ देश भर में एक लहर सी उठा देते हैं।  गांधी की यह लोचनीयता - फ्लैक्सिबिलिटी - संक्रमण को क्रान्ति तक न पहुँचने देने के मूल लक्ष्य के आसपास है। 
4- डेमोक्रेट गाँधी- गांधी का कमाल यह था कि वे एक साथ सब को साध लिया करते थे।  कांग्रेस सभी राजनीतिक धाराओं, विचारों, आग्रहों का साझा मंच बनी रही।  गाँधी इस व्यापकता के महत्त्व को जानते थे, अपने सारे आग्रहों के बावजूद उन्होंने इसे बनाये रखने में हरचन्द भूमिका निबाही। उस वक़्त के वैचारिक आकर्षण को ध्यान में रखते हुए वे कहते हैं; ‘मैं समाजवादी हूँ, मैं बोल्शेविक भी हूँ, मगर एम एन रॉय जैसा बोल्शेविक नहीं हूँ।’  अगली ही साल 1925 में अपने अखबार यंग इंडिया में एम एन रॉय पर एक लेख छाप देते हैं। सांस्कृतिक आवागमन को प्रोत्साहित करते हैं।  नागरिक अधिकारों की जमकर हिमायत करते हैं।  1942 के भारत छोडो प्रस्ताव पर अलग राय रखने वालों को भी वे धिक्कारते नहीं है।  उनके साहस को सराहते हैं। अम्बेडकर से लड़ते भी हैं उनकी सराहना भी करते हैं। गांधी-टैगोर, गांधी-नेहरू, गांधी-आंबेडकर डिबेट्स असहमतियों के साथ निबाह के इसी लोकतांत्रिक विमर्श के उदाहरण हैं।   
5- मास्टर टेक्टीशियन गाँधी- कार्यनीतियां बनाने और - जब तक वे अनुकूल हैं तब तक -उन पर अमल  करने के मामले में गांधी बड़े उर्वर और सजग - वर्ग सगज - थे।  खिलाफत आंदोलन उनकी एक बड़ी मास्टर टैक्टिक्स थी।  पूना पैक्ट के समय  चुनी गयी मांग से लेकर असहयोग आंदोलन को बीच में ही वापस लेने/स्थगित  करने की उनकी कार्यनीति उनकी वर्गसजगता का उदाहरण और संक्रमण को क्रान्ति तक न पहुँचने देने की ग्रांड स्ट्रेटेजी का निर्वाह है असहयोग आंदोलन की वापसी के पीछे सिर्फ चौरीचौरा नहीं है, मोपला का किसान विद्रोह और उत्तरप्रदेश के कई हिस्सों में जमींदारों के खिलाफ बगावत है।  गांधी जमींदारों के खिलाफ खड़े हुए नहीं दिखना चाहते थे। प्रथम विश्वयुद्द में अहिंसक गांधी अंग्रेजों की सेना में भर्ती की मुहिम चलाते  हैं, एम्बुलेंस कोर चलाते हैं वही 1942 में नेहरू सहित अनेक की असहमतियों के बावजूद भारत छोडो आंदोलन छेड़ देते हैं। वर्ग सजग गांधी विद्यार्थियों से स्कूल कालेज छोडऩे को तो कहते हैं मगर मजदूरों से हड़ताल करने या किसानों से लगान न चुकाने का आव्हान नहीं करते।  स्वदेशी आंदोलन का निहितार्थ भी उस समय के उदीयमान पूंजीपति और देसी उद्योगों के समर्थन का था।  अहमदाबाद की कपड़ा मजदूरों की हड़ताल में उन्हें जब स्थिति हाथ से निकलती दिखती हैं तो भूख हड़ताल पर बैठ जाते हैं। गांधी के दो ही कार्यनीतिक आंकलन गलत साबित हुए।  एक तो खिलाफत आंदोलन से जुड़ा था, जिसके लिए गांधी नहीं खुद खिलाफत वाले कमाल पाशा जिम्मेदार थे।  दूसरा भारत छोडो का यह मानकर शुरू करना कि (गाँधी ऐसा मानते थे) जर्मनी और जापान को जीतना ही है। 
6- कट्टर हिन्दू पक्के सेक्यूलर गाँधी - धर्म और साम्प्रदायिकता के बीच न कोई रिश्ता है न तादात्म्य, कट्टर धर्मानुयायी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता, इसके आदर्श उदाहरण हैं गांधी।  वे इसके लिए जीए भी और मरे भी।  गांधी हिन्दू धर्म के सबसे महान सार्वजनिक व्यक्तित्व - पब्लिक फिगर - थे/हैं।  धर्मनिरपेक्षता को लेकर उनकी हजारों सार्वजनिक टिप्पणियां है।  इनमे से कुछ इस प्रकार हैं ; राज्य का कोई धर्म नहीं हो सकता, भले उसे मानने वाली आबादी 100 फीसदी क्यों न हो।  धर्म  मामला है इसका राज्य के साथ कोई संबंध नहीं होना चाहिए।  राजनीति में धर्म बिलकुल नहीं होना चाहिए, मैं यदि कभी डिक्टेटर बना तो राजनीति में धर्म को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दूंगा।  रामराज्य का मतलब राम का या धर्म का राज नहीं है, मैं जब पख्तूनों के बीच जाता हूँ तो खुदाई राज और ईसाइयों के बीच जाता हूँ तो गॉड के राज की बात करता हूँ, इसका मतलब धार्मिक राज नहीं है , समता और सहिष्णुता का शासन है, नैतिक समाज का आधार है। धर्म राष्ट्रीयता का आधार नहीं हो सकता। धर्म और संस्कृति अलग अलग है। वे यह मानते थे कि साम्प्रदायिकता को पैदा करने और उसे हवा देने का काम उन मध्यमवर्गी हिन्दू-मुसलामानों का किया हुआ है जो नौकरियों और विधानसभाओं, नगरपालिकाओं में सीट हासिल करना चाहते हैं और इसके लिए सांप्रदायिकता को जरिया बनाते हैं।  वे कहते थे कि भारत दुनिया की सभी संस्कृतियों, धर्मों की गुलजार बगिया है।  वे भाषा के साम्प्रदायिकीकरण के विरुध्द थे और उस समय जब सावरकर मराठी भाषा में से फारसी और अरबी के शब्दों को निकालने की मुहीम छडे हुए थे, इधर हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाया जा रहा था, गांधी हिन्दुस्तानी को आम भाषा बनाने की पैरवी कर रहे थे।  राष्ट्रीय  आंदोलन की इस धारा में साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के बारे में इतनी स्पष्ट समझ कम ही नेताओं की थी।  
गांधी के साथ एक संयोग यह था कि उनके ‘गुरु’ गोपाल कृष्ण गोखले और उनके उत्तराधिकारी ‘शिष्य’ नेहरू दोनों ही अनीश्वरवादी थे।  सनातनी  गांधी ने भी धर्म के बारे में अपने विचारों को बाद में और विकसित किया,  समृध्द  और परिवर्धित किया। अपने दो नास्तिक युवा समर्थकों के साथ लम्बी बहस के बाद गांधी ने ईश्वर ही सत्य (गॉड इज ट्रुथ) के आप्तवचन को बदल कर सत्य ही ईश्वर (ट्रुथ इज गॉड) कर दिया। उन्होंने यहां तक कहा कि शास्त्र में लिखा नहीं, तर्क और रीजन और सत्य ही सर्वोपरि है और यह बात उन्होंने अपनी प्रिय किताब गीता पर भी लागू करने को कहा।  उन्होंने कहा कि धर्म में भी तर्क और रीजन ही आधार होगा शास्त्र में लिखा नहीं।  क्योंकि शास्त्र तो शैतान भी बोलता है।   
सारत: 
एक शानदार व्यक्तित्व वाले गांधी ऐसे राजनीतिक व्यक्ति थे जिन्होंने उच्च नैतिक मूल्यों की राजनीति की। जिन्होंने एक लंबे अहिंसक आंदोलन के जरिये देश को उपनिवेशवाद से मुक्त कराने की लड़ाई लड़ी और जीती।  एक कट्टर धार्मिक व्यक्ति जिन्होंने धर्मसंगत बताई जाने वाली कुरीतियों से मोर्चा लिया और महिलाओं की सामाजिक मुक्ति और दलितों के छुआछूत व उत्पीडऩ के विरुध्द लड़ाई लड़ी। जिन्होंने जीवन मे तर्ज/रीजन को अपनाने की बात की। जो नागरिक आजादी के पक्षधर थे। जिनके पास एक विश्व दृष्टिकोण था ।
सबसे बड़ी सफलता - सबसे बड़ी विफलता
गांधी की सबसे बड़ी सफलता अंग्रेजों को भगाने की थी । गांधी की सबसे बड़ी विफलता साम्प्रदायिकता को न रोक पाने की थी । इसकी कुल वजह यह थी कि वे नहीं समझ पाए कि साम्प्रदायिकता भी एक विचारधारा है। हर विचारधारा से विचारधारा के मोर्चे पर ही लडऩा होता है। मानवीय संवेदनाओं, इंसानियत, भाई-बहनापा जैसी भावुक अपीलों से इसका निर्मूलन नही हो सकता। दिल्ली के दंगों के वक़्त सुभद्रा जोशी के साथ उनका वार्तालाप मानवीयता और जान बचाने की कर्तव्य परायणता का सन्देश तो देता है, वैचारिक मुकाबले का नही । इस गलत समझदारी की कीमत गांधी को खुद अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। 19 जनवरी को आरएसएस का जो दल उनकी भूख हड़ताल तुड़वाने आया था, उन्ही के विचार गिरोह ने 11 दिन बाद 30 जनवरी को गांधी के सीने में 3 गोलियां उतार दी।
साम्प्रदायिकता से लडऩे के लिए उसे पराजित करने के लिए सिर्फ आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष काफी नही, वैचारिक मैदान में मुकाबला भी जरूरी है । यह बात गांधी के जीते जी जितनी सच थी, गोडसे के प्राणप्रतिष्ठीकरण के हिंसक समय मे और भी ज्यादा मुखर सच बनकर सामने आई है। गांधी 30 जनवरी 1948 को ही नहीं मरे थे, ही वाज किल्ड ट्वाइस। मगर यह गांधी की सामथ्र्य है कि वे आज भी हैं और जिन्हें उनसे डर लगने चाहिए उन्हें डरा भी रहे हैं।
और अंत में..
गांधीवादी जीवनशैली एक दुरूह मरीचिका है।  मनसा वाचा कर्मणा गांधीवादी होना बेहद कठिन और तकरीबन असंभव काम है। उनके तय पैमाने के आधार पर देखें तो अब तक सिर्फ एक ही गांधीवादी हुआ है, जिनका नाम था मोहनदास करमचंद गांधी। गांधीवादी होना सिर्फ  आस्तिक और अहिंसक होना भर नही है। यह शाकाहार, आहार नियंत्रण, शादी के बाद भी ब्रह्मचर्य, खुद अपने हाथों सफाई करने सहित पूरा पैकेज है।  यह फलसफा वह सोच है जिसे वे दक्षिण अफ्रीका के नटाल में स्थित फीनिक्स और टॉलस्टॉय फॉर्म से लेकर आये थे।
सादगी, ईमानदारी, साधन और साध्य की पवित्रता के प्रति आग्रह, कतार में सबसे पीछे खड़े इंसानों के हितों की खातिर कुर्बानी, देश को गुलाम बनाने के मंसूबों के विरुद्ध चौकसी और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध समझौताहीन संघर्ष के मामले में आज की राजनीति में निकटतम कोई है तो कम्युनिस्ट हैं। वे कम्युनिस्ट जिन्होंने गांधी को न कभी झांसा दिया, न धोखा किया।


About Author

Badal Saroj

लेखक लोकजतन के संपादक एवं अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं.

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